सपा-बसपा कितना रोकेंगी बीजेपी को?
जनसंख्या में सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश सबसे अधिक 80 सांसद तो चुनता ही है, यह राज्य यह संकेत भी देता है कि पूरा देश क्या सोच रहा है और लोगों के मतदान का क्या रुझान होगा। पिछली बार यहाँ भारतीय जनता पार्टी को 71 और उसके सहयोगी अपना दल को 2 सीटें मिली थीं। इन 73 सीटों के बल पर बीजेपी को पूरे देश में बहुत ही बड़ी बढ़त मिल गई थी। उस चुनाव में समाजवादी पार्टी को सिर्फ़ 5 सीटों पर संतोष करना पड़ा था और बहुजन समाज पार्टी तो खाता भी नहीं खोल पाई थी, उसके तमाम दिग्गज़ों को मुँह की खानी पड़ी थी।बीजेपी के साथ दिक़्क़त यह है कि यह किसी भी सूरत में पिछले चुनाव के नतीजे यहाँ नहीं दुहरा सकती। उसे होने वाला नुक़सान सपा-बसपा को ही फ़ायदा देगा। इस लिहाज़ से उत्तर प्रदेश बीजेपी के रथ को रोकने वाला सबसे बड़ा राज्य बन कर उभर सकता है।
बिहार में बीजेपी की मुश्किलें
बिहार में पिछला चुनाव एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ने वाली बीजेपी और जनता दल युनाइटेड इस बार एक साथ लड़ रही हैं। दोनों में चुनाव पूर्व समझौता हो गया है और नीतीश कुमार की पार्टी नरेंद्र मोदी की अगुआई वाले एनडीए में शामिल हो चुकी है। बीते चुनाव में बिहार में बीजेपी को 22 सीटों पर कामयाबी मिली थी, लेकिन इस बार तो वह 17 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, यानी इस बार के चुनाव में उसके कम सांसद चुनी जाएँगी, यह एकदम साफ़ है। राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल युनाइटेड ने पिछला चुनाव एक साथ लड़ा था, लेकिन इस बार वे एक दूसरे के ख़िलाफ़ होंगे। अल्पसंख्यक समुदाय, पिछड़े, दलित और महादलितों ने मोटे तौर पर एक साथ वोट डाला था, लेकिन इस बार इस वोट बैंक में बँटवारा होगा। अल्पसंख्यकों ने पिछली बार जनता दल युनाइटेड को बड़ी तादाद में वोट डाला था, लेकिन इस बार वे नीतीश कुमार के दल से किनारा कर सकते हैं। यह तो साफ़ है कि इस राज्य में बीजेपी को पहले की तुलना में नुक़सान होने के आसार हैं।बंगाल में बेजेपी चौंका सकती है
बीजेपी पश्चिम बंगाल की राजनीति में हाशिए पर रही है। पिछली बार उसे बड़ी कामयाबी मिली जब उसके दो सांसद चुने गए थे और उनमें से एक बाबुल सुप्रियो नरेंद्र मोदी सरकार में राज्य मंत्री भी बन गए। पश्चिम बंगाल की राजनीति में मोटे तौर पर वाम और वाम विरोधी तत्वों का संघर्ष रहा है। वाम विरोधी ताक़त के रूप में तृणमूल कांग्रेस ने ख़ुद को स्थापित किया और उसने कांग्रेस से ज़मीन छीनी। यह बहुत मुश्किल इसलिए भी नहीं था कि दोनों दलों की समान विचारधारा थी, उनकी सामाजिक-आर्थिक नीतियाँ एक सी थीं और समर्थकों का उनका जनाधार भी एक ही चरित्र का था। तृणमूल ने कांग्रेस के कमज़ोर होते हुए आधार को बुरी तरह काटा और ख़ुद को स्थापित किया। लेकिन उसने वामपंथी दलों को कड़ी टक्कर दी और उसे बुरी तरह हराया। धीरे-धीरे वामपंथी सिमटते गए और अब वे हाशिए पर धकेल दिए गए हैं।पंचायत चुनाव में सैकड़ों सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे, राजनीतिक संघर्ष में उसकी पहचान सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस का विरोध करने वाले दल के रूप में हो गई है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि यदि बीजेपी ने पहले से ज़्यादा सीटें जीट लीं तो किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए।
बंगाली प्रधानमंत्री?
लेकिन सबसे बड़ी बात है ममता बनर्जी की महत्वाकांक्षा। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने शुरू से ही बीजेपी का विरोध किया और बीजेपी-विरोधी ताक़तों के केंद्र में आ गईं। कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में हुई जनसभा में 22 दलों के नेताओं ने भाग लिया और सबने एक सुर में बीजेपी को हराने की प्राथमिकता बताई। हालाँकि बनर्जी ने विनम्रता के साथ कहा कि चुनाव के बाद ही प्रधान मंत्री चुना जाएगा और इस पर अभी मतभेद की ज़रूरत नहीं है। पर यह साफ़ है कि उनकी नज़र केंद्र की सत्ता पर टिकी हुई है। यदि वे 30 सीटें भी जीत लेती हैं तो मायावती को टक्कर देने की स्थिति में होंगी या कम से कम सरकार में अपनी अहम भूमिका सुनिश्चित कर लेंगी।2014 जैसा प्रदर्शन कर पाएगी एआईएडीएमके?
