आज संघ प्रमुख मोहन भागवत की सारी बातें सरकार और मोदी जी के समर्थक मानते ही हों, यह ज़रूरी नहीं रह गया है। लेकिन उनकी बातें इतनी हल्की भी नहीं हुई हैं कि उस पर ध्यान देना ज़रूरी न रह जाए। कुछ समय पहले उन्होंने ‘हर मस्जिद में मूर्तियाँ क्यों ढूँढी जाए’ वाला बयान दिया था जिसकी काफी तारीफ हुई हालाँकि काफी सारे हिंदुत्ववादी लोग उससे हैरान-परेशान भी हुए और आलोचना तक की। पर अभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनाने की जो बात की उससे संघ परिवार और हिंदुत्ववादी जमात के ज़्यादातर लोग सहमत होंगे। और यह महज संयोग नहीं है। जब तब केंद्र के मंत्री और विभिन्न राज्य सरकारों की तरफ़ से भी जनसंख्या नीति बनाने या परिवार को सीमित करने वाले प्रावधान लाने वाली बातें की जाती हैं। कभी दो बच्चों से ज्यादा बड़े परिवार वालों को चुनाव लड़ने के अधिकार या मताधिकार से बाहर करने की बात कही जाती है तो कभी उनको राशन व्यवस्था जैसी सरकारी सुविधाओं से वंचित करने की बात उठती है। कई बार राज्य स्तरीय कानून बनाने की असफल कोशिश भी हो चुकी है।
ऐसे में मोहन भागवत अगर फिर से यह मसला उठा रहे हैं तो इस सवाल के हर पक्ष पर विचार ज़रूरी है। उल्लेखनीय है कि विजयादशमी के अपने सालाना भाषण में संघ प्रमुख ने पिछली बार इसी सवाल को उठाया था और उसके बाद संघ ने बाकायदा इस बारे में एक प्रस्ताव पास किया था। और अगले पचास साल में आने वाली जनसंख्या की चुनौतियों की चर्चा भी की। इसमें भारतीय विकास मॉडल बनाने और आत्मनिर्भर भारत के लिए काम करने का लक्ष्य रखा गया है। पर कुल मिलाकर यह दस्तावेज या चर्चा यही धारणा मजबूत करती है कि जनसंख्या नियंत्रण के बहाने संघ परिवार और भाजपा अपने मुसलमान द्वेष को ही जाहिर करती है।
इस धारणा में यह बात भी शामिल है कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और एक दिन उनकी आबादी हिंदुओं से आगे निकल जाएगी। फिर हिन्दू ‘अपने’ देश में ही अल्पसंख्यक हो जाएंगे। और इस चर्चा का लब्बो लुआब यह है कि मुसलमानों की आबादी की ‘रफ्तार’ को रोकने के लिए उनके साथ सख्ती की जाए। चिन्मयानंद और साध्वी ऋतंभरा जैसे ज्यादा उग्र राय वाले तो हिंदुओं द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करने की वकालत भी करते हैं। अब इस मोर्चे पर एक बार ही सख्ती हुई है- आपातकाल के दौरान। और उसका नतीजा राजनेताओं को रोकने वाला साबित होता रहा है।
पर संजय गांधी और जबरिया नसबंदी का मसला सिर्फ़ राजनैतिक नतीजे के चलते ही विस्मृत नहीं किया जा रहा है। इस बीच आबादी को लेकर पूरी धारणा ही बदल गई है। आबादी को बोझ मानने की जगह एक संपदा माना जाने लगा है। इसके साथ ही आबादी की वृद्धि की रफ्तार स्वाभाविक ढंग से भी गिरती गई है।
अब तो आबादी विकास दर उतने पर पहुँच गयी है जहाँ मरने वालों की संख्या और नया पैदा होने वालों की संख्या बराबरी पर आती लग रही है। शीघ्र ही यह दो के औसत से भी नीचे होगी अर्थात आबादी में कमी होने लगेगी।
दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले देश चीन में यह परिघटना शुरू हो चुकी है और इसी के चलते जल्दी ही हमारी आबादी दुनिया में एक नंबर की हो सकती है। यूरोप और अमेरिका में तो यह चीज जाने कब की हो चुकी है। और उनके यहाँ आबादी घटने से जो दिक्कत आती है, वो शुरू हो चुकी है। उत्पादक काम करने वाले हाथ कम हुए हैं, स्वास्थ्य सुविधाओं और अच्छी खुराक के चलते औसत जीवन दर बढ़ने से बूढ़ों की संख्या काफ़ी हो गई है। आबादी में बुजुर्गों का हिस्सा भर ही नहीं बढ़ रहा है, उनकी देखरेख भी एक समस्या बनती जा रही है। ऐसे में दुनिया में सबसे युवा आबादी वाला देश होने के चलते भारत की तरफ़ दुनिया की नज़र है। भले ही अब शिक्षा मंत्रालय नाम वापस आ गया है लेकिन मानव संसाधन का महत्व बढ़ा है, घटा नहीं है।
पर संघ और हर सवाल को हिन्दू- मुसलमान नजरिए से देखने वाले उग्र हिंदुत्ववादी जमात के लिए अब भी अगर आबादी का सवाल आगे है तो उसकी वजह मुसलमानों को ‘लांछित’ करना और उनकी बढ़ती आबादी की दर दिखाकर हिंदुओं को गोलबंद करने की रणनीति है। यह सही है कि आज मुल्क में आबादी बढ़ोतरी की जो औसत रफ्तार है, उससे मुसलमानों की आबादी ज्यादा तेजी से बढ़ी है। पर दो चीजों का ध्यान रखना ज़रूरी है। एक तो यह कि बिहार, ओडिशा और राजस्थान समेत मुल्क के गरीब इलाकों में आबादी बढ़ने की रफ्तार मुसलमानों की औसत बच्चा पैदा करने की रफ़्तार से भी अधिक रही है। जो जिला जितना ज़्यादा पिछड़ा है, वहाँ जन्म दर उतना अधिक है। यह अलग बात है कि वहाँ मृत्यु दर भी ज्यादा है। दूसरी चीज खुद मुसलमानों की आबादी बढ़ने की रफ्तार में सबसे तेज गिरावट है। तो एक बात हिन्दू-मुसलमान से भी बड़ी है कि आबादी का रिश्ता गरीबी से है और मुसलमानों में गरीबी ज्यादा है इसलिए उनमें परिवार बड़ा रखने का लोभ किसी भी गरीब परिवार की तरह है। दूसरी चीज है आबादी का बोझ घटाने के लिए उन उपायों पर ध्यान देना जो देश और दुनिया में आबादी कम करने वाले समाजों ने अपनाया है।
और जब हम इस सवाल पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि गरीबी मिटाने और आबादी की दर कम करने का तरीका अमीरों से धन छीनकर गरीबों में बांटने जैसा मुश्किल नहीं है। इसका तरीका शिक्षा, खासकर लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर ध्यान देना है। यूरोप और अमेरिका के अनुभव से बेहतर है कि हम केरल और तमिलनाडु की ही चर्चा करें, अगर हिन्दी पट्टी की ही बात करनी है तो हिमाचल की चर्चा करें। अगर दूसरे समुदायों का उदाहरण देखना हो तो सिख, पारसी और जैनियों का अनुभव देखें। हर बार हम इसी नतीजे पर पहुँचेंगे कि शिक्षा, स्वास्थ्य और बेहतर खुराक सबसे बढ़िया गर्भनिरोधक का काम करते हैं। अगर भविष्य को लेकर चिंताएँ कम होंगी तो संतान बढ़ाने की परवाह भी कम होगी।
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