स्वतंत्रता के समय देश का विभाजन और कश्मीर का विवाद भारतीयों को मिल गया था। उस दौर के नेता कश्मीर के मसले पर बँटे हुए थे। हालाँकि नेताओं का यह मानना था कि जनता की राय सबसे ऊपर है। साथ ही कश्मीर के राजा हरि सिंह की ऊहापोह की स्थिति ने हालात और ख़राब कर दिए।
कश्मीर विवाद पर डॉ. भीमराव आम्बेडकर की सबसे स्पष्ट राय नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़े में दी है। इस्तीफ़े में आम्बेडकर का बयान साफ़ दिखाता है कि वह धार्मिक हिसाब से अत्यंत संकुचित हो चुके थे। उन्हें पूर्वी बंगाल में हिंदुओं की दुर्दशा की चिंता थी। आम्बेडकर ने उन्हें अपने पत्र में ‘आवर पीपुल’ यानी अपने लोग कहकर संबोधित किया है। निश्चित रूप से आम्बेडकर के अपने लोग से आशय पूर्वी बंगाल में रह रहे हिंदुओं से था। इसके अलावा वह संभवतः यह मानते थे कि हिंदू और बौद्ध भारत में सुरक्षित रह सकते हैं। वह चाहते थे कि कश्मीर के बजाय पूर्वी बंगाल पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया जाए।
उन्होंने अपने इस्तीफ़े में लिखा, ‘पाकिस्तान के साथ हमारा झगड़ा हमारी विदेश नीति का हिस्सा है जिस पर मुझे असंतोष है। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में खटास दो कारणों से है। एक है कश्मीर और दूसरा है पूर्वी बंगाल में हमारे लोगों के हालात। मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाय पूर्वी बंगाल पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए, जिसके बारे में हमें अख़बारों से पता चल रहा है कि वहाँ हमारे लोग बहुत ख़राब परिस्थितियों में रहे हैं।’
आम्बेडकर का मानना था कि कश्मीर मसला अवास्तविक है। इस पर विवाद ख़त्म हो सकता है। उन्होंने अपने इस्तीफ़े में बाक़ायदा इसके लिए कश्मीर के विभाजन का विचार दिया। उनके विभाजन का प्रारूप धार्मिक आधार लिए हुए था।
चाहें तो तीन भागों में बाँट दें : आम्बेडकर
उन्होंने आगे लिखा, ‘हिंदू और बौद्ध बहुल हिस्से भारत को दे दिए जाएँ और मुसलिम बहुल हिस्सा पाकिस्तान को, जैसा कि हमने शेष भारत के मामले में किया। कश्मीर के मुसलिम आबादी वाले हिस्से से हमारा कोई लेना देना नहीं है। यह कश्मीर के मुसलमानों और पाकिस्तान का मामला है। वे जैसा चाहें, वैसा तय करें। या यदि आप चाहें तो इसे तीन भागों में बाँट सकते हैं। युद्धविराम क्षेत्र, घाटी और जम्मू-लद्दाख का इलाक़ा और जनमत संग्रह केवल घाटी में कराएँ। मुझे इस बात का डर है कि अगर प्रस्तावित जनमत संग्रह होता है तो कश्मीर के हिंदू और बौद्धों को उनकी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान में खींचा जा सकता है और तब वैसी ही समस्या आएगी, जैसा कि आज हम पूर्वी बंगाल में देख रहे हैं।’
(डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज, वाल्यूम 14, पार्ट-2. पेज 1322)
सरदार पटेल की राय अलग
