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आरक्षण बहस: पूजा कराने वाला ब्राह्मण और नाली साफ़ करने वाला दलित ही क्यों? 

भारत में सिर्फ़ एक प्रतिशत लोग सरकारी नौकरियों पर निर्भर हैं। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद जितनी सरकारी नौकरियाँ थीं, अब उससे भी कम रह गई हैं। धीरे-धीरे सब कुछ निजी हाथों में जा रहा है। यहाँ तक कि रेलगाड़ियों का निजीकरण करने के बाद रेल ट्रैक बेचने पर भी विचार हो रहा है। बीमा, दूरसंचार, बैंकिंग, शिक्षा, चिकित्सा सहित हर प्रमुख क्षेत्रों में अब प्राइवेट नौकरियाँ सरकारी की तुलना में ज़्यादा हैं। सरकार बहुत तेज़ी से निजीकरण करके देश का औद्योगिक विकास कराने में लगी है। इसके बावजूद जातीय हिंसा, जातीय उत्पीड़न, जातीय भेदभाव की ख़बरों से अख़बार पटे पड़े हैं।

यह अंतरराष्ट्रीय समस्या बन चुकी है। ऐसा कोई उदाहरण या अध्ययन सामने नहीं आया है कि औद्योगिक देशों में नौकरियाँ करने जाने वालों ने अपनी जातीय गंदगी त्याग दी है।

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इसे हाल की सिस्को कंपनी के उदाहरण से समझा जा सकता है। सिलिकॉन वैली स्थित सिस्को सिस्टम्स के सैन जोस मुख्यालय में एक इंजीनियर को इसलिए भेदभाव का सामना करना पड़ा क्योंकि वह एक दलित भारतीय था। कैलिफोर्निया के निष्पक्ष रोज़गार एवं आवासीय विभाग (डीएफ़ईएच) ने इस मामले में मुक़दमा दायर किया। मुक़दमे में कहा गया है कि ऊँची जाति के सुपरवाइजरों और सहकर्मियों ने टीम में और सिस्को के कार्यस्थल पर भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया। कहा गया कि सिस्को में कर्मचारी के साथ किया गया व्यवहार नागरिक अधिकार क़ानून, 1964 और कैलिफ़ोर्निया निष्पक्ष रोज़गार एवं आवासीय क़ानून का उल्लंघन है।

यह इकलौती घटना नहीं है। इस घटना के बाद अमेरिका में तमाम लेख लिखे गए और ख़बरें आईं जिनमें कहा गया कि भारतीय जहाँ भी जाते हैं, अपने लोगों को सेट करने में लगे रहते हैं और इनके चयन में निष्पक्षता नहीं होती। अमेरिका या किसी भी विकसित देश में मज़दूरी करने वाले ज़्यादातर लोग उच्च जातियों के हिंदू हैं जो भारत के आलीशान सरकारी संस्थानों में अध्ययन करने के बाद मोटी तनख्वाह पर काम कर रहे हैं। लेकिन इससे उनकी मानसिक, जातीय कुंठा दूर नहीं होती है।

अपनी किताब जाति का विनाश में डॉ. बीआर आंबेडकर ने आर्थिक या औद्योगिक विकास से जातिवाद के ख़ात्मे या बराबरी लाने के तर्क को खारिज करते हुए कहा है कि व्यक्ति की सामाजिक स्थिति अक्सर अपने आप शक्ति और सत्ता का स्रोत बन जाती है, यही वजह है कि भारत में करोड़पति फूटी कौड़ी न रखने वाले साधुओं और फकीरों की आज्ञा का पालन करते हैं। आंबेडकर विभिन्न देशों का उदाहरण देकर बताते हैं कि आर्थिक सुधार के लिए सामाजिक सुधार प्राथमिक शर्त है।

भारत के समाज में सुधार की कथित रूप से इच्छा रखने वाले सवर्ण तबक़े के लोग अपनी जातीय कुंठा में इसका पूरा दोष भारत में दलितों और पिछड़ों को सरकारी क्षेत्र में दिए जाने वाले आरक्षण पर मढ़ देते हैं।

