कल मैंने अपनी एक टिप्पणी में गृह मंत्री राजनाथ सिंह के एक भाषण का ज़िक्र किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि मीडिया को सरकार के प्रति शत्रुता का भाव नहीं रखना चाहिए। राजनाथ सिंह किस तरफ़ इशारा कर रहे थे, यह साफ़ है। आज मीडिया का एक हिस्सा ऐसा है जिसके बारे में माना जाता है कि वह सरकार के पक्ष में कुछ नहीं लिखता या दिखाता और हमेशा सरकार की आलोचना करता रहता है। गृह मंत्री की बात सच है। अपने अनुभवों से मैं कह सकता हूँ कि ऐसे बहुत से पत्रकार हैं जो इस ख़बर से ख़ुश हो जाते हैं कि देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है, कि देश में इतने लाख लोगों ने पिछले चार सालों में अपनी नौकरियाँ खोई हैं, कि पिछले चार सालों में इतने किसानों ने ख़ुदकुशी की, कि पेट्रोल के दाम रेकॉर्ड ऊँचाई पर पहुँच गए।
मुझे नहीं पता, इनमें से कितने पत्रकारों ने उन बेरोजगार लोगों या आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों की धेला भर भी मदद की होगी या जिनको पेट्रोल की बढ़ी हुई क़ीमतों से विदेशी मुद्रा के अतिरिक्त ख़र्च होने की चिंता सताती होगी। वे इन ख़बरों से इसलिए ख़ुश होते हैं कि इनसे उनका मक़सद पूरा होता है और वह मक़सद यह है कि मोदी सरकार को सत्ता से हटाया जाए।
सरकार की ख़ामियों पर पैनी नज़र
वे ऐसा किसलिए करते हैं? ऐसा नहीं कि उनकी मोदी से या बीजेपी से कोई निजी दुश्मनी है। वे ऐसा अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण करते हैं। वे सोचते हैं कि इनके सत्ता में आने/रहने से देश के धर्मनिरपेक्ष कलेवर को नुक़सान पहुँचेगा, मुसलमानों और ईसाइयों के विरुद्ध अत्याचार बढ़ेगा और पिछले साढ़े चार सालों में उन्होंने ऐसा होते देखा भी है। इसी कारण वे अपने दिमाग़ और क़लम की पूरी ताक़त इस काम में लगा देते हैं कि चुन-चुनकर मोदी सरकार की कमियाँ खोजी जाएँ और उनको उजागर किया जाए। इस चक्कर में वे ऐसी हर ख़बर से परहेज़ करते है, संभव हो तो छुपाते भी हैं जिनसे उन्हें लगता है कि इन ताक़तों को बढ़ावा मिलेगा।
लेकिन ऐसा नहीं कि वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रभाव में आकर एकपक्षीय पत्रकारिता करने की बीमारी केवल धर्मनिरपेक्ष पत्रकारों में है। हम यह भी पाते हैं कि हिंदूवादी विचारधारा के पत्रकार कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी को सख़्त नापसंद करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये पार्टियाँ हर सही-ग़लत बात पर मुसलमानों का पक्ष लेती हैं और हिंदुओं के हितों की उपेक्षा करती हैं। वे चाहते हैं कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की नीति अपनाने वाली ताक़तें कमज़ोर हों और इसलिए वे खोज-खोजकर ऐसी ख़बरें लिखते, छापते और दिखाते हैं जिनसे इन पार्टियों के बारे में नकारात्मक छवि सामने आती हो और ऐसी हर ख़बर को इग्नोर करते हैं जिनसे उनके बारे में अच्छी राय बनती हो।
पत्रकारिता की आड़ में दलाली
इन वैचारिक पत्रकारों के अलावा एक बड़ी संख्या ऐसे पत्रकारों की भी है जो किसी विचारधारा से नहीं जुड़े हैं लेकिन अपने वर्ग चरित्र के कारण किसी पार्टी या संगठन के साथ पक्षपात और भेदभाव करते हैं। कई सवर्ण, पिछड़े, मुस्लिम, प्रादेशिक और भाषाई पत्रकार केवल इस कारण किसी दल के पक्ष या विपक्ष में लिखते हैं कि वह दल या संगठन उनकी अपनी जाति, धर्म, प्रदेश या राज्य के हितों का कितना ख़्याल रखता है या नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में वे अपना वर्गहित देखते हुए अपने वर्गीय चरित्र के हिसाब से पत्रकारिता कर रहे होते है।
आप सोच रहे होंगे कि जब कोई पत्रकार विचारधारा के कारण पक्षपात/भेदभाव कर रहा है और कोई अपने वर्गहित के कारण, तो क्या कोई निष्पक्ष पत्रकार भी है मीडिया में। जी हाँ, बिल्कुल हैं। ऐसे हज़ारों पत्रकार हैं जो निष्पक्ष हैं लेकिन वे निष्पक्ष इसलिए नहीं हैं कि वे वैचारिकता या वर्गहित के बंधन से मुक्त रहकर आदर्श पत्रकारिता करना चाहते हैं। वे निष्पक्ष इसलिए हैं कि (1) वे पत्रकारिता कर ही नहीं रहे, वे बेचारे केवल नौकरी कर रहे हैं। अगर कोई और ठीकठाक नौकरी मिलती तो वे वही कर लेते। (2) वे पत्रकारिता के नाम पर धंधा/दलाली कर रहे हैं।
आज कांग्रेस की सरकार है तो वे कांग्रेस का गुणगान करेंगे, कल बीजेपी की सरकार आएगी तो वे उसकी तारीफ़ के पुल बाँधेंगे, परसों किसी और की आएगी तो उसकी शान में कसीदे पढ़ेंगे।
आज का पत्रकार निष्पक्ष क्यों नहीं?
तो क्या मैं यह कहना चाहता हूँ कि आज की तारीख़ में जो पत्रकार है, वह निष्पक्ष नहीं है और जो निष्पक्ष है, वह पत्रकार नहीं है? शायद हाँ। स्थिति तो यही नज़र आती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं इस स्थिति का समर्थक हूँ। ख़ासकर वैचारिक/प्रतिबद्ध पत्रकारिता के मामले में। मेरा मानना है कि वैचारिकता के दायरे में किसी प्रतिबद्ध पत्रकार को ख़ुद को इतना भी संकीर्ण नहीं कर देना चाहिए कि वह विरोधी पक्ष की हर अच्छाई से आँखें मूँद ले। एक उदाहरण पेश करता हूँ तीन तलाक़ के मामले का। तीन तलाक़ किसी भी मुस्लिम औरत के साथ घोर अन्याय है और यदि बीजेपी सरकार इसको रोकने के लिए क़ानून लाती है तो किसी सेक्युलर पत्रकार को उसकी तारीफ़ क्यों नहीं करनी चाहिए? इसी तरह यदि कांग्रेस रफ़ाल सौदे में अनिल अंबानी की कंपनी को ऑफ़सेट पार्टनर बनाए जाने के मामले की जेपीसी जाँच की माँग करती है तो किसी बीजेपी-समर्थक पत्रकार को उसका विरोध क्यों करना चाहिए? आख़िर पत्रकारों और राजनीतिक दलों के नेताओं में कुछ तो अंतर होना चाहिए!
प्रेस को ग़ुलाम बनाने का प्रयास
मेरे हिसाब से राजनाथ सिंह यही कहना चाहते थे जब उन्होंने कहा कि मीडिया यदि सरकार का दोस्त नहीं हो सकता तो कम-से-कम दुश्मन तो नहीं होना चाहिए। लेकिन उन्होंने इसके साथ जो अगली बात कही - कई अख़बार इसका ख़्याल रखते हैं (कि वे सरकार से शत्रुता का भाव नहीं रखें) - उसकी भी विवेचना ज़रूरी है। आख़िर क्यों कुछ अख़बार इस बात का ख़्याल रख रहे हैं कि वे सरकार से शत्रुता का भाव नहीं रखें? क्या इसलिए कि वे ऐसी नीति में विश्वास करते हैं या इसलिए कि सरकार के साथ शत्रुता निभाने पर सरकार अपनी सारी संवैधानिक मर्यादाएँ भुलाकर गली का गुंडा बन जाती है - कि यहाँ रहना है तो ठीक से रहना वरना…
तहलका से लेकर एबीपी न्यूज़ तक ऐसे ढेरों मामले हम देख चुके हैं जहाँ सरकार ने अपनी मशीनरी का उपयोग कर आलोचना को दबाने का प्रयास किया है।
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