प्रो. यू.एन. सिंह 1980-1983 के बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उनके कार्यकाल में एक बार पुलिस ने हॉस्टल में घुसकर लाठीचार्ज किया था। इससे वे इतने दुखी हुए कि छात्रावासों में जाकर छात्रों से खेद प्रकट किया और घायल छात्रों के उपचार की पूरी व्यवस्था की। वे ‘कुल’ के पति या पालक होने का मतलब समझते थे और छात्रों को इसका अहसास भी कराना चाहते थे।
बहरहाल, 1887 में बना इलाहाबाद विश्वविद्यालय अब केंद्रीय विश्वविद्यालय है लेकिन पूरब का ऑक्सफोर्ड कहलाने वाले इस विश्वविद्यालय के छात्र बिलकुल ही उलट कारणों से आंदोलित हैं। दरअसल, 17 अक्टूबर को वहाँ के चीफ़ प्रॉक्टर डॉ. राकेश सिंह ने एक दलित छात्रनेता विवेक कुमार को लाठियों से जमकर पीटा और गाली-गलौज की। यह कोई आरोप नहीं, बल्कि इस पिटाई का वीडियो वायरल है जिसमें सबकुछ स्पष्ट रूप से देखा-सुना जा सकता है। जौनपुर के टी.डी. कॉलेज से कुछ साल पहले सीधे इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुँचे डॉ. राकेश सिंह पढ़ाने से ज़्यादा ‘ठकुरई’ के लिए कुख्यात हैं। जिस तरह वीडियो में वे लाठियाँ भाँजते हुए दिख रहे हैं, वह ‘अदंड्य’ होने यानी किसी भी सूरत में दंडित न होने को लेकर उनका आत्मविश्वास जताता है। ज़ाहिर है, छात्रों में काफ़ी रोष है, लेकिन कैंपस में किसी तरह के विरोध-प्रदर्शन की इजाज़त नहीं है। प्रो. यू.एन. सिंह की कुर्सी पर विराजमान मौजूदा कुलपति प्रो. संगीता श्रीवास्तव कुछ समय पहले सुबह की अज़ान से होने वाली परेशानी की सार्वजनिक शिकायत करके देश भर में चर्चित हुई थीं, लेकिन एक दलित छात्र की चीख़ और अपने प्रॉक्टर की लाठीबाज़ी पर उन्होंने होठ सिल रखे हैं।
इविवि में छात्रनेता विवेक कुमार की पिटाई के बाद कई दूसरे कैंपसों में विरोध के स्वर फूट रहे हैं। बनारस से लेकर लखनऊ तक इसका विरोध दिख रहा है और ग़ैरबीजेपी छात्रसंगठनों का मोर्चा बन रहा है। सबसे बड़ा मुद्दा है कि पिटाई का वीडियो और गाली-गलौज का वीडियो वायरल होने के बावजूद पुलिस प्रशासन प्रॉक्टर डॉ. राकेश सिंह के ख़िलाफ़ एफ़आईआर नहीं लिख रहा है। जबकि इस मामले में अनुसूचित जाति उत्पीड़न से जुड़ा एक्ट भी स्वाभाविक रूप से लगना चाहिए। वीडियो में साफ़ नज़र आ रहा है कि विवेक कुमार लाठियाँ पड़ने के बावजूद अपनी जगह से पीछे नहीं हट रहे हैं बल्कि जातिवादी शिक्षक के ख़िलाफ़ मुर्दाबाद के नारे लगा रहा है। इस वीडियो ने खासतौर पर दलित और ओबीसी पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को बेचैन कर दिया है। योगी आदित्यनाथ सरकार और प्रशासन में उनके ख़िलाफ़ गुस्सा बढ़ रहा है।
आइये, ज़रा इस लाठीचार्ज की पृष्ठभूमि भी जान लेते हैं। दरअसल, पिछले दिनों इलाहाबाद युनिवर्सिटी में पढ़ाई से लेकर छात्रावासों की फीस में सैकड़ों गुना का इज़ाफ़ा हुआ है। इसके ख़िलाफ़ छात्रों ने आंदोलन किया जिसे लेकर छात्रनेता अजय यादव सम्राट जितेंद्र धनराज और सत्यम कुशवाहा कई महीनों से जेल में हैं। छात्रों का कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन के इशारे पर उन्हें फ़र्जी मुक़दमे में फँसाया गया है। इनकी रिहाई की माँग को लेकर जब ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) नेता और शोध-छात्र मनीष कुमार ने फेसबुक पर पोस्ट लिखी तो उन्हें निलंबित ही नहीं किया गया, परिसर में प्रवेश भी प्रतिबंधित कर दिया गया। निलंबन रद्द करने की माँग को लेकर जब छात्र नेता हरेंद्र यादव ने कुलपति को ज्ञापन देने का प्रयास किया तो उन्हें एम.ए. तृतीय सेमेस्टर की परीक्षा देने से रोक दिया गया। इन्हीं सब मुद्दों पर 17 अक्टूबर को आइसा नेता विवेक कुमार अन्य छात्रों के साथ प्रशासन से विरोध जताने गये थे जब उन पर बर्बर लाठीचार्ज हुआ जिसका वीडियो वायरल है।
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 की धारा 82 के तहत भी मारपीट पर जेल और जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन इविवि के प्रॉक्टर बालिग छात्रों को लाठी से पीटकर भी बेफ़िक्र हैं। आख़िर ये हौसला कहाँ से आया?
