नरेंद्र कोहली के निधन की ख़बर सुनी तो सहसा उनके उपन्यास ‘दीक्षा’ के विश्वामित्र याद आए। 1975 में प्रकाशित इस उपन्यास में विश्वामित्र धरती पर राक्षस-राज के बढ़ रहे आतंक से मुक्ति के लिए सशस्त्र शक्ति के अभ्युदय का निश्चय करते हैं। या उसी उपन्यास के राम याद आए जो कहते हैं कि ‘राम मिट्टी में से सेनाएँ गढ़ता है क्योंकि वह केवल दमित और शोषित जन-सामान्य का पक्ष लेता है… न्याय का युद्ध करता है।’ तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों और जेपी आंदोलन से इस उपन्यास के तार जुड़ने लगते हैं। अकारण नहीं है कि ‘दीक्षा’ के केंद्र में राम नहीं विश्वामित्र हैं जो कई बार जेपी लगने लगते हैं।
नरेंद्र कोहली ने अनेक विधाओं में लिखा, ख़ूब लिखा, बल्कि शायद सबसे अधिक व्यंग्य लिखे लेकिन उनकी अमर कीर्ति के पीछे रामकथा और महाभारत को आधार बनाकर लिखे गए उनके उपन्यास हैं। इसके पीछे यही कारण है कि उन्होंने मिथक-कथाओं को समकालीन संदर्भों के साथ ऐसे गूँथ दिया है कि सदियों पुरानी कथाएँ सहसा नवीन लगने लगती हैं। अपने आसपास के समाज से उसके तार जुड़ने लगते हैं। उन्होंने सनातन को समकालीन बना दिया।
उनके जीवन काल में प्रकाशित उनका अंतिम उपन्यास ‘सेतु-बंधन’ पढ़ते हुए भी यही महसूस हुआ कि वे अपने उपन्यासों में सतत सांस्कृतिक बहसों की समकालीन राजनीतिक नियति का पाठ रखते थे। ‘सेतु-भंजन’ एक सांस्कृतिक पोलिटिकल थ्रिलर है जिसमें राम सेतु की कथा और उसको लेकर मचे समकालीन राजनीतिक संघर्ष के द्वंद्व को पिरोया गया है।
यह देखना दिलचस्प है कि जिस लेखक ने मिथक कथाओं को समकालीन तार्किकता से जोड़ा वह अपने अंतिम उपन्यास तक आते-आते आस्था और तर्क के द्वंद्व की रचनात्मकता का सहारा लेने लगता है और अपना स्पष्ट रुख़ रखता दिखाई देता है।
नरेंद्र कोहली किसी राजनीति के नहीं बल्कि पाठकों के लेखक रहे। राम कथा के बाद महाभारत कथा को आधार बनाकर लिखी गयी उनकी उपन्यास सीरिज़ ‘महासमर’ के आठ खंडों को हिंदी समाज के एक बड़े पाठक वर्ग ने अपनाया। जिस दौर में टेलिविज़न पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ धारावाहिकों का प्रकाशन हो रहा था नरेंद्र कोहली के उपन्यास भी उस दौर में घर-घर पहुँच रहे थे।
जिस दौर में यह बहस चल रही थी कि हिंदी के पाठक टीवी की तरफ शिफ़्ट हो रहे हैं उस दौर में नरेंद्र कोहली के उपन्यासों ने पाठकों को किताब से जोड़े रखा।
इस बात का व्यापक अध्ययन होना चाहिए कि 1990 के दशक में जब हिंदी की लोकप्रिय साहित्य-धारा सिमटती जा रही थी, जिस दौर में हिंदी की बड़ी-बड़ी पत्रिकाएँ बंद हो रही थीं या अपना असर खो रही थीं उस दौर में नरेंद्र कोहली ने हिंदी साहित्य में एक अलग ही धारा स्थापित की। उन्होंने मिथक कथाओं को नया रूप दिया, उनको लेकर नई बहसों का जन्म दिया। ऐसा नहीं है कि कोहली जी के पहले हिंदी में मिथकों को लेकर लेखन नहीं हुआ हो या उनको समकालीन संदर्भों से न जोड़ा गया हो। धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ सहित अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। लेकिन नरेंद्र कोहली की विशिष्टता यह है कि उन्होंने इन कथाओं को एक परम्परा के रूप में देखा। एक ऐसी परम्परा जो समकालीन संदर्भों में भी मज़बूत बना हुआ है।
