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गाँधी के 'आध्यात्मिक गुरु' तोलस्तोय से कैसा ख़तरा मी लॉर्ड?

10 सितंबर 1928 को साबरमती आश्रम में एक विशेष आयोजन था। आश्रम के युवक संघ ने रूसी लेखक लेव तोलस्तोय के जन्म शताब्दी समारोह का आयोजन किया था। महात्मा गाँधी इस मौके पर तोलस्तोय को 'सत्य की मूर्ति' बताते हुए कहा-

‘अहिंसा के विषय में पश्चिम के लिए जितना तोलस्तोय ने लिखा है, उतना मार्मिक साहित्य दूसरे किसी ने नहीं लिखा। अहिंसा का जितना सूक्ष्म दर्शन और उसका पालन करने का जितना प्रयत्न तोलस्तोय ने किया था, उतना प्रयत्न करने वाला आज हिंदुस्तान में कोई नहीं है और न मैं किसी ऐसे आदमी को जानता हूँ। यह स्थिति मेरे लिए दुखदायक है। यह मुझे नहीं भाती। हिंदुस्तान में ऋषि-मुनियों ने अहिंसा के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी खोजें की हैं, परंतु पूर्वजों की उपार्जित पूँजी पर हमारा निर्वाह नहीं हो सकता। उसमें यदि वृद्धि न की जाए तो वह समाप्त हो जाती है।’

लगभग 90 साल बाद वही तोलस्तोय कठघरे में हैं जिन्हें महात्मा गाँधी अपना 'आध्यात्मिक गुरु' मानते थे। 28 अगस्त को बाम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस सारंग कोतवाल ने भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले की सुनवाई के दौरान एलगार परिषद से जुड़े एक्टिविस्ट वेरनॉन गोंजाल्विस से सवाल किया कि उन्होंने 'दूसरे देश के युद्ध की किताब' अपने घर में क्यों रखी है। दरअसल, पुलिस ने कथित माओवादी गोंजाल्विस के घर से जो किताबें ज़ब्त की हैं, उनमें लेव तोलस्ताय का उपन्यास 'वार एंड पीस' भी है जिसे जस्टिस कोतवाल दूसरे देश के युद्ध की किताब बता रहे हैं। पुलिस का कोई कोतवाल इसे सरकार के ख़िलाफ़ युद्ध प्रेरित करने वाली किताब समझता तो बात दूसरी थी, लेकिन 'जस्टिस' कोतवाल की ओर से आने वाला यह सवाल हैरान करने वाला है।

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'वार एंड पीस' यानी 'युद्ध और शांति' दुनिया का सर्वकालिक महान उपन्यास माना जाता है। पता नहीं बाम्बे हाईकोर्ट के पुस्तकालय का क्या हाल है, लेकिन इस किताब के बिना किसी पुस्तकालय के सम्पूर्ण होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। साहित्य ही नहीं, समाज और इतिहास को समझने में ज़रा भी रुचि रखने वाले किसी व्यक्ति के लिए यह एक ज़रूरी पाठ है। यह युद्ध को बढ़ावा देने वाला नहीं, उसकी निरर्थकता का बोध कराने वाला उपन्यास है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में दर्ज है कि ‘यह तर्क दिया जा सकता है कि कोई भी अँग्रेज़ी उपन्यास रूसी लेखक लेव तोलस्तोय के 'युद्ध और शांति' की सार्वभौमिकता प्राप्त नहीं करता है।’

क्या है तोलस्तोय के उपन्यास में?

रूस के एक कुलीन परिवार में 9 सितंबर 1828 को जन्मे 'काउंट' लेव तोलस्तोय जवानी में कुछ समय के लिए सेना में शामिल हुए थे। 1854 में क्रीमिया के युद्ध का हिस्सा भी बने थे। लेकिन फिर सबकुछ छोड़-छाड़कर अपने गाँव चले गए जहाँ उन्होंने किसानों के बच्चों के लिए स्कूल खोला और प्रगतिशील शिक्षा पद्धति के प्रयोग करने लगे। इस बीच उनकी कुछ रचनाएँ सामने आई थीं, लेकिन 1865-69 के बीच चार खंडों में प्रकाशित क़रीब डेढ़ हज़ार पन्नों के उनके उपन्यास ‘वोयना इ मीर’ (वार एंड पीस) ने दुनिया में तहलका मचा दिया। यह उपन्यास 1812 में नेपोलियन बोनापार्ट के हमले और सम्राट अलेक्ज़ेंडर प्रथम के समय के रूसी समाज पर पड़ने वाले इसके असर का जैसा चित्रण करता है, उसे सिर्फ़ रूस नहीं पूरी मानव सभ्यता और इतिहास का विश्लेषण माना गया। सैकड़ों पात्रों के बचपन से लेकर बुढ़ापे तक के सफ़र के ज़रिए तोलस्तोय ने समाज, राजनीति और जीवन के तमाम पहलुओं का रेशा-रेशा उघाड़कर रख दिया था। यह भू-दासों की मुक्ति के पहले के उस रूसी समाज का चित्रण करता है जो ढहते सामंती मूल्यों से बजबजा रहा है। कुलीनों के पाखंडपूर्ण जीवन, उनके जनविरोधी रुख और स्त्रियों की विडंबना को मनोवैज्ञानिक गहराइयों के साथ पिरोते हुए तोलस्तोय ने इस उपन्यास में साधारण रूसी लोगों के उस साहस और वीरता का बखान किया है जिसने जीत के नशे में चूर नेपोलियन की सेना के छक्के छुड़ा दिए थे।