वहीं देश के गृह मंत्री व देशी रियासतों के मामले देख रहे सरदार वल्लभभाई पटेल की राय इस मामले में समग्रता लिए हुए थी। वह भी जनता की राय को सर्वोपरि मानते थे। लेकिन उनका यह मानना नहीं था कि जो मुसलिम है, वह पाकिस्तान ही जाना चाहता है। उनका मानना था कि कश्मीरी लोग पाकिस्तान के साथ नहीं हैं। सरदार पटेल ने बंबई के चौपाटी मैदान में अपने एक भाषण में कहा, ‘अब बहुत से लोग, जो बाहर के हैं, जो पूरी हालत समझ नहीं सकते हैं, उनका यह कहना था कि जिस जगह मुसलमान ज़्यादा हों, वह पाकिस्तान का ही हिस्सा है, ठीक नहीं है। क्योंकि हमारे अपने मुल्क़ में 4 करोड़ मुसलमान रहते हैं। इतने मुसलमान जहाँ रहते हों, वहाँ का राज्य सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता। हम किसी दूसरे संप्रदाय के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकते, जैसा कि मज़हबी देशों में होता है। हमारे साथ कश्मीर में ज़्यादा मुसलमान हैं। उन्हीं लोगों से कश्मीर की लड़ाई चल रही है, यह आप जानते ही हैं। और इसमें पाकिस्तान की ख्वारी हो रही है। पहले तो वे इस लड़ाई में भाग लेने की बात से इनकार करते थे। अब उन्होंने अपना लश्कर ही रख दिया है। हमारा तो उधर पड़ा ही है।’
(भारत की एकता का निर्माण, पब्लिकेशन डिवीजन, ओल्ड सेक्रेट्रियेट दिल्ली, नवंबर 1954. पेज 158)
गाँधी-पटेल की राय एक जैसी
मोहनदास करमचंद गाँधी की राय भी पटेल से मिलती जुलती थी। गाँधी भी भारत को हिंदू-मुसलमान को बाँटे जाने के ख़िलाफ़ थे। जब कश्मीर को दो हिस्सों में बाँटने की चर्चा आई तो वह नई दिल्ली के बिड़ला हाउस में थे। गाँधी बुजुर्ग हो गए थे और वह उन दिनों बिड़ला हाउस में रहकर रोज़ वहाँ आने वालों को संबोधित करते थे। उसे प्रवचन कहा जाता था। 11 नवंबर 1947 को गाँधी ने अपने प्रवचन में कहा, “मैंने यह कानाफूसी सुनी है कि कश्मीर दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। इनमें से जम्मू हिंदुओं के हिस्से आएगा और कश्मीर मुसलमानों के हिस्से। मैं ऐसी बँटी हुई वफ़ादारी और हिंदुस्तान की रियासतों के कई हिस्सों में बँटने की कल्पना नहीं कर सकता। इसलिए मुझे उम्मीद है कि सारा हिंदुस्तान समझदारी से काम लेगा।’
(दिल्ली डायरी, नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद, मई 1948, पेज 169)
सरदार पटेल तो धर्म के हिसाब से राष्ट्रीयता के विभाजन के सख़्त ख़िलाफ़ थे। वह इस मसले पर जिन्ना और जितने भी मुसलिम लीग के थे, सबसे लड़ते नज़र आते थे।
पटेल ने जिन मुसलमानों से भारत के प्रति वफ़ादारी दिखाने का सबूत माँगा था, वह मुसलिम लीग या जिन्ना समर्थक लोगों से ही माँगा था और उनका मानना था कि धर्म के आधार पर राष्ट्रीयताएँ नहीं हो सकती हैं। पटेल का मानना था कि दो राष्ट्र का सिद्धांत ग़लत है।
धर्म बदलने से दो राष्ट्र कैसे बनेंगे: पटेल
15 जुलाई 1948 को पटियाला और पूर्व पंजाब की रियासतों के एकीकरण का शुभारंभ करते समय पटियाला में दिए गए भाषण में पटेल ने कहा, ‘कांग्रेस का यह सिद्धांत था कि हम इतनी सदियों से एक साथ रहे, चाहे किसी भी तरह रहे। आख़िर बहुत से मुसलमान, अस्सी फ़ीसदी बल्कि नब्बे फ़ीसदी मुसलमान असल में तो हमारे में से ही गए थे और उन्होंने धर्मांतर कर लिया था। धर्मांतर करने से कल्चर कैसे बदल गई? दो नेशंस कैसे बन गए? यदि गाँधी जी का लड़का मुसलमान हो गया हो तो वह दूसरे नेशन का कैसे हो गया? और चंद दिनों बाद वह फिर हिंदू बन गया तो क्या उसने नेशन बदल लिया? नेशन कोई बार-बार थोड़े ही बदला जाता है?’
(भारत की एकता का निर्माण, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 2015. पेज 59)
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