मुलायम सिंह यादव नहीं रहे। उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका एक अलग स्थान रहा। उत्तर भारत की सामाजिक न्याय की राजनीति में चौधरी चरण सिंह के बाद वे शीर्ष नेता रहे जिन्होंने पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों का एक नया और मज़बूत गठजोड़ बनाया। बिहार में लालू यादव से पहले मुलायम सिंह यादव ने सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत की। मुलायम सिंह की राजनीति और उनके राजनीतिक सफर को समझने के लिए कुछ पीछे जाना पड़ेगा। उत्तर प्रदेश का एक नारा जो किसी नेता के नाम पर ज़्यादा लोकप्रिय रहा वह था- ‘जलवा जिसका कायम है, उसका नाम मुलायम है!’ यह नारा प्रदेश में किसी और नेता के लिए हमने नहीं सुना। यह नारा उनकी राजनीतिक पूंजी का एक छोटा सा हिस्सा है। वह नेता जो सुबह आठ बजे तक अपनी पार्टी के सौ से ज़्यादा कार्यकर्ताओं से मुलाक़ात समूचे प्रदेश की राजनीतिक नब्ज को जानता-समझता था वह नेता जिसे ‘धरती पुत्र’ कहा जाता था, उसका एक दौर में लखनऊ में अपना कोई घर का पता तक नहीं था।
वर्ष 1980 का समय था। चौधरी चरण सिंह लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और मुलायम सिंह यादव को उन्होंने लोकदल का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। मुलायम सिंह यादव विधानसभा का चुनाव हार गए थे और लखनऊ में उनका रहने का ठिकाना नहीं था। लोकदल का दफ्तर तब 6 ए राजभवन कॉलोनी में था। इसी के एक कमरे में मुलायम सिंह यादव रहते थे। एक तखत था सोने के लिए जिसपर कोई दरी या गद्दा नहीं सिर्फ चादर बिछा दी जाती थी। बगल का एक कमरा लोकदल के महासचिव राजेंद्र चौधरी का था और उन्हें भी एक तखत मिला हुआ था। राजेंद्र चौधरी जो इस समय समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता हैं, उन्होंने कहा, ‘वह अलग दौर था जब न रहने का कोई अपना ठिकाना था और न ही भोजन की कोई व्यवस्था। जो मिल जाए खा लिया जाता था। नेताजी मुलायम सिंह यादव ज़मीन से जुड़े थे। मुलायम सिंह यादव टूटी साइकिल, मोटर साइकिल और बाद में खटारा जीप तक से चलते रहे।’
मुलायम खांटी समाजवादी नेता थे और किसी तरह की सुविधा मिले, इसकी चिंता भी नहीं करते थे। यही मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री बने और कुछ साल पहले जब पूर्व मुख्यमंत्री को मिलने वाला सरकारी आवास उनसे खाली कराया गया तब भी उनके पास लखनऊ में अपना कोई निजी आवास नहीं था जहां वे अपनी सुरक्षा व्यवस्था के मुताबिक़ रह सकें।
शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मुलायम सिंह ने महत्वपूर्ण काम किया, खासकर, ग्रामीण इलाक़ों में लड़कियों की शिक्षा के लिए।
मुलायम सिंह की समाजवादी राजनीति जसवंत नगर से शुरू हुई जब संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता नाथू सिंह ने उन्हें 1967 में विधानसभा का टिकट दिलवाया तब तक लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की भी शुरुआत हो चुकी थी। तब 28 साल की छोटी-सी उम्र में मुलायम सिंह यादव विधानसभा जो पहुंचे तो फिर लगातार आगे बढ़ते गए और लालू यादव ने लंगड़ी न मारी होती तो वे प्रधानमंत्री भी बन जाते।