उन्हें लगता है कि बरकत यहीं अटकी हुई है कि अगर आरक्षण ख़त्म कर दिया जाए तो देश की समस्याएँ हल हो जाएँगी। वह कभी आर्थिक आरक्षण का तर्क देते हैं, कभी औद्योगिक विकास का। हालाँकि यह सब तर्क नए नहीं हैं। आर्थिक आरक्षण का तर्क नेहरू के समय में काका कालेलकर से लेकर तमाम सवर्ण नेताओं ने दिया था। आंबेडकर के समय से ही जातीय भेदभाव के ख़ात्मे के लिए समाजवादियों द्वारा देश के आर्थिक और औद्योगिक विकास का तर्क दिया जाता रहा है।

औद्योगीकरण से क्या हासिल?

भारत का औद्योगीकरण पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में शुरू हो गया था और देश में तेज़ी से भारी उद्योगों का विकास हुआ। उसके बाद से चली औद्योगिक विकास की यात्रा 1991 आते-आते निजीकरण की ओर मुड़ गई। निजीकरण का परिणाम यह हुआ कि भारत जहाँ 1990-91 में भारत की जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय चीन से ज़्यादा थी, अब 2020 में चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पाँच गुना बड़ी हो गई और चीन में प्रति व्यक्ति आय यूरोप के सभ्य और विकसित देशों की बराबरी कर रहा है। वहीं भारत का औद्योगिक विकास न तो बेरोज़गारी की समस्या हल कर पाया, न ही वैश्विक स्तर पर कोई खास झंडे गाड़ सका है।

जाति व्यवस्था ख़त्म करने के लिए आंबेडकर ने धर्म की सत्ता कमज़ोर करने और समान प्रतिनिधित्व के साथ समावेशी विकास की वकालत की। ईवी रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ ने मंदिरों और विभिन्न धर्मों के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाया, जिससे धर्म के साथ जुड़ी भारत की जातीय गंदगी ख़त्म हो जाए। उस पर बहुत कम काम हुआ।

समावेशी विकास की ज़रूरत

मौजूदा स्थिति को देखते हुए कुछ ख़ास क़दम उठाए जा सकते हैं जिससे भारत में समावेशी विकास हो। समावेशी विकास से आशय है कि देश के सुख और दुख दोनों में ही देश के प्रत्येक नागरिक की भागीदारी हो। हर क्षेत्र में योग्य लोगों का चयन 100 प्रतिशत आबादी में से हो, न कि सिर्फ़ 15 प्रतिशत सवर्णों में से योग्य चुने जाएँ। इसके लिए निम्नलिखित क़दम उठाए जा सकते हैं-

1-  भारत में केंद्रीय कैबिनेट से लेकर नाली सफ़ाई के काम और निजी कंपनियों में सीईओ से लेकर गार्ड तक भारत की हर जाति का समानुपातिक प्रतिनिधित्व हो। अभी की स्थिति में शासक या कमाई वाले या ताक़त वाले पदों पर सवर्णों का एकछत्र राज है। निचली जाति के लोग पुलिस, प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक कमज़ोर हैं क्योंकि उच्च पदों पर बैठे लोग भयानक जातिवादी हैं। ख़ासकर उच्च पदों पर विभिन्न जाति समूहों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व हो, जिससे उस जाति के छोटे पदों पर काम करने वाले लोगों का उत्पीड़न न हो।

2-  सरकारी प्रशासनिक पदों पर हर जाति समूह का प्रतिनिधित्व हो जिनकी पब्लिक डीलिंग होती है। न्यायपालिका में विभिन्न जाति समूहों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व हो। इससे इन जगहों पर न्याय की इच्छा से जाने वाले लोग सवर्णों की जातीय कुंठा से मुक्ति पा सकते हैं।

3-  सभी प्राकृतिक संसाधनों को निजी क्षेत्र को सौंपने के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी इतनी हो जिससे कि निजी क्षेत्र पर प्रतिस्पर्धी नियंत्रण रहे। यानी अगर ज़िला अस्पताल में कोई ऑपरेशन 2000 रुपये में हो रहा है तो मजबूरन निजी क्षेत्र को भी अधिकतम ढाई या 3 हज़ार रुपये में ऑपरेशन करना पड़े। सरकारी अस्पतालों की संख्या इतनी होनी चाहिए कि निजी क्षेत्र ज़्यादा कमाई करने पर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो जाए।

