एक हिंदी प्रेमी होने के नाते मैं यह बात गर्व से कह सकता हूँ कि मैंने हिंदी आलोचना के किंवदंती डॉ. नामवर सिंह को न केवल देखा है, बल्कि समय-समय पर उन्हें सुना भी है। मैं यह बात और भी गर्व के साथ कह सकता हूँ कि डॉ. नामवर सिंह बहुत से लेखकों की तरह मेरे भी लेखन से काफ़ी हद तक परिचित थे। आज सवेरे जब यह सूचना मिली कि नामवर जी अब हमारे बीच नहीं रहे हैं, तो स्वाभाविक रूप से मैं भी पूरे हिंदी और उर्दू जगत की तरह शोक संतप्त हूँ। कृष्णा सोबती, अज्ञेय, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, केदारनाथ सिंह और अब नामवर सिंह के रूप में हिंदी के इस हरे-भरे जंगल से एक-एक कर पुराने दरख्त ख़त्म हो चुके हैं। कहना चाहिए कि हिंदी का यह युग जिन नामों से जाना और पहचाना जाएगा, उनमें नामवर सिंह का नाम पहले पायदान पर होगा। नामवर जी की ख्याति आज कम लिखने के बावजूद अगर जेठ की दोपहरी की तरह चमकदार है, तो वह है उनका अध्ययन और पूरे हिंदी परिदृश्य पर लगातार पड़ने वाली उनकी वह दृष्टि जो किसी विरले साहित्यकार में ही होती है।