नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत (भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1980 बैच के अधिकारी) का कहना है कि भारत में कड़े सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल है क्योंकि यहां ‘कुछ ज़्यादा ही’ लोकतंत्र है। राष्ट्रीय स्तर की सर्वोच्च संस्था से जुड़ा व्यक्ति जब इस आशय की कोई बात कहता है और वह भी ठीक उस समय जब कृषि क़ानूनों को लेकर किसानों का राष्ट्रव्यापी विरोध चल रहा हो तो निश्चित ही उसके ‘पीछे’ काफ़ी वज़न होना चाहिए।
माना जाना चाहिए कि यह बात एक व्यक्ति नहीं बल्कि ऐसी संस्था की ओर से कही जा रही है जिसे ‘भारत को बदलने के लिए राष्ट्रीय संस्थान’ के रूप में पैंसठ साल पुराने ‘योजना आयोग’ को ख़त्म करके बनाया गया था।
नई संसद की ज़रूरत क्यों?
लोकतंत्र की ज़रूरत जैसे-जैसे कम होती जाती है, कारावासों, न्यायालयों और अस्पतालों, आदि की मांग बढ़ने लगती है। एक स्थिति के बाद तो पूरा देश ही एक खुली जेल में बदल जाता है जैसी कि स्थिति हमारे कुछ नज़दीकी मुल्कों में है।
इनमें वे मुल्क भी शामिल हैं जिनसे हम आर्थिक विकास के क्षेत्र में टक्कर लेना चाहते हैं। नागरिक जब लोकतंत्र को कम किए जाने का विरोध करने लगते हैं तो उनके साथ वैसा ही व्यवहार होता है जैसा वर्तमान में चीन द्वारा हांग कांग में लोकतंत्र-समर्थकों के साथ किया जा रहा है।
हमारी नज़रें इस समय चीन द्वारा की जा रही तेज रफ़्तार वाली आर्थिक प्रगति पर ही हैं, वहां हो रही लोकतंत्र की समाप्ति पर नहीं।
कहा तो यह भी जा सकता है कि लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता, बोलने की आज़ादी और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर नागरिक भी ‘फुगावे’ में हैं। फुगावे से मतलब उस तरह के भ्रम से है जैसा आर्थिक सम्पन्नता के दावों को लेकर हर्षद मेहता के साम्राज्यवाद ने पैदा कर दिया था। तब नक़ली ‘बबल’ के फूटते ही लाखों लोग और घर तबाह हो गए थे।
अभी अनुमान आना बाक़ी है कि कृषि सम्बन्धी क़ानूनों के कारण किसान- आत्महत्याओं के आँकड़ों में कमी आ जाएगी या वे और बढ़ जाएंगे! पता नहीं कि किसानों के साथ आढ़तिए और छोटे अनाज व्यापारी भी आंकड़ों में शामिल हो जाएँ!
कमज़ोर हो रहा लोकतंत्र
जब अमिताभ कांत भारत में ज़्यादा लोकतंत्र होने की बात करते हैं तो यह नहीं बताते कि वह हक़ीक़त में कितना अधिक है! मसलन, स्वीडन स्थित संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा दुनिया के अलग-अलग देशों में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर जारी की गई रिपोर्ट में जो कुछ कहा गया है, उसे अमिताभ कांत के नज़रिए में विश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ रहा है। संस्थान द्वारा तैयार 179 मुल्कों की सूची के उदार लोकतंत्र सूचकांक में हमें नब्बे वें स्थान पर रखा गया है।
स्वीडिश संस्थान के तरीक़े की रिपोर्ट अथवा प्रतिकूल टिप्पणियों से हम न सिर्फ़ अप्रभावित रहते हैं बल्कि उन्हें दृढ़तापूर्वक ख़ारिज भी कर देते हैं। नागरिक अधिकारों की अवमानना अथवा सीमित होती धार्मिक आज़ादी की घटनाओं को लेकर प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की रिपोर्टों में की जाने वाली आलोचनाओं को देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताया जाता है।
हम केवल विदेशी पूंजी निवेश के ‘हस्तक्षेप’ का ही खुली बाहों के साथ स्वागत करना चाहते हैं, बाक़ी किसी क्षेत्र में नहीं। देश की जनता कोरोना की महामारी से संघर्ष करती हुई जिस समय अपनी जान बचाने में जुटी हुई है, सरकार भी उसी समय अपने सारे सुधारों के खेत बो लेना चाहती है।
न्यायपालिका पर टिप्पणी
पिछले दिनों मनाए गए ‘संविधान दिवस’ के अवसर पर वेंकैया नायडू के कथन को उद्धृत करते हुए प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, उपराष्ट्रपति ने कहा था कि न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया जा रहा है, ऐसी चिंताएं हैं। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कुछ माह पूर्व कोरोना के संदर्भ में विचार व्यक्त किया था कि देश के उच्च न्यायालयों के ज़रिए कुछ लोग समानांतर सरकार चला रहे हैं।
देश में इस समय जो कुछ भी चल रहा है और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तरीक़े से उसे व्यक्त किया जा रहा है उस सब का सीधा संबंध लोकतंत्र से है। नीति आयोग के सीईओ के विवादास्पद कथन पर आश्चर्यजनक रूप से सत्ता के किसी भी कोने से कोई बेचैनी नहीं प्रकट हुई। प्रधानमंत्री नीति आयोग के अध्यक्ष हैं।
एक मित्र ने आपातकाल के दौरान तब के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि भूषण द्वारा इंदिरा गांधी के बचाव में की गई टिप्पणी की ओर ध्यान दिलाया है कि, “देश में एक सीमित तानाशाही ज़रूरी है।’’ नीति आयोग के शीर्ष पुरुष जब लोकतंत्र की अधिकता से विचलित होते दिखाई पड़ते हैं तो सोचना पड़ेगा वे किस बात की तरफ़ संकेत कर रहे हैं। वे भी कहीं शशि भूषण की तरह ही सीमित अधिनायकवाद के वास्तुकार की भूमिका तो नहीं अदा कर रहे हैं?
अपनी राय बतायें