दलबदल नई बात नहीं है। भारत की राजनीति में ‘आया-राम, गया-राम’ का नारा दलबदल को लेकर ही गढ़ा गया था। लोकसभा के 2024 के चुनाव में भी दलबदल खूब चला है। मध्य प्रदेश में भी हुआ। तो सवाल है कि राज्य में दलबदल से किस दल को लाभ हुआ और किसे हानि?
इस लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के दावे के अनुसार मध्य प्रदेश में क़रीब 4 लाख नये सदस्य शामिल हुए हैं। नये सदस्यों की ज्वाइनिंग का आंकड़ा, भाजपा ज्वाइनिंग कमेटी के सदर और शिवराज सरकार में मंत्री रहे नरोत्तम मिश्रा द्वारा दिया गया है। लोकसभा के इस चुनाव में मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 3 विधायक टूटे हैं। कमलनाथ के अभेद्य गढ़ छिन्दवाड़ा में सेंधमारी के लिए भाजपा ने अमरवाड़ा के विधायक कमलेश शाह को तोड़ा। उनके अलावा श्योपुर जिले के विजयपुर से छठवीं बार के कांग्रेस के विधायक रामनिवास रावत और सागर जिले की बीना से 2023 में पहली बार कांग्रेस की विधायक चुनी गईं निर्मला सप्रे को तोड़ा गया।
लोकसभा चुनाव में अब तक इन 3 मौजूदा विधायकों के अलावा कई पूर्व विधायक, पूर्व सांसद, कांग्रेस के पदाधिकारी और कार्यकर्ता भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए। जबलपुर एवं अन्य शहरों के महापौरों ने भाजपा ज्वाइन की। छिन्दवाड़ा में कांग्रेस में तोड़फोड़ के चलते महापौर विक्रम अहाके भी भाजपा में गए, लेकिन वोटिंग वाले रोज पुनः कांग्रेस में लौट आये।
कांग्रेस जिन 3 विधायकों ने भाजपा का दुपट्टा अपने गले में डाला है, उनमें दो कमलेश शाह और निर्मला सप्रे का भविष्य डांवाडोल करार दिया जा रहा है। ख़बरों के अनुसार दोनों ही कमजोर कड़ियाँ हैं। इन्हें लेकर रिपोर्ट यही है कि उपचुनाव में जीत दर्ज नहीं कर पायेंगे। यानी इन्हें भाजपा टिकट देगी, इसे लेकर अभी से ही संशय के बादल मंडराने लगे हैं।
दरअसल, इस बार दलबदल में बड़ी वजह कांग्रेस की घटती प्रशासनिक ताकत रही है। अपने धंधे और सल्तनत को बचाने की तात्कालिकता ज्यादा बड़ा कारक रही है।
दो दर्जन विधायकों को नहीं पूछ रही भाजपा
ज्योतिरादित्य सिंधिया की अगुवाई में बगावत करने वाले कांग्रेस विधायकों सहित दलबदल करने वाले अनेक विधायकों की हालत, ‘.....न घर का, ना घाट की’ वाली हो गई है। कमलनाथ सरकार को गिराने के दौरान 2 दर्जन विधायकों ने दलबदल किया था। दलबदल शिवराज सिंह चौहान सरकार में उसके पहले भी हुआ। जो भी भाजपा में गया, आज हलाकान है। कई तो कांग्रेस में लौटने की जुगत में जुटे बताये जा रहे हैं।
भाजपा द्वारा मध्य प्रदेश में कांग्रेस को झटका देने की शुरुआत साल 2011 में हुई थी। मप्र विधानसभा में शिवराज सिंह चौहान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और अनेक बड़े पदों पर रहे स्वर्गीय अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह साल 2011 को भूल नहीं पाते हैं।
अजय सिंह तब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे। चौहान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सरकार को सदन में धो डालने का मंसूबा पाले हुए थे। सदन में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा आरंभ होने के ऐन पहले कांग्रेस विधायक दल के तत्कालीन उपनेता और दिग्विजय सिंह सरकार में मंत्री रहे चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी पलटी मार गए थे। अविश्वास प्रस्ताव तो धरा रह ही गया था, साल 2013 में कांग्रेस सरकार में वापसी करने में भी असफल हो गई थी।
राकेश सिंह के बाद तो भाजपा झटके-दर-झटके कांग्रेस को देती जा रही है। कांग्रेस से जो भी भाजपा में गया है, उनमें ज्यादातर का भविष्य फिलहाल तो अंधकारमय बना हुआ है।
दलबदल करने वाले ये पूर्व विधायक हैं हाशिये पर
