दलित आन्दोलन का सबसे मजबूत राजनीतिक स्वरूप उत्तर प्रदेश में दिखा, जहाँ बहुजन समाज पार्टी की मायावती भारतीय जनता पार्टी की मदद से 1995 से 2003 के बीच तीन बार थोड़े-थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री बनीं। उन्होंने चार साल बाद अपने बल बूते बहुमत हासिल करने का कारनामा कर दिखाया।
उसके बाद मायावती के राजनीतिक पतन की शुरुआत हो गई । उनकी पार्टी को 2007 के चुनाव में 30.46 प्रतिशत वोट मिला, जो कम होते होते 2017 के विधानसभ चुनाव में 22.23 प्रतिशत पर आ गया।
अब जबकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 की तैयारियाँ चल रही हैं, बीएसपी समाजवादी पार्टी और बीजेपी से बहुत पीछे है। कुछ लोगों का कहना है कि बीजेपी ने मीडिया पर नियंत्रण के बल पर यूपी चुनाव को योगी आदित्यनाथ बनाम समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के बीच की लड़ाई बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है।
यूपी चुनाव
कुछ लोगों का कहना है कि सपा को मुसलमानों के प्रति मुलायम समझा जाता है और बीजेपी इस आधार पर मतदाताओं का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर चुनाव जीत लेगी।
लेकिन दलित कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और चुनाव नतीजों का विश्लेषण करने वाले दो विशेषज्ञों से बात करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि दलितों में ऐसा मानने वाले ज़्यादा लोग नहीं हैं।
उनका कहना है कि मायावती तो मुख्यमंत्री पद की दौड़ में ही नहीं हैं। इससे भी बुरा यह है कि उन्हें 2017 से भी कम वोट मिल सकते हैं। मायावती 65 साल की हो चुकी हैं और 40-60 से कम सीटें मिलने से वे राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो जाएंगी।
दलित वोट
महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या मायावती दलितों पर अपनी पकड़ बनाए रख पाएंगी, जो उत्तर प्रदेश की आबादी के 21 प्रतिशत हैं? इसमें भी मायावती की जाति जाटव की जनसंख्या 56 प्रतिशत है। पासी 11 प्रतिशत और वाल्मीकि 3.5 प्रतिशत हैं।
सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटी के आँकड़ों के अनुसार, मायावती ने जब 2007 में जबरदस्त ढंग से चुनाव जीत लिया था, उस समय 85 प्रतिशत जाटवों, 71 प्रतिशत वाल्मीकि और 57 प्रतिशत पासी ने बीएसपी को वोट दिया था। उनकी इस जीत का श्रेय ब्राह्मणों को बेवजह दिया जा रहा है क्योंकि सिर्फ 17 प्रतिशत ब्राह्मणों ने बीएसपी को वोट दिया था।
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दलितों का एकजुट होना मायावती के लिए अहम है। वे 2012 में सत्ता से बाहर इसलिए हो गईं कि सिर्फ 62 प्रतिशत जाटवों, 42 प्रतिशत वाल्मीकियों और 52 प्रतिशत पासियों ने बीएसपी को वोट दिया था। इससे यह समझ में नहीं आता है कि वे ब्राह्मणों के वोट के लिए इतनी परेशान क्यों हैं।
मायावती के विरोधियों का कहना है कि ब्राह्मणों ने बीएसपी को वोट सिर्फ तब दिया है जब उन्हें लगा है कि उसके सत्ता में आने के पूरे आसार हैं।उनके सत्ता में आने की संभावना दलित वोटों के एकीकरण पर है, जिसके लिए उन्होंने कोशिश नहीं की है।
मायावती के विरोधियों का यह भी कहना है कि ब्राह्मणों को रिझाने की कोशिश से दलित नाराज़ होते हैं जो ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व को अपनी सभी दुखों की जड़ मानते हैं।
दलितों के दोस्त-दुश्मन!
