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75 साल: मोदी सरकार ने कोई बड़ी योजना शुरू नहीं की?

आजादी का अमृत महोत्सव की धूम रही। होनी भी चाहिए। हमारी आजादी खास है, हमारी आजादी की लड़ाई खास है, हमारे नायक खास थे और हिंदुस्तान से आगे बढ़कर उनका प्रभाव दुनिया भर में गया। हमारी चुनौतियां खास रही हैं और कई मायनों में हमारी उपलब्धियां भी खास रही हैं। और हमने 1972 और 1997 में आजादी की रजत जयंती और स्वर्ण जयंती भी बहुत उत्साह से मनाई थी, कई बड़ी योजनाएं शुरू की गई थीं।

आज की सरकार और उसके पीछे बैठे संघ परिवार ने शोर बहुत मचाया लेकिन कोई बड़ा कार्यक्रम सामने नहीं आया। शुरुआत तो सवा साल पहले हुई थी लेकिन साल भर सरकार उसे बिसराए ही रही। इस बीच गांधी की छवि धूमिल करने, नेहरू को बिसारने, जेपी-लोहिया को हाशिए पर डालने और आजादी के संघर्ष को खंडित और विभाजित बताने तथा अपने सावरकर को प्रतिष्ठित करने का छल भी चला गया। आजादी की लड़ाई को भी हिन्दू-मुसलमान बंटवारे में इस्तेमाल करने के लिए पंद्रह अगस्त से ठीक पहले विभाजन को याद करने का कार्यक्रम चला। कहीं हिन्दू-मुसलमान एकता वाला बल दिखाई न दे इसलिए 2021 में 1921 के असहयोग आंदोलन को भुलाकर मई से नमक सत्याग्रह को याद करके अमृत महोत्सव की शुरुआत की गई।

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देश का एक रहना और मजबूत राष्ट्र के रूप में उभरना हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है। अंग्रेज़ी हुकूमत के असंख्य लोग, जिसमें चर्चिल आखिरी महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, यह बार-बार दावा करते थे कि भारत असंख्य जातियों, धर्मों, भाषाओं वाले लोगों का बिखरा हुआ भूभाग था जिसे इतिहास में पहली बार एक देश के रूप में लाने का काम अंग्रेज़ी हुकूमत ने ही किया है। हमारे अपने खुशवंत सिंह और नीरद चौधरी जैसे मानसिक अंग्रेज़ भी इसे सही बताते थे। लेकिन दादा भाई नौरोज़ी से लेकर गांधी तक यही कहते थे कि हमारी अनेकता में एकता है। उपनिषद काल से आसेतु हिमालय की अवधारणा हमारे राष्ट्र को परिभाषित करती है। इस दावे के साथ हमारे नेता लगातार उन सभी विभाजनकारी सवालों पर भी सक्रिय रहे जबकि अंग्रेज़ी शासन की ‘बांटो और राज करो’ के नाम पर हर विभाजक तत्व को बढ़ावा देता रहा। मुस्लिम लीग, संघ और हिन्दू महासभा भी उसकी रणनीति से जन्मे और उसके एजेंडे को आगे बढ़ाते रहे।

गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन ने हिन्दू-मुसलमान मसले पर, छुआछूत, भाषावार प्रांत के सवाल पर (प्रशासनिक इकाई बनाने के काफी पहले कांग्रेस ने अपने संगठन को भाषावार प्रांतों के हिसाब से बाँट दिया था) देश में अलख जगाई। हाँ, यह ज़रूर हुआ कि हिन्दू-मुसलामान सवाल पर जिन्ना और ब्रिटिश हुकूमत ने मुल्क बँटवा दिया लेकिन पाकिस्तान भी एक नहीं रह पाया और अब भी उसके बिखरने का ख़तरा बना हुआ है। दूसरी ओर जो विभाजनकारी ताक़तें थीं वे आज हर कहीं हाशिए पर जा चुके हैं- पूर्वोत्तर, पंजाब, कश्मीर और तमिलनाडु से ऐसे स्वर आना भी बंद हो गए हैं।

लेकिन निश्चिंत नहीं रहा जा सकता। क्योंकि आज केन्द्रीय सत्ता जिन लोगों के हाथ में है वे मुल्क को अस्सी और बीस में बांटने में लगे हैं। असल में उनकी सोच में सबको साथ लेकर चलना या सबका विकास है ही नहीं। अब केन्द्रीय सत्ता हाथ आ जाने के बाद उनके विचारों की सीमा भी साफ हो गई है। इसलिए संघ प्रमुख से लेकर शासन प्रमुख तक अलग-अलग बात करते हैं, और वे खुद और उनके चेले उल्टा आचरण करते हैं। 

पूरे देश में बीजेपी को एक भी मुसलमान उम्मीदवार चुनाव लड़ने के काबिल नहीं लगता तो एक भी व्यक्ति मंत्री बनाने लायक नहीं लगता। इसके बावजूद उसे ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा लगाने में झिझक नहीं होती।