यह तोलस्तोय की विराट दृष्टि ही थी कि रूसी कम्युनिस्ट क्रांति के महानायक लेनिन 'युद्ध और शांति' को मज़दूर वर्ग के लिए अनिवार्य पाठ तो फ्रांसीसी लेखक रोमां रोला ‘19वीं शताब्दी का भव्य स्मारक, उसका मुकुट’ बताते हैं। लगभग सभी भाषाओं के महान लेखकों ने इस स्मारक के सामने सिर नवाया है।

कहते हैं कि महात्मा गाँधी ने तोलस्तोय के उपन्यास 'पुनरुत्थान' को पढ़कर उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु मान लिया था। यह पश्चाताप को एक बड़े मानव-मूल्य के रूप में स्थापित करने वाला उपन्यास है। उपन्यास में एक शरीफ़ज़ादा अपनी एक घरेलू नौकरानी के साथ लगातार बलात्कार करता है। बाद में वह ग़ायब हो जाती है। मिलती है तो एक कैदी के रूप में जो वेश्या है। सुनवाई करने वाले पंचों में वह शरीफ़ज़ादा भी शामिल है। अपनी वजह से एक मासूम को वेश्या बना देख शरीफ़ज़ादा पागल हो जाता है और उसे छुड़ाने की कोशिश करता है। वह उससे शादी करना चाहता है लेकिन वेश्या इस पेशकश को ठुकरा देती है।

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जब गाँधी-तोलस्तोय में हुआ पत्राचार

महात्मा गाँधी पश्चाताप को बहुत महत्व देते थे। तोलस्तोय की किताब 'ईश्वर की सत्ता तुम्हारे अंदर ही है' पढ़कर उन्होंने 1 अक्टूबर 1909 को तोलस्तोय को पहला ख़त लिखा और दक्षिण अफ़्रीका में चलाए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन की जानकारी दी। तोलस्तोय की डायरी में दर्ज है कि 'आज मुझे एक हिंदू का दिलचस्प पत्र मिला।' उन्होंने जवाब में लिखा- ‘मुझे अभी आपका दिलचस्प पत्र मिला। पढ़कर अत्यंत ख़ुशी हुई। ईश्वर हमारे उन सब भाइयों की मदद करे जो ट्रांसवाल में संघर्ष कर रहे हैं। 'सौम्यता' का 'कठोरता' से संघर्ष, 'प्रेम' का 'हिंसा' से संघर्ष, हम सभी यहाँ पर भी महसूस कर रहे हैं। मैं आप सभी का अभिवादन करता हूँ।’

महात्मा गाँधी ने तोलस्तोय को 4 अप्रैल 1910 को लिखे ख़त के साथ अपनी किताब हिंद स्वराज भी भेजी थी और उनकी राय माँगी थी। 24 अप्रैल को तोलस्तोय ने जवाब में लिखा- ‘मुझे आपका पत्र और किताब मिली। सत्याग्रह सिर्फ़ हिंदुस्तान के लिए नहीं, वरन, संपूर्ण विश्व के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण है।’

भारत में इन दिनों सबकुछ उलट-पुलट देने का जैसा ख़ब्ती सिलसिला नज़र आ रहा है, उसमें तोलस्तोय की रचनाओं को भी देश-विरोधी मान लिया जाए तो क्या आश्चर्य। यह सिलसिला गाँधी के सीने में तीन गोलियाँ उतारने की नृशंसता में गौरव खोजता है तो उनके आध्यात्मिक गुरु तोलस्तोय किस खेत की मूली हैं!

वह कोई और राष्ट्र था जिसके 'राष्ट्रपिता' महात्मा गाँधी थे जिन्होंने तोलस्तोय से कभी मुलाक़ात नहीं की थी लेकिन उन्हें पढ़कर युद्ध नहीं शांति और अहिंसा का महामंत्र पाया था।

साबरमती आश्रम के तोलस्तोय जन्म शताब्दी समारोह के संबोधन में गाँधी जी ने कहा था- 'तोलस्तोय का स्मरण करते हुए मैं फिर कहता हूँ कि अहिंसा के मानी है प्रेम का समुद्र; अहिंसा के मानी है वैरभाव का सर्वथा त्याग। अहिंसा में दीनता, भीरुता नहीं होती, डर-डरकर भागना नहीं होता। अहिंसा में तो दृढ़ता, वीरता और अडिगता होनी चाहिए। यह अहिंसा हिंदु्स्तानी समाज में दिखाई नहीं देती। उसके लिए तोलस्तोय का जीवन प्रेरक है। उन्होंने जिस चीज़ पर विश्वास किया, उसका पालन करने का ज़बरदस्त प्रयत्न किया और उससे कभी पीछे नहीं हटे।'

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क्या 'वार एंड पीस' ख़तरा?

अफ़सोस ही किया जा सकता है कि जिन रचनाओं को पढ़कर महात्मा गाँधी ने अहिंसा का सही मायने सीखा था, उन्हें आज एक माननीय न्यायाधीश देश के लिए ख़तरा मान रहे हैं। 20 नवंबर 1910 को 82 साल की उम्र में तोलस्तोय का निधन हुआ था। गाँधी जी को संतोष था कि उन्होंने अगस्त में उन्हें जोहन्सबर्ग में 'तोलस्तोय फ़ार्म' खोलने की जानकारी दे दी थी। बहरहाल, 'तोलस्तोय फ़ार्म' से शुरू हुए गाँधी के सपने पर 'एनिमल फ़ार्म’ का ग्रहण लग गया है। जस्टिस कोतवाल के सवाल में छिपी यह चेतावनी इतिहास में गूँजती रहेगी।

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पंकज श्रीवास्तव
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