हम गाज़ियाबाद की पत्रकारों की एक सोसायटी में रहते हैं। वहाँ कई बड़े संपादकों और पत्रकारों (अपन के अलावा) के आवास हैं। इस सोसायटी में एक बड़े पत्र प्रतिष्ठान के ही पूर्व कर्मचारी अख़बार सप्लाई करते हैं। वह बताते हैं कि कोरोना से पहले लोग तीन-तीन अख़बार लेते थे। अब कुछ ने अख़बार एकदम बंद कर दिया है और कुछ ने घर में लड़ाई-झगड़े के बाद एक अख़बार पर समझौता किया है। एक दिन पहले एक बड़े अख़बार के बड़े पत्रकार ने बताया कि उनका वेतन एक तिहाई काट दिया गया है। यूरोप की फरलो (छुट्टी पर भेज दिए जाने) वाली कहानी यहाँ भी दोहराई जा रही है।
अख़बार मरेंगे तो क्या लोकतंत्र बचेगा?
- मीडिया
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- 29 Apr, 2020
यह धीरे-धीरे मरते हुए अख़बारों की एक अवस्था है जिसे कोरोना महामारी और उससे उपजी मंदी ने तेज़ कर दिया है। पूरी दुनिया में इस बात पर चर्चा हो रही है कि क्या कोरोना के बाद अख़बार बच पाएँगे या पूरी तरह समाप्त हो जाएँगे?

यह धीरे-धीरे मरते हुए अख़बारों की एक अवस्था है जिसे कोरोना महामारी और उससे उपजी मंदी ने तेज़ कर दिया है। पूरी दुनिया में इस बात पर चर्चा हो रही है कि क्या कोरोना के बाद अख़बार बच पाएँगे या पूरी तरह समाप्त हो जाएँगे? हिंदी हृदय प्रदेशों में अख़बारों की धूम पर `हेडलाइन्स फ्राम हार्टलैंड’ जैसी किताब लिखने वाली शेवंती नाइनन ने द टेलीग्राफ़ में बहुत सारी जानकारियों से भरा हुआ लेख लिख कर बताया है कि किस तरह से पूरी दुनिया में प्रिंट मीडिया संकट में है। इस टिप्पणीकार को इंतज़ार है ऑस्ट्रेलिया के मीडिया विशेषज्ञ राबिन जैफ्री के किसी लेख का, जिन्होंने `इंडियाज न्यूज़ पेपर्स रिवॉल्यूशन’ जैसी चर्चित किताब लिखी थी।