राहत भाई आप तो कहते थे कि...“वबा फैली हुई है हर तरफ़, अभी माहौल मर जाने का नई..!” तो फिर इतनी जल्दी? ऐसे? हे ईश्वर! बेहद दुखद! इतनी बेबाक़ ज़िंदगी और ऐसा तरंगित शब्द-सागर इतनी ख़ामोशी से विदा होगा, कभी नहीं सोचा था!
एक कलंदर का जाना: हिंदुस्तानी होने पर ताउम्र फ़िदा रहे राहत इंदौरी
- श्रद्धांजलि
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- 14 Aug, 2020

राहत भाई ने श्रोताओं और हम जैसे चाहने वालों के दिलों पर राज किया है। उस बेलौस फ़कीर राहत इंदौरी का शरीर भले ही अब हमारे बीच नहीं है, लेकिन राहत इंदौरी नहीं मर सकता। उनके ही लफ़्ज़ों में, "वो मुझको मुर्दा समझ रहा है/उसे कहो मैं मरा नहीं हूँ।"
शायरी के मेरे सफ़र और काव्य-जीवन के ठहाकेदार क़िस्सों का एक बेहद ज़िंदादिल हमसफ़र हाथ छुड़ा कर चला गया।
“मैं मर जाऊँ तो मेरी इक अलग पहचान लिख देना, लहू से मेरी पेशानी पे हिन्दुस्तान लिख देना...!" राहत इंदौरी जी का जाना एक कलंदर का जाना है। सैकड़ों यात्राओं, मंच और नेपथ्य के साथ में मैंने उनमें एक बेख़ौफ़ फ़कीर देखा था, उस परम्परा का, जो कबीर से चल कर बाबा नागार्जुन तक पहुँचती है। राहत भाई हिन्दी-उर्दू साहित्य के बीच के सबसे मज़बूत पुल थे। मेरी याददाश्त में मैंने किसी शायर को मक़बूलियत के इस उरूज़ पर नहीं देखा था, जितना उन्हें। उनके अंदर की हिन्दुस्तानियत का ये जादू था कि हिन्दी कवि-सम्मेलनों में भी उन्हें वही मुकाम हासिल था जो उर्दू मुशायरों में था।