दक्षिण के राज्यों में तमिलनाडु बेहद अहम है। यहाँ की दो क्षेत्रीय पार्टियों ने देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को अपने सामने झुकने को मजबूर कर दिया है। तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटें हैं। लोकसभा चुनाव के लिए सत्ताधारी एआईएडीएमके ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है लेकिन उसे सिर्फ़ 5 सीटें दी हैं। बीजेपी को उम्मीद है कि एआईएडीएमके से गठबंधन होने के बाद जयललिता (अम्मा) का वोट बैंक नहीं बिखरेगा और उसे फ़ायदा मिलेगा। इस गठबंधन में फ़िल्म स्टार विजयकांत की डीडीएमके और अंबुमणि रामदास की पीएमके भी हैं। बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में एआईएडीएमके को 37 सीटों पर जीत मिली थी जबकि इस बार वह 27 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, ऐसे में उसे सियासी नुक़सान की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इस चुनाव की अहम बात यह है कि यह चुनाव तमिलनाडु की राजनीति के दो दिग्गजों जयललिता और करूणानिधि के बिना हो रहा है।
एआईएडीएमके-बीजेपी गठबंधन अच्छा प्रदर्शन करेगा, इसे लेकर बहुत सारी आशंकाएँ हैं। जयललिता के निधन के बाद से ही पार्टी का नेतृत्व कमज़ोर है। बीजेपी को उम्मीद थी कि सुपरस्टार रजनीकांत उस गठजोड़ का नेतृत्व करेंगे जिसमें बीजेपी, एआईएडीएमके, रजनीकांत की पार्टी के अलावा कुछ अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ होंगी।
क्या चुनाव बाद पाला बदलेंगे देवेगौड़ा?
कर्नाटक में एनडीए और यूपीए के बीच काँटे की टक्कर है। राज्य में जनता दल (सेक्युलर) और कांग्रेस की गठबंधन सरकार है। इस सरकार को लेकर आए दिन सियासी उथल-पुथल देखने को मिलती है। जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन बीजेपी पर उसकी सरकार को गिराने के लिए ख़रीद-फ़रोख़्त का आरोप लगाता रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में दक्षिण भारत के इस राज्य में बीजेपी को सबसे ज़्यादा 17 सीटें मिली थीं, कांग्रेस को 9 और जेडी (एस) को 2 सीटें मिली थीं। राज्य में लोकसभा की कुल 28 सीटें हैं।
कर्नाटक में जेडीएस और कांग्रेस मिलकर सरकार तो चला रहे हैं कि लेकिन इनके रिश्ते सामान्य नहीं दिखाई देते। अगर ये दोनों दल मजबूती से चुनाव लड़ते हैं तो राज्य में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। लेकिन अगर प्रदर्शन ख़राब रहा तो गठबंधन की सरकार का लंबा चलना मुश्किल है। दूसरी ओर बीजेपी की पूरी कोशिश है कि वह किसी तरह इस राज्य में अपनी सरकार बना ले।
बीजेपी आलाकमान चाहता है कि कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन टूट जाए और दोनों पार्टियाँ अलग-अलग होकर चुनाव लड़ें। अगर ऐसा नहीं भी हुआ तो भी बीजेपी आलाकमान को उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव बाद अगर कुछ सीटों की ज़रूरत पड़ी, तब पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा भी बीजेपी को मदद देंगे। सवाल यह है कि, ऐसा करने से देवेगौड़ा को क्या फ़ायदा होगा।
कर्नाटक में यह चर्चा जोरों पर है कि देवेगौड़ा अपने बेटे कुमारस्वामी को मोदी सरकार में मंत्री बनवा सकते हैं और राज्य में बीजेपी-जेडीएस की सरकार बनने पर अपने बड़े बेटे रेवन्ना को उपमुख्यमंत्री। देवेगौड़ा के फ़ॉर्मूले के तहत येदियुरप्पा मुख्यमंत्री होंगे और रेवन्ना उपमुख्यमंत्री।
ऐसे में अगर चुनाव में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता है तो देवेगौड़ा बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना सकते हैं।
पवार भी खेलेंगे दाँव?
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने बीते दिनों प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गाँधी के नाम की चर्चा कर सबको चौंका दिया, लेकिन यह न समझा जाए कि वह ख़ुद इसकी महत्वाकांक्षा नहीं रखते हैं। उन्होंने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर ही पार्टी छोड़ी थी और अलग पार्टी की नींव डाली। लेकिन उसके बाद उन्होंने अपने गृह राज्य में कांग्रेस पार्टी के साथ मिल कर चुनाव पूर्व समझौते भी किए और उनकी पार्टी ने कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार भी बनाई। एक दूसरे को कोसने वाले बीजेपी-शिवसेना ने चुनाव के ठीक पहले समझौता कर लिया और अब वे एक साथ ही चुनाव लड़ेंगी। इसी तरह कांग्रेस और एनसीपी ने भी चुनाव पूर्व समझौता कर लिया है और दोनोें एक साथ मिल कर ही चुनाव लड़ेंगी। यानी महाराष्ट्र में एक और बीजेपी-शिवसेना गठबंधन होगा तो दूसरी ओर कांग्