ऐसा उस संविधान की भावना के खिलाफ तो है ही जो अपने समय में दुनिया का सबसे उन्नत और आधुनिक संविधान था। आज तो लोकतंत्र और राष्ट्र को एक दूसरे का विरोधी बना दिया गया है और अगर भाजपा और संघ परिवार की चली होती तो देश में राष्ट्रपति प्रणाली की शासन व्यवस्था भी लागू हो गई होती। आज मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों को ही दरकिनार करने की कोशिश हो रही है। और समानता तथा धर्मनिरपेक्षता जैसे पद तो मजाक का विषय बना दिए गए हैं। गैर बराबरी बेहिसाब रफ्तार से बढ़ रही है। यह भुला दिया गया है कि समानता, बंधुत्व और सर्वधर्म समानता हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के केन्द्रीय मूल्य थे। और आजादी के बाद जब हमने अपने ढंग से विकास शुरू किया तो दुनिया हमारी ओर उम्मीद से देखती थी कि भारत आजादी के साथ इतने मोर्चों पर पश्चिम और सोवियत संघ से अलग तरह का प्रयोग कर रहा है।

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नेहरू का वैश्विक आदर निजी यारी-दोस्ती से नहीं था। बड़ी कुशलता से लोकतंत्र अपनाने, स्वतंत्र चुनाव कराने, स्वायत्त लोकतान्त्रिक संस्थाओं के गठन और संचालन के चलते था। चुनाव आयोग, दलीय लोकतंत्र, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों और कामों के संतुलित बंटवारे और अपने-अपने ढंग से उनके आगे बढ़ाने को लेकर था। आज हमारे विधायी काम, कार्यकारी कार्य-व्यापार और न्यायिक व्याख्याएँ उस पूरे इतिहास पर ही पानी फेर रही हैं। अदालत की सारी मशीनरी ताकतवर लोगों को बचाने और अदालत का दरवाजा खटखटाने वालों के खिलाफ ही कार्रवाई करने की हो गई है। लोगों का यह आरोप है कि संसद और विधान सभाएँ अपराधियों और पैसेवालों का अड्डा बनती जा रही हैं, ढेरों माननीय अपने चुनाव का ख़र्च के ब्यौरे देने में ही झूठ से शुरुआत करते हैं।

और इन बड़ी संस्थाओं की जब यह हालत हो तो बाक़ी संस्थाओं को कौन पूछे। चुनाव आयोग की बैठकों तक से अधिकारी अपने आकाओं को वाट्सऐप पर संदेश देते रहते हैं। विधेयक संसद में पेश होने से पहले कंपनियों के हाथ लग जाते हैं जो मनमाने बदलाव कराती हैं। सांसद सारे शर्म छोड़कर लॉबीस्ट बन गए हैं। पार्टियों का संचालन तो और शर्माक ढंग से होता है जहाँ व्यक्तियों और परिवारों का कब्जा है। अंदरूनी चुनाव दूर की चीज हैं, सार्वजनिक चन्दा मांगना शर्म की बात बन गई है-डरा-धमकाकर या फ़ाइल पास करने की दलाली से चन्दा जमा होता है। ऐसे में सीबीआई, प्रवर्त्तन निदेशालय, पुलिस के सदुपयोग-दुरुपयोग की चर्चा तो बहुत छोटी बात है। पर इनके दुरुपयोग में भी आज जितनी और जैसी बेशर्मी पहले कभी न थी। थाने से लेकर चीफ सेक्रेटरी तक की नियुक्ति और तैनाती में पक्षपात, विश्वविद्यालयों से लेकर हर नियुक्ति में पक्षपात या भ्रष्टाचार नियम बन गए हैं।

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लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक व्यवस्था का कायम रहना और मजबूत होना पचहत्तर साल की सबसे बड़ी उपलब्धियों में है। इस चलते मुल्क मजबूत हुआ है क्योंकि दिन ब दिन सबसे कमजोर लोग और समूह भी इस व्यवस्था में उत्साह के साथ जुड़ते गए हैं और दुनिया के विपरीत हमारा लोकतंत्र जीवंत और मजबूत हुआ है। लेकिन साथ ही दो बदलाव और हुए हैं। बढ़ती गैर बराबरी और सारे धन के कुछ हाथों में सिमटने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया दलीलों और पैसेवालों से भर गई है।

दूसरी ओर वोट का अधिकार लोगों के अंदर ज़रूरी जबाबदेही लाने में विफल रहा है। इससे एक उच्छृंखलता पैदा हुई है। कुछ तत्व बहकावे में आ कर कुछ भी करने को तैयार है और इसे बाजार के सहयोगी सोशल मीडिया के सहारे खूब नचाया भी जा रहा है। ऐसे लोगों को हत्यारों और बलात्कारियों का खुला अभिनंदन करने में भी शर्म नहीं आती क्योंकि उनको यह पढ़ा दिया जाता है कि यह सब महान काम एक खास उद्देश्य से किया गया था। लोकतंत्र के हजार गुणों के साथ कुछ दुर्गुण भी हैं। वह चुनावी लड़ाई में समाज के हर दरार का इस्तेमाल अपने अपने पक्ष में करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। सो अपने यहाँ भी जाति, धर्म, भाषा, लिंग और अन्य उन सभी बांटने वाली चीजों का जोर बढ़ा है जिसे हमारा राष्ट्रीय आंदोलन ख़त्म करना चाहता था और जिस दिशा में आजादी के शुरुआती वर्षों में हमने प्रगति भी की थी।

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अरविंद मोहन
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