नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत (भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1980 बैच के अधिकारी) का कहना है कि भारत में कड़े सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल है क्योंकि यहां ‘कुछ ज़्यादा ही’ लोकतंत्र है। राष्ट्रीय स्तर की सर्वोच्च संस्था से जुड़ा व्यक्ति जब इस आशय की कोई बात कहता है और वह भी ठीक उस समय जब कृषि क़ानूनों को लेकर किसानों का राष्ट्रव्यापी विरोध चल रहा हो तो निश्चित ही उसके ‘पीछे’ काफ़ी वज़न होना चाहिए।
लोकतंत्र, सरकार की ‘ज़रूरत’ से अभी भी कुछ ज़्यादा है!
- विचार
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- 13 Dec, 2020

देश की तरक़्क़ी के लिए अगर हक़ीक़त में ही तेज रफ़्तार वाले सुधारों की ज़रूरत है और मौजूदा ‘कुछ ज़्यादा ही’ लोकतंत्र उसमें बाधक बन रहा है तो फिर 93 साल पुराने संसद भवन के स्थान पर लगभग हज़ार करोड़ रुपये खर्च करके नई इमारत बनाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। इतनी बड़ी धन राशि का उपयोग तो नए कारावासों के निर्माण, पुरानों की क्षमता बढ़ाने और कुछ खुली जेलों की स्थापना के लिए भी किया जा सकता है।
माना जाना चाहिए कि यह बात एक व्यक्ति नहीं बल्कि ऐसी संस्था की ओर से कही जा रही है जिसे ‘भारत को बदलने के लिए राष्ट्रीय संस्थान’ के रूप में पैंसठ साल पुराने ‘योजना आयोग’ को ख़त्म करके बनाया गया था।