पर महत्वपूर्ण भूमिका राजनीतिक और सामाजिक न्याय की ताक़तों को साथ लाने की रही जिसके चलते वह प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंच गए। हालांकि वह खुद प्रधानमंत्री नहीं बन पाए लेकिन उन्होंने इंद्र कुमार गुजराल को तो बनवा ही दिया। नब्बे की शुरुआत में जब उत्तर प्रदेश में बीजेपी राम मंदिर आंदोलन के ज़रिए तूफ़ान खड़ा कर चुकी थी तब एक राजनीतिक गठजोड़ से मुलायम सिंह ने उसकी हवा निकाल दी थी। नारा लगा, ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्री राम’। पर इस नारे से पहले कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी बनाने का सुझाव दिया जिससे उन्होंने बाद में चुनावी तालमेल किया। इसी के चलते साल 1993 में मुलायम सिंह फिर दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। हालाँकि यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चला और मायावती के साथ हुए गेस्ट हाउस कांड के बाद दोनों दलों में जो तल्खी आई वह 2019 तक रही।
मुलायम सिंह यादव न सिर्फ जमीनी राजनीति करते बल्कि खरी-खरी बात कहने से भी नहीं चूकते।
वर्ष 2005-06 का दौर था। दादरी में रिलायंस के भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया था जिसकी नियमित कवरेज यह संवाददाता जनसत्ता में कर रहा था और इसे लेकर समाजवादी पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह बहुत नाराज़ थे। खासकर उस नारे को लेकर जिसका ज़िक्र मेरी ख़बरों में अक्सर होता, ‘जिस गाड़ी पर सपा का झंडा -उस गाड़ी में बैठा गुंडा’। यह नारा राजबब्बर का था और इसका अपनी सभाओं में वे जिक्र करते। उसी दौर में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का एक आयोजन लखनऊ के ताज होटल में हुआ और उसमें मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव मुख्य अतिथि थे। मैं आगे ही बैठा था और अमर सिंह मंच पर आए। इंडियन एक्सप्रेस की तो तारीफ की पर मेरी तरफ इशारा कर बोले, अगर जनसत्ता की नकारात्मक ख़बरें दुरुस्त हो जाएँ तो सब ठीक हो जाएगा। इसके बाद मुलायम सिंह बोले। वे भी कुछ नाराज थे।
मुलायम सिंह ने कहा, हमारा वोटर तो न अंग्रेजी जानता है और न अंग्रेजी अखबार पढ़ता है। वह हिंदी पढ़ता है और जनसत्ता में कुछ छपता है तो उसका असर ज़रूर पड़ता है। साफ इशारा पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के दादरी आंदोलन की कवरेज को लेकर था। इस आंदोलन के चलते मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी चुनाव हार गई। पर इस वजह से उन्होंने अखबार या इस संवाददाता से कभी कोई नाराजगी नहीं जताई और उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में पूर्वी उत्तर प्रदेश का पहला दौरा में मुझे साथ चलने को कहा। तब मुझे मुलायम सिंह को क़रीब से जानने-समझने का भी मौका मिला।
ये मुलायम सिंह ही थे जो एक तरफ आजम खान को पार्टी में रखते और दूसरी तरफ अमर सिंह को भी। और कई बार आजम खान की तीखी टिप्पणी से आहत भी होते और समझाने की कोशिश करते। खुद एक बार बाबतपुर में मुझसे कहा, जयाप्रदा उन्हें अपना बड़ा भाई मानती हैं पर वे क्या क्या नहीं कहते।
हालाँकि इन्हीं मुलायम सिंह के ख़िलाफ़ भाजपा लगातार आक्रामक रही और उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’ तक कहा। उसके पीछे की कहानी है कि जब दो नवंबर, 1990 की घटना घटी थी तब कारसेवकों पर पहले लाठीचार्ज हुआ और फिर गोली चली। और नरेंद्र मोदी की छप्पन इंच… वाली टिप्पणी भी मुलायम सिंह पर ही थी। पर आज सबसे भावुक टिप्पणी भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही रही, उन्होंने 2019 की संसद में मुलायम सिंह की अंतिम टिप्पणी का ज़िक्र किया।
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