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4-  हर व्यक्ति को जीने की न्यूनतम ज़रूरतों के मुताबिक़ आमदनी का इंतज़ाम किया जाए। पूंजीवाद में कुछ हाथों तक धन सिमटा हुआ है लेकिन यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि आज की दुनिया में पूंजीवादी देशों में सबसे ज़्यादा समावेशी विकास हो रहा है। इसकी मुख्य वजह लोगों की न्यूनतम ज़रूरतों के मुताबिक़ आमदनी सुनिश्चित करने की कवायद होती है।

5-  शक्ति के धार्मिक स्रोतों पर एक जाति विशेष का क़ब्ज़ा ख़त्म किया जाए। धर्म सामाजिक हैसियत का बहुत बड़ा स्रोत है, जिस पर अमूमन ब्राह्मणों का क़ब्ज़ा है। वह ग़रीब हों या अमीर, उनका स्वाभाविक सम्मान होता है। वहीं नाले की सफ़ाई जैसा अहम काम करने वाले की कोई ख़ास पूछ नहीं होती, न उसे कोई सम्मानित करता है।

6-  खुली व स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो। आरक्षण दिए जाने के बावजूद वंचित तबक़े के लोगों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। संसद की गणेश सिंह समिति ने अभी हाल ही में रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें बताया गया है कि 1991 में ओबीसी रिजर्वेशन लागू होने के 30 साल बाद भी दिल्ली विश्वविद्यालय में कुल 1,706 अध्यापकों में महज़ 79 ओबीसी अध्यापक हैं, जहाँ 16 फ़ैकल्टी, 80 से ज़्यादा शैक्षणिक विभाग हैं और 7 लाख से ज़्यादा विद्यार्थी पढ़ते हैं।

7-   निजी क्षेत्र में सीईओ से लेकर गार्ड तक की भर्तियों की एक प्रणाली विकसित की जाए। इसमें चयन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की कोई ऐसी एजेंसी हायर की जाए जिसमें अमेरिका, अफ़्रीका, डेनमार्क जैसे देशों के ऐसे विद्वान हों, जिन्हें भारत की जातियों के बारे में ज्ञान न हो और वे निष्पक्ष रूप से भर्तियाँ कर सकें।

विचार से ख़ास

8-   रोज़गार की उपलब्धता कम से कम 120 प्रतिशत की जाए, जिससे हर हाथ को काम मिल सके। उच्च प्रशासनिक पद, निजी क्षेत्र में उच्च पद पर जाने के लिए प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है। लेकिन बेरोज़गारी न होने पर भर्तियों की बेइमानियाँ रोकी जा सकती हैं।

9-   उन सभी शब्दों को सार्वजनिक सरकारी दस्तावेज़ों से बाहर किया जाए जिनसे जाति के बारे में पता चलता है। जातियों के आँकड़े वंचित वर्गों के आकलन तक गोपनीय तरीक़े से सरकारी दस्तावेज़ों में सिमटे रहें।

10-   शिक्षा और चिकित्सा सुविधाएँ मुफ्त की जाएँ जैसा कि ज़्यादातर विकसित देशों में विश्वविद्यालय से पहले की शिक्षा मुफ्त हैं।

यह कार्य सरकारी स्तर पर धीरे-धीरे किया जा सकता है। अगर ऐसा किया जाता है तो जातिवाद के ख़ात्मे की पूरी संभावना बनती है। अगर जाति नहीं भी ख़त्म होती है तो कम से कम जातीय श्रेष्ठता बोध ख़त्म हो जाएगा। काम के आधार पर जाति की पहचान ख़त्म करना अहम है जिससे लोग यह न जान सकें कि मंदिर में पूजा कराने वाला ब्राह्मण ही होगा और नाले में घुसकर सफ़ाई करने वाला दलित या अनुसूचित जाति का ही होगा। अन्यथा औद्योगिक विकास से या वंचित तबक़े को प्रतिनिधित्व देने की सरकारी व्यवस्था यानी आरक्षण ख़त्म करके जातिवाद ख़त्म करने का सपना उच्च स्तर की धूर्तता बनकर रह जाएगी।
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प्रीति सिंह
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