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कांशीराम की मेहनत पर पानी फेरतीं मायावती! 

उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले दिनों संपन्न हुए चुनावों में जहाँ भारतीय पार्टी अपनी सीटों में 2017 की तुलना में 57 सीटें कम आने के बावजूद सत्ता में वापस आ गयी वहीँ समाजवादी पार्टी ने अपने मत प्रतिशत में इज़ाफ़ा करते हुये 2017 के मुक़ाबले लगभग 64 सीटें अधिक हासिल कर कुल 111 सीटों पर विजयी होने के बावजूद सत्ता के जादुई आंकड़े से काफ़ी दूर रही। 

इन चुनावों में सबसे अधिक नुक़सान बहुजन समाज पार्टी को उठाना पड़ा जिसे 2017 के मुक़ाबले 18 सीटें और गंवाकर राज्य की मात्र एक सीट पर ही जीत हासिल हुई। और उस एकमात्र विजयी प्रत्याशी उमाशंकर सिंह के विषय में भी यही बताया जा रहा है कि उन्होंने अपने निजी जनाधार व लोकप्रियता के चलते यह जीत हासिल की है न की मायावती के समर्थन अथवा बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी के नाते। 

उत्तर प्रदेश में बलिया ज़िले के अंतर्गत रसड़ा विधानसभा क्षेत्र से विजयी बसपा से  निर्वाचित एकमात्र विधायक उमाशंकर सिंह इससे पूर्व भी 2012 व 2017 में यहाँ से विधायक रह चुके हैं। क्षेत्र में समाजसेवी के साथ साथ उनकी रोबिन हुड जैसी छवि बनी हुई है। यही उनकी जीत का प्रमुख कारण माना जा रहा है। 

                                                    

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सवाल यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहने वाली मायावती के नेतृत्व में ऐसी क्या कमी रह गयी कि जो मायावती अपनी पार्टी के जनाधार की बदौलत देश के प्रधानमंत्री बनने तक के सपने संजोने लगी थीं आज उनकी वही बसपा मृत प्राय सा राजनैतिक दल क्यों प्रतीत होने लगा है ?

ग़ौरतलब है कि 1984 में कांशीराम ने देश में 85 प्रतिशत बहुजनों के मतों के बल पर 15 प्रतिशत सवर्णों द्वारा देश पर राज करने जैसी 'फ़िलॉसफ़ी ' को सामने रखकर बसपा का जनाधार पूरे देश विशेषकर उत्तर प्रदेश में बढ़ाया था। और 85 बनाम 15 प्रतिशत के इसी फ़ार्मूले ने उनकी पार्टी को आसमान पर पहुंचा दिया था।

कांशीराम जीवन भर अपनी इसी सामाजिक गणित के प्रति कटिबद्ध रहे और सत्ता के लिये उन्होंने अपने इस सामाजिक अंकगणित की कभी बलि नहीं चढ़ाई। कांशी राम ने 2001 में सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर कुमारी मायावती को अपना उत्तराधिकारी तो ज़रूर बनाया परन्तु 2006 में कांशीराम के देहांत के बाद मायावती ने न केवल बसपा संगठन पर पूरा नियंत्रण हासिल कर लिया बल्कि मात्र सत्ता के लिये मनमाने तरीक़े से कई  बार पार्टी की नीतियों व सिद्धांतों से भी समझौता किया। यहाँ तक कि वे कई बार अपने मुख्य नारों को यू टर्न देते हुये अपनी पार्टी की मूल विचारधारा से समझौता करती भी नज़र आईं।

                                                    

BSP lost in UP electon 2022 - Satya Hindi

बहुजन समाज के साथ साथ मायावती ने सर्वजन समाज की बात भी करनी शुरू कर दी। दलित समाज के मतों पर अपना एकाधिकार समझने के बाद मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन करने शुरू कर दिये। भरी सभा में वह जिसे गलियां देते व अपमानित करते फिरती थीं उसी समाज को आकर्षित करने के लिये उन्होंने पार्टी व कांशी राम के सिद्धांतों की बलि चढ़ा दी। और इसी भ्रमित करने वाली राजनीति का नतीजा यह निकला कि ताज़ातरीन विधानसभा चुनावों में मायावती की हालत ' न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए' जैसी हो गयी। 

न ही उन्हें 85 प्रतिशत समाज वाले पारंपरिक वोट मिले न ही 15 प्रतिशत समाज के वह मत हासिल हुए जो पहले भी कभी नहीं मिला करते थे।

BSP lost in UP electon 2022 - Satya Hindi

मायावती ने अपनी इस ऐतिहासिक हार का ठीकरा दलितों या ब्राह्मणों पर नहीं बल्कि मुसलमानों के सिर पर फोड़ा। जबकि मायावती ने मुसलिम मतों के लिये ब्राह्मण सम्मेलनों की तरह न तो कोई मुसलिम सम्मलेन आयोजित किये न ही वे कभी मुसलमानों के दुःख दर्द की साथी बनती दिखाई दीं। इसके बावजूद उनका ग़ुस्सा राज्य के मुसलिम मतदाताओं पर फूटना उनकी राजनैतिक अदूरदर्शिता के साथ साथ किसी 'प्रायोजित व नियोजित ' साज़िश का भी षड्यंत्र नज़र आता है। 

                                              

वैसे भी मायावती की तानाशाही व अहंकारपूर्ण कार्यशैली ने भी पार्टी को भारी नुक़सान पहुँचाया है। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भले ही स्वप्रशंसा करने, अपनी पीठ थपथपाने तथा स्वयं को महामानव प्रदर्शित करने वाले नेता के रूप में जाना जाता हो परन्तु मायावती भी मोदी से किसी क़ीमत पर कम नहीं हैं। 

वे लिखित वक्तव्य भी इसीलिये पढ़ती हैं ताकि उनके मुंह से अनाप शनाप न निकल जाये। याद कीजिये जब मायावती ने स्वयं को दलितों की ज़िंदा देवी होने का दावा करते हुये अपने समर्थकों से उनपर ही चढ़ावा चढ़ाने का आह्वान किया था। 

                                               

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उत्तर प्रदेश के अपने मुख्यमंत्री के कार्यकाल में मायावती ने गौतम बुद्ध, रविदास, नारायण गुरु, ज्योतिराव फुले, साहूजी महाराज, पेरियार रामासामी, भीमराव अम्बेडकर, बसपा संस्थापक कांशीराम के अतिरिक्त स्वयं की भी अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया। उनका अपने जीवन काल में ही मूर्तियां स्थापित करने जैसा नया चलन काफ़ी विवादित भी हुआ था। मायावती ने अपनी पार्टी के चुनाव निशान हाथी की भी नोएडा से लेकर लखनऊ तक अनेक विशाल मूर्तियां बनवा डालीं। 
मायावती जब भी सार्वजनिक रूप से 'प्रकट ' होती हैं तो हमेशा एक बड़े सोफे पर अकेले ही बैठी नज़र आती हैं। कोई नेता उनके साथ या बराबर बैठने का साहस नहीं कर सकता। इस तरह का अहंकारपूर्ण प्रदर्शन तो कभी इंदिरा गाँधी जैसी विश्व की महान नेता ने नहीं किया।

गत दिनों जब मायावती अपनी पार्टी की ऐतिहासिक हार के बाद मीडिया के समक्ष आईं और मुसलमानों को कोसने लगीं उसके बाद चूँकि वे व उनकी पार्टी विवादों में घिर गयी थी और उनके पास इस मुसलिम विरोधी वक्तव्य देने का कोई स्पष्टीकरण नहीं था इसीलिये उन्होंने अपने पार्टी  प्रवक्ताओं को प्रेस कॉन्फ़्रेंस करने या टीवी डिबेट में जाने से मना कर दिया। इस बार के चुनाव में भी उनकी भूमिका भारतीय जनता पार्टी को लाभ पहुँचाने वाली ही रही। 

चुनावी विश्लेषकों के अनुसार गत दिनों उत्तर प्रदेश में संपन्न हुये चुनावों में मायावती की बसपा तथा असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, इन दोनों ही दलों ने सत्ता विरोधी मतों को विभाजित कर बीजेपी की ही मदद की है। और शायद मायावती की इसी भ्रमपूर्ण राजनीति के चलते अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि यह बसपा का पतन काल है। और यदि यह सच है तो सवाल यह है कि क्या मायावती की राजनैतिक कार्यशैली व उनके फ़ैसले कांशीराम की मेहनत पर पानी फेर देंगे?

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निर्मल रानी
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