एक समय था कि इविवि समेत उत्तर प्रदेश के अन्य विश्वविद्यालय राजनीति की नर्सरी होते थे। वहाँ राजनेताओं की भावी पीढ़ी तैयार होती थी और छात्र राजनीति के ज़रिये लोकतांत्रिक व्यवस्था का वे संस्कार पाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा, पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और वी.पी. सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, और एन.डी. तिवारी, अर्जुन सिंह जैसे राजनेता निकले थे। लेकिन 2017 के बाद से विश्वविद्यालय में चुनाव नहीं हुए। यह सिर्फ़ इविवि का हाल नहीं है। लखनऊ विश्वविद्यालय में 2006 और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 1997 से छात्रसंघ निलंबित है। ऐसे में छात्रों की छोटी-छोटी माँगों की भी कोई सुनवाई नहीं है। यह हैरान करने वाली बात है कि इविवि के छात्र साफ़ पानी और 24 घंटे लाइब्रेरी खुलने की माँग करने पर भी प्रशासन की नज़र में ‘अराजक’ घोषित हो जाते हैं।
कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस एन.वी. रमन्ना ने दिल्ली की नेशनल लॉ युनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में चिंता जताते हुए कहा था, “भारतीय समाज पर पैनी नज़र रखने वाले किसी भी शख्स ने ध्यान दिया होगा कि पिछले कुछ दशकों से छात्र समुदाय से कोई बड़ा नेता नहीं उभरा है।” लेकिन छात्र राजनीति के अभाव में यह संभव भी नहीं है। खासतौर पर बीजेपी की सरकारों के समय आमतौर पर छात्रसंघों पर बैन लग जाता है। आरोप गुंडागर्दी का लगता है, लेकिन देश का सबसे शांत परिसर कहे जाने वाले दिल्ली के जेएनयू में भी बीते कई सालों से किसी न किसी बहाने छात्रसंघ चुनाव टाले गये हैं। जेएनयू के छात्रों के सिस्टम विरोध रुख का लंबा इतिहास है। लेकिन मोदी सरकार के दौर में इसे ‘देशद्रोह’ की श्रेणी में किस तरह डाला गया है, सबने देखा है।
बहरहाल, यहाँ मुद्दा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक दलित छात्र की शिक्षक के हाथों लाठियों से पिटाई और गाली-गलौज का है। छात्रों और नागरिक समाज की माँग के बावजूद प्रशासन को एफ़आईआर करने और अनुसूचित जाति अधिनियम के तहत कार्रवाई करने से कौन रोक रहा है? छात्र क्यों न माने कि यूपी की योगी सरकार ऊँची जाति के शिक्षक को बचा रही है।
पिछले दिनों योगी आदित्यनाथ के अपने जिले गोरखपुर में दलित भूमिहीनों को एक एकड़ ज़मीन देने की माँग करने गये पूर्व पुलिस आईजी एस.आर. दारापुरी को कई अन्य दलित कार्यकर्ताओं के साथ जेल भेज दिया गया था। दलित समाज से आने वाले 82 वर्षीय दारापुरी कई बीमारियों से घिरे हैं पर उन्हें ज़मानत नहीं मिल रही है। अब दलित छात्र की पिटाई के मसले पर भी योगी प्रशासन का दलित विरोधी रवैया उजागर हुआ है। अगर इस मामले में जल्द ही कोई कार्रवाई नहीं हुई तो पूरे यूपी में छात्र आंदोलन का नया दौर शुरू हो सकता है। बीजेपी से जुड़े एबीवीपी को छोड़कर अन्य छात्रसंगठनों ने ‘फोरम फॉर कैंपस डेमोक्रेसी’ का गठन करके इसका संकेत दे दिया है। 2 नवंबर को इस फोरम के तहत इविवि में बड़े विरोध-प्रदर्शन की तैयारी है।
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