मध्य प्रदेश में तीन दिन बाद उपचुनाव है, फिर भी बीजेपी कांग्रेसी विधायक क्यों तोड़ रही है? वह भी तब जब उपचुनाव में 28 में से सिर्फ़ एक सीट भी जीत जाने पर शिवराज सरकार सुरक्षित हो जाएगी। क्या बीजेपी को ज़्यादा सीटें जीतने का विश्वास नहीं है या फिर सरकार को मज़बूत करने के लिए तोड़फोड़ कर रही है? मध्यप्रदेश में शिव ‘राज’ बरकरार रहेगा या कमलनाथ की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार की वापसी होगी? इस यक्ष प्रश्न का सही जवाब 10 नवंबर को आयेगा। मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हो रहे हैं। राज्य के उपचुनावों से जुड़े इतिहास में यह पहला मौक़ा है जब एक साथ दो दर्जन से ज़्यादा सीटों के लिए उप चुनाव हो रहे हैं। इस चुनाव के नतीजे कई दिग्गज नेताओं का भविष्य तय करेंगे।
किंगमेकर की उपाधि से नवाज़े जाते रहे कमलनाथ का भविष्य चुनाव के नतीजे तय करने वाले हैं। जबकि अपनी ही सरकार को गिराकर कांग्रेस से बीजेपी में गये ज्योतिरादित्य सिंधिया के भविष्य की राजनीति भी उपचुनाव के नतीजों पर निर्भर रहेगी।
राज्य की जिन 28 सीटों के लिए उप चुनाव हो रहे हैं, उनमें से 27 सीटें साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने जीती थीं। एक आगर मालवा सीट भर बीजेपी के खाते में गई थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत के बाद विधायकों ने कांग्रेस का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था। कुल 25 विधायक कांग्रेस का ‘हाथ’ छोड़कर बीजेपी के साथ हो गये थे। जबकि तीन सीटें विधायकों के निधन से रिक्त हुईं।
उपचुनाव के लिए चल रहे प्रचार में कांग्रेस के लिए कमलनाथ नेतृत्व कर रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह उनके साथ हैं। मुख्यतः इन दो नेताओं की साख इस चुनाव में सबसे ज़्यादा दाँव पर है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे सुरेश पचौरी एवं अरुण यादव तथा विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे अजय सिंह भी बराबर पसीना बहा रहे हैं। इन तीन नेताओं के पास चुनावी हार होने पर खोने के लिए बहुत ज़्यादा कुछ है नहीं।
उधर बीजेपी में यदि सबसे ज़्यादा किसी की साख दाँव पर है तो वे हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया। सिंधिया की महत्वाकांक्षा के चलते ही उपचुनाव हो रहे हैं। कमलनाथ और कांग्रेस की सरकार गिरवाने में महती भूमिका निभाने का इनाम सिंधिया को बीजेपी दे चुकी है। राज्यसभा की सीट से बीजेपी ने सिंधिया को नवाजा है। जबकि विधायक न होते हुए भी सिंधिया समर्थक ग़ैर विधायकों को शिवराज सरकार में मंत्री बनाया गया। बाद में सभी 25 पूर्व विधायकों को बीजेपी ने उपचुनाव के लिए टिकट भी दिये। यदि इन सभी 25 की वापसी (जीत) नहीं हुई तो सबसे ज़्यादा भद्द सिंधिया की ही पिटने वाली है।
उपचुनाव को लेकर अब तो जो तसवीर बनकर उभरी है उसमें बीजेपी के लिए रास्ता बहुत सुगम बनता नहीं दिखा है। कांग्रेस से कहीं ज़्यादा खींचतान बीजेपी में है। भितरघात की संभावनाओं ने भी बीजेपी की मुश्किलें बढ़ा रखी हैं। धारदार मुद्दे सत्तारूढ़ दल बीजेपी और प्रतिपक्ष कांग्रेस के पास ख़ास नहीं हैं।
कांग्रेस ने पूरे प्रचार में ‘टिकाऊ बनाम बिकाऊ’ को उपचुनाव का मुख्य हथियार बनाया। उधर बीजेपी ने 15 महीने की कमलनाथ सरकार में मध्य प्रदेश ठप हो जाने और भारी भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया।
अब तक के चुनावी परिदृश्य के बाद जिस तरह की संभावनाएँ निकलकर सामने आ रही हैं उनमें मुक़ाबला बेहद कांटे का माना जा रहा है। कुछ चुनावी सर्वे कांग्रेस को आगे बता रहे हैं। मध्य प्रदेश का सट्टा बाज़ार भी कांग्रेस के ज़्यादा विधायकों की जीत के संकेत दे रहे हैं।
कांग्रेस की वापसी के दो ‘गणित’
मध्य प्रदेश विधानसभा में सीटों की कुल संख्या 230 है। सरकार बनाने के लिए 116 सीटों की आवश्यकता होती है। बीजेपी ने हाल ही में कांग्रेस के एक और विधायक को तोड़ा है। दमोह से चुने गये विधायक ने पद से इस्तीफा दिया है। यह सीट रिक्त है। अब उपचुनाव नतीजे आने पर सदन में सदस्यों की संख्या 229 रहेगी। सरकार बनाने के लिए 115 नंबर चाहिए होंगे।
बीजेपी के पास अभी 107 उसके अपने विधायक हैं। बसपा के दो, सपा के एक और चार निर्दलीय विधायकों को भी बीजेपी अपने झंडे तले किये हुए है। बसपा, सपा और निर्दलीयों को मिलाकर बीजेपी के पास नंबर 114 होता है। मौजूदा स्थिति में बीजेपी का काम एक सीट जीतने से भी चल जाएगा।
उधर कांग्रेस 27 सीटें जीतने का असंभव करिश्मा कर भी लेती है तो भी वह बीजेपी से एक सीट दूर 114 पर ही रुक जायेगी। कांग्रेस को भी सरकार बनाने की स्थिति तक पहुँचने के लिए बसपा, सपा और निर्दलीयों का साथ लेना होगा। सरकार बनने और बनाने की स्थिति में बसपा, सपा और निर्दलीय उसी दल का साथ देंगे जो सरकार बनाने की स्थिति में नज़र आयेगा। कुल मिलाकर ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ ही ‘विकल्प’ बनेगा।
बीजेपी अलग तरह के नंबर गेम में जुटी है
बीजेपी नंबर गेम में आगे रहने के लिए अलग तरह के ‘खेल’ में जुटी है। हाल ही में दमोह के कांग्रेस विधायक से इस्तीफा और उसे बीजेपी में शामिल किया जाना बीजेपी के उसी खेल का हिस्सा है। बीजेपी के सूत्र दावा कर रहे हैं कि तीन नवंबर को वोटिंग वाले दिन और इसके पहले कांग्रेस के कुछ और विधायक बीजेपी में आएँगे।
बीजेपी का दावा हवा-हवाई नहीं है। कांग्रेस के विधायकों की तोड़फोड़ के प्रयासों में बीजेपी शिद्दत से जुटी हुई है। बीजेपी चाहती है कि कांग्रेस को नंबरों के खेल में इतना पीछे कर दे कि उपचुनाव के नतीजे पूरी तरह से उलट हो जाने पर भी बीजेपी की सरकार पर आँच ना आए।
यूपी में बसपा-बीजेपी के ‘साथ’ से कमलनाथ ख़ुश!
उत्तर प्रदेश से गुरुवार को आयी एक ‘ख़बर’ ने मध्यप्रदेश में कमलनाथ एवं उनकी टीम की बांछें और खिला दी हैं तो सत्तारूढ़ दल बीजेपी पक्ष में बेचैनियां बढ़ा दी हैं।
दरअसल, बसपा सुप्रीमो मायावती ने राज्यसभा चुनाव में बीजेपी का साथ देने संबंधी बयान दिया है। इसके बाद बसपा में ‘विद्रोह’ भी हो गया है। सात विधायक खुलकर सामने आये हैं। इससे मध्य प्रदेश में हो रहे विधानसभा के उपचुनाव में नया ‘गुणा-भाग’ शुरू हो गया है।
मध्य प्रदेश विधानसभा के उपचुनावों में बसपा ने पहली बार सभी 28 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। ग्वालियर और चंबल की 16 सीटों पर उपचुनाव हैं। उत्तर प्रदेश से लगे इस क्षेत्र में अनेक सीटों पर बसपा का खासा दबदबा रहता आया है। क़रीब आधा दर्जन सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले के हालात बने हुए हैं। बीजेपी ख़ुश थी कि बसपा के ज़्यादातर उम्मीदवार कांग्रेस के वोट काटने की हालत में हैं।
यूपी में बने ताजा सियासी समीकरणों के बाद कांग्रेस की बजाय बसपा के साथ जाना पसंद करने वाला वोटर अब भी बसपा के साथ जायेगा, इस बात को लेकर शंकाएँ जताई जा रही हैं। विशेषकर वह मुसलिम वोटर जो कांग्रेस की बजाय बसपा का साथ देता है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में मुसलिमों के अलावा भी वोटर हैं जो कांग्रेस का साथ ना देने की स्थिति में बसपा अथवा अन्य उम्मीदवार के साथ जाना पसंद करते हैं। अब ऐसे वोटरों के भी बसपा के साथ जाने की संभावनाएँ कम होने की उम्मीद प्रेक्षक जतला रहे हैं।
मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और ग्वालियर-चंबल क्षेत्र पर खासी पकड़ रखने वाले राजनीतिक समीक्षक डाॅ. राकेश पाठक कहते हैं, ‘चूंकि अब वोटिंग में महज तीन दिन का वक्त बचा है, लिहाजा यूपी एपीसोड (बसपा का भाजपा प्रेम) ग्वालियर-चंबल के रिमोट एरिया तक कैसे पहुँच पायेगा, यह बड़ा सवाल है। बहुत ज़्यादा फायदा कांग्रेस को होगा, इसकी संभावनाएँ कम हैं।’
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