दलित विद्वान आनंद तेलतुमब्डे को उद्धृत किया जाए तो कोई भी आन्दोलन तब तक कामयाब नहीं हो सकता जब तक यह इसके दोस्तों और दुश्मनों के बीच फर्क नहीं कर ले। बीएसपी ने 'बहुजन' के बजाय 'सर्वजन' पर ज़ोर दिया है, जिसका अर्थ होता है 'सारे लोग', यह बहुमत का पाली शब्द है और यह इसका अर्थ है देश के 85 प्रतिशत लोग।
इसका मतलब यह है कि बीएसपी देश पर शासन करने वाले उच्च वर्गों और ऊँची जातियों के लोगों के साथ मिलीभगत कर रही है, जो देश की आबादी की सिर्फ 15 प्रतिशत हैं।
यह मिलीभगत जातियों और वर्गों के बीच के संघर्ष को कमतर करती है और यह बीएसपी के घटते वोट प्रतिशत से साफ होता है।
आक्रामक राजनीति
दलितों को आक्रामक व लड़ाकू किस्म की राजनीति पसंद है। निश्चित तौर पर मायावती को वश में कर लिया गया है और इसका कारण एनफोर्समेंट डाइरेक्टरेट का उनके पीछे पड़ना बताया जा रहा है, जो ग़लत है। मायावती शायद सत्ता व सुख भोगने के बाद नरम पड़ गई हैं।
सारे राजनीतिक दल सही-ग़लत तरीके से पैसे का इंतजाम करते हैं। लेकिन इस पर ध्यान दें- एक दलित सरकारी कर्मचारी ने मुझे बताया कि साल 1993 में जब उनके एक चचेरे भाई ने चुनाव लड़ा था तो उन्हें कहा गया था कि वे अपना पासबुक दिखाएं जिससे यह पता चल सके कि उनके खाते में 20,000 रुपए हैं।
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आज एक उम्मीदवार के पास कम से कम दो करोड़ रुपए होने चाहिए। इससे बीएसपी के ज़मीनी स्तर के दलित कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव लड़ना नामुमकिन हो गया है और वे इससे काफी हतोत्साहित हैं।
योगी आदित्यनाथ ने मायावती को इसके काफी मौके दिए कि वे अपनी आक्रामक राजनीति फिर अपनाएं।
इसके बावजूद वे दलित उत्पीड़न होने पर उस जगह नहीं जाती हैं, उसके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर कर बड़ा आन्दोलन खड़ा करने की तो बात ही छोड़िए।
दलित आन्दोलन
यहाँ तक कि 2018 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निषेध) अधिनियम को कमज़ोर करने की कोशिशों के ख़िलाफ़ हुआ भारत बंद भी बीएसपी की वजह से नहीं हुआ था। इसने जेल भेजे गए दलित कार्यकर्ताओं की मदद भी नहीं की थी। मायावती निजीकरण की नीति के ख़िलाफ़ नहीं बोल रही हैं, जबकि ऐसा किए जाने से सरकारी नौकरियों में कमी आएगी। यह विषय दलितों के दिल के नज़दीक है।
इससे बीएसपी को यह मौका मिला कि वह आँकड़ों का खेल कर सके और उस आधार पर सत्ता हासिल कर सके और इस तरह दलितों के दबदबे को दिखा सके। लेकिन इससे जाति-वर्ग रिश्तों पर कुछ ख़ास असर नहीं पड़ा।
बीजेपी के दबदबे के कारण उत्तर प्रदेश में उथल-पुथल अब थम चुका है। मायावती का दलित आधार भी अब दबाव में है और वे अब डूबता हुआ सूरज हैं। वे ज़्यादा से ज़्यादा त्रिशंकु विधानसभा की उम्मीद कर सकती हैं। अब वाकई वह समय आ गया है कि वे बराबरी की लड़ाई के बारे में सोचें।
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