केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार से अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के नेता परेशान हैं। खासकर ओबीसी आरक्षण को लेकर उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। पार्टी नेता ओबीसी सांसदों से एकजुट होकर सरकार पर दबाव बनाने की भी बात कर रहे हैं। वहीं, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को आपसी सिर-फुटौव्वल से फुर्सत नहीं है जिससे वह बीजेपी के भीतर उपजे असंतोष को भुना सके और ओबीसी तबके को सहारा दे सके।
मध्य प्रदेश की सतना लोकसभा सीट से बीजेपी के सांसद गणेश सिंह की अध्यक्षता में ओबीसी आरक्षण पर बनी संसद की समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में 5 प्रतिशत से कम ओबीसी अध्यापक हैं जबकि एक भी प्रोफेसर ओबीसी नहीं है।
समिति ने इस बात को लेकर चिंता जताई है कि सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक इस विश्वविद्यालय में ऐसी स्थिति क्यों है जबकि 1993 में केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
समिति ने पाया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में कुल 1,706 अध्यापकों में महज 79 ओबीसी अध्यापक हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में 16 फैकल्टी और 80 से ज्यादा शैक्षणिक विभाग हैं जिसमें 7 लाख से ज्यादा विद्यार्थी पढ़ते हैं। उम्मीद की जा रही है कि पिछले सप्ताह समिति द्वारा स्वीकार की गई रिपोर्ट अगले संसद सत्र में पेश की जाएगी।
इससे पहले गणेश सिंह समिति ने बैठक कर यह सिफारिश की थी कि वेतन से होने वाली आमदनी को क्रीमी लेयर चिह्नित करने की आमदनी में शामिल न किया जाए। कहा जा रहा है कि ऐसा करने पर ओबीसी की बड़ी आबादी आरक्षण से वंचित हो जाएगी जो पहले से ही विभिन्न सरकारी संस्थानों, विभागों में हाशिये पर है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की पहली सरकार में भी गणेश सिंह समिति ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) से चयनित अभ्यर्थियों के सामने खड़ी की जा रही समस्याओं से लेकर ठेके पर हो रही भर्तियों पर 135 पेज की रिपोर्ट संसद में पेश की थी।
एनसीबीसी का क्या हुआ?
मोदी सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) को संवैधानिक दर्जा दिया था। मोदी ने संसद से लेकर सड़क तक इसका खूब ढोल बजाया और कहा गया कि कांग्रेस 70 साल में जो न कर सकी, वह बीजेपी ने कर दिखाया। इसके बाद बीजेपी को 2019 के चुनाव में प्रचंड बहुमत मिल गया।
अब हालत यह है कि एनसीबीसी की सिफारिशों या आदेशों को कोई पूछने वाला नहीं है। एनसीबीसी ओबीसी मसलों पर आदेश जारी करता है और विभिन्न विभाग उसे कूड़ेदान में फेंक देते हैं।
इन घटनाओं से बीजेपी के ओबीसी खेमे में भयानक असंतोष है। क्रीमी लेयर की आय की सीमा तय करने का मसला हो या उच्च शिक्षा में भर्तियों का। सरकार ने शीर्ष पदों पर ओबीसी को बैठा दिया है और उन्हीं के हाथों ओबीसी का अहित करा रही है।
क्रीमी लेयर की आय सीमा में वेतन को शामिल किए जाने पर एनसीबीसी अपने रुख से पलट गया है और उसने सरकार के प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी है जबकि एनसीबीसी के अध्यक्ष प्रोफेसर भगवान लाल साहनी बिहार की अत्यंत पिछड़ी मल्लाह जाति के हैं। इसी तरह से सामान्य की तुलना में ज्यादा अंकों पर डिग्री कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती के पक्ष में वकालत करने वाले उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर ईश्वर शरण विश्वकर्मा हैं जो अत्यंत पिछड़ी लोहार जाति से आते हैं।
इस तरह से बीजेपी की सरकारों ने बढ़ई, लोहार, मल्लाह जैसे तमाम छोटे समूहों वाले समाज को विभिन्न शीर्ष पदों पर बिठा दिया है। पिछड़े वर्ग का अहित इन्हीं पिछड़े वर्गों के हाथों कराया जा रहा है। लंबे समय से यह काम करते-करते पिछड़े वर्ग के इन प्राधिकारियों व नेताओं के बीच असंतोष लगातार बढ़ रहा है।
मोदी सरकार के ख़िलाफ़ खोला मोर्चा
सतना के सांसद गणेश सिंह समाजवादी विचारधारा से जुड़े रहे हैं। समाजवादी नेताओं के संपर्क में रहकर उन्होंने राजनीति सीखी। बाद में राजनीतिक करियर की तलाश में वह बीजेपी में आए और सतना से सांसद बने। उन्होंने मोदी सरकार के ख़िलाफ़ सीधा मोर्चा खोलते हुए पिछड़े वर्ग के सांसदों से अनुरोध किया है कि वे क्रीमी लेयर का निर्धारण करने के लिए सकल सालाना आमदनी में वेतन को शामिल करने के केंद्र के फ़ैसले का विरोध करें। वहीं, पिछड़े वर्ग से जुड़े विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष व सदस्य अपने पदों पर बैठे घुट रहे हैं और न चाहते हुए उन्हें पिछड़े वर्ग के हितों के ख़िलाफ़ फ़ैसले देने पड़ रहे हैं।
बीजेपी के सांसदों व विधायकों में समय-समय पर असंतोष सामने आते रहे हैं। प्रधानमंत्री कई दशकों से लोगों की सेवा कर रहे सांसदों की क्लास लेते हैं और उन्हें संसदीय राजनीति सिखाते हैं। वहीं कांग्रेस में गृह क्लेश का योग बन गया है।
कांग्रेस के पास फुर्सत नहीं
कांग्रेस की कुंडली में कोई ऐसा ग्रहण लगा है कि पार्टी के नेता आपस में ही जूतम-पैजार करने में लगे हैं। चाहे वह अशोक गहलोत और सचिन पायलट का विवाद हो या कमलनाथ, दिग्विजय और ज्योतिरादित्य सिंधिया का। पार्टी लगातार पतन की ओर बढ़ रही है। उसे अपने कलेश से वक्त ही नहीं मिल रहा है कि वह बीजेपी के भीतर फैले असंतोष को पढ़ सके और पिछड़े वर्ग को अपने पाले में खींच सके जिसकी आबादी करीब 60 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया जाता है।
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