दलबदल करने वाले नारायण त्रिपाठी, दिनेश अहिरवार, सचिन बिरला, प्रदीप जायसवाल, इमरती देवी, महेन्द्र सिंह सिसोदिया, ओपीएस भदौरिया, रघुराज सिंह कंसाना, कमलेश जाटव, रक्षा सिरोनिया, जजपाल सिंह जज्जी, सुरेश धाकड़, गिरिराज दंडोतिया, रणवीर सिंह जाटव, मुन्नालाल गोयल, राज्यवर्धन सिंह दत्तीगांव, सुमित्रा कासेकर, दिनेश अहिरवार, संजीव कुशवाहा, विक्रम राणा और प्रद्युम्न सिंह लोधी को ठोर नहीं मिल पा रहा है।
ये जो पूर्व विधायक हैं, इनमें ज्यादातर वो हैं, जिन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ दलबदल किया था। उन्हीं के खेमे के गिने जाते हैं।
साल 2020 में दलबदल कराने के बाद भाजपा ने इन्हें टिकट दिया। कई जीते, कई हारे। जो जीते, उनमें सिंधिया ने जिसे कहा उसे और सिंधिया के न होते हुए भाजपा में आये कांग्रेसियों को भी जीतने के बाद मंत्री बनाया। शिवराज सरकार में रखा।
जो हारे, उन्हें निगम-मंडल में एडजस्ट कर लालबत्ती दी। लेकिन जब 2023 का विधानसभा चुनाव आया। कमजोर लगे तो टिकट काट दिये। टिकट काटने के बाद लालबत्ती या सरकारी सुख-सुविधाओं वाले मंत्री दर्जा वाले पद नहीं दिए गए।
कांग्रेस में रहते हुए ठोस जमीन बनाने वाले 2023 के बाद से स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। मजबूरी यह है कि धोखाधड़ी की तो कांग्रेस उन्हें घास डाल नहीं रही है। भाजपा यूज करके उन्हें थ्रो कर देने वाली मुद्रा में है। ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी कुर्सी और साख बचाने के चक्कर में साथ आये लोगों के ‘हितों की लड़ाई’ लड़ने के लायक नहीं बचे हैं।
12 विधायक, सिंधिया समर्थक चार को मंत्री पद
दलबदल कर भाजपा में आने वाले अब कुल 12 ही ऐसे ‘खुश किस्मत’ हैं जिनकी विधायकी बरकरार है। इन 12 में सिंधिया समर्थक तीन एमएलए मोहन यादव सरकार में मंत्री हैं। इन चार में तुलसी सिलावट, गोविन्द सिंह राजपूत और प्रद्युम्न सिंह तोमर भर मिनिस्टर पद पा सके हैं। चौथे ऐंदल सिंह कंसाना अपने दम पर और जाति एवं क्षेत्रीय संतुलन के तहत मंत्री पद पाये हुए हैं।
बचे आठ विधायक में सिंधिया समर्थक एवं अन्य कुछ विधायक मंत्री पद पाने के लिए छटपटा रहे हैं। इन आठ विधायकों में प्रभुराम चौधरी, हरदीप सिंह डंग, बृजेन्द्र यादव, बिसाहूलाल सिंह, संजय पाठक, नारायण पटेल, सचिन बिड़ला और राजेश शुक्ला शामिल हैं। दाल गल नहीं पा रही है।
कांग्रेस छोड़कर आये राहुल लोधी की अलबत्ता लॉटरी खुली है। दमोह में भाजपा के सीनियर लीडर जयंत मलैया को हराने वाले लोधी जब टूटकर भाजपा में आये थे तो उन्हें उपचुनाव लड़ाया गया था। वे चुनाव हार गए थे।
मलैया नाराज हुए तो 2023 में उन्हें टिकट दिया गया। वे जीते लेकिन मंत्री नहीं बनाया गया। अब लोधी को दमोह से लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया है। संभावनाएं यह हैं कि वे चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच सकते हैं।
दलबदल करने वालों पर कई तरह की चोट पड़ी है। धोखा करने वालों को कांग्रेस गद्दार करार दे रही है। भाजपा ने भी मतलब निकल जाने के बाद पहचानने वाला रवैया अख्तियार कर लिया है। पैसे लेने का आरोप लगने के बाद दलबदल करने वालों का ग्राफ अपने-अपने क्षेत्र में बुरी तरह गिर गया है।
दलबदल के खेल के बीच जमे-जमाये और पार्टी को शून्य से शिखर तक ले जाने वाले भाजपा नेताओं की राजनीति बुरी तरह से प्रभावित हुई है। दो-दो भाजपा प्रदेश भर में उपजी है।
कांग्रेस से भाजपा में आये, दलबदल वाले भाजपाइयों का ठोर एक ही क्षेत्र में अलग रहा है और पुराने भाजपाइयों का अलग।
सीनियर जर्नलिस्ट अरुण दीक्षित ने ‘सत्य हिन्दी’ से कहा, ‘मोदी-शाह ने ऐसे हालात मप्र सहित अनेक उन राज्यों में पैदा कर दिए हैं जहां भाजपा स्थापित हुआ करती थी। जिस दिन मोदी नामक पिलर गिरेगा, उस दिन भाजपा के पारंपरिक गढ़ मप्र सहित तमाम राज्यों में भरभराकर ऐसा गिरेगी कि उसे उठने में फिर बरसों लग जायेंगे।’
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