तर्क बनाम विश्वास की समकालीन बहसों में उनको ‘सांस्कृतिक पुनर्जागरण’ से जोड़कर देखा जाने लगा। रामकथा के बाद ‘महासमर’ सीरिज़ के उपन्यासों में महाभारत की कथा विस्तार से तो कही ही गई है लेकिन उनके माध्यम से उन्होंने सांस्कृतिक उत्थान का स्वप्न भी देखा। महासमर सीरिज़ के आठवें खंड ‘निर्बंध’ के आख़िर में कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं, “आप भी अपने अवसाद की तिलांजलि दीजिए, ग्लानि का त्याग कीजिए। आपको अपार निर्माण करना है। इस युद्ध में हुए विनाश की क्षतिपूर्ति करनी है। इसलिए इस हताशा से स्वयं को बंधनमुक्त करना है। जीवन में अवसाद नहीं उत्सव लाना है।”
वास्तव में, उनके मिथक कथा लेखन में अवसाद नहीं उत्सव है। हिंदू धर्म के गौरव का उत्सव। लेकिन उनकी यह दृष्टि कम से कम उनके उपन्यासों में संकीर्ण नहीं दिखाई देती है। यह दिलचस्प है कि रामायण, महाभारत के बाद उन्होंने स्वामी विवेकानंद को लेकर उपन्यास शृंखला लिखी- ‘तोड़ो कारा तोड़ो!’ उनके चरित्र के माध्यम से जैसे युवाओं का उद्बोधन कर रहे हों। उनके सोच के केंद्र में हमेशा राष्ट्र रहा, उसका उत्थान-पतन रहा। यह अलग बात है कि उनकी राष्ट्र की अवधारणा अलग थी।
नरेंद्र कोहली हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में थे और अनेक किताबों में उनकी एक किताब प्रेमचंद पर है और एक नागार्जुन पर संस्मरण की पुस्तक भी पढ़ने लायक़ है। वे अविभाजित पंजाब से हिंदुस्तान आए और जीवन का लम्बा समय उन्होंने अविभाजित बिहार के शहर जमशेदपुर में बिताया। उनके अंदर एक कस्बाई मिलनसारित हमेशा रही और शायद उसी कारण उन्होंने कस्बाई पाठकों का मन बहुत अच्छी तरह से पकड़ लिया था और वे आजीवन उनके लिए लिखते रहे।
वे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में हिंदी पढ़ाते थे लेकिन उन्होंने पूर्णकालिक लेखन के लिए समय से काफ़ी पहले अवकाश ले लिया था। उनके निकट संपर्क में आने वाला कोई व्यक्ति हिंदी के प्रति उनके अतिरिक्त आग्रह को भाँपे बिना नहीं रह पाता था। वे हिंदी भाषा के सम्मान, उसकी शुद्धता को लेकर आग्रही थे। उनको किसी कार्यक्रम में बुलाया जाता तो उनका आग्रह होता था कि मंच पर हिंदी ही बोला जाए।
वे संस्कृतियों की मिलावट के विरोधी भले न रहे हों लेकिन भाषा में किसी तरह की मिलावट को वे बर्दाश्त नहीं करते थे। उनकी अंतिम प्रकाशित किताब ‘समाज जिसमें मैं रहता हूँ’ में भाषा को लेकर उनकी चिंता से जुड़े कई प्रसंग हैं।
वे ‘परम्परा’ के सबसे आधुनिक लेखक थे लेकिन ऐसे लेखक रहे जिसकी कोई परम्परा नहीं बनी। जब उन्होंने मिथक कथाओं पर लिखना शुरू किया था तब मिथकों पर लिखना हिंदी में जोखिम का काम माना जाता था, आज मिथकों पर लिखने वाले लेखकों की तादाद बहुत बड़ी है, लेकिन नरेंद्र कोहली का लेखन सबसे अलग था, उनकी व्याप्ति भी।
उनका जाना एक परम्परा का लुप्त हो जाना है जिसके वे सेनापति भी थे और प्रहरी भी। हिंदी की मुख्यधारा की आलोचना ने उनको सदा ‘अन्य’ की तरह देखा लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में हिंदी के ‘अन्य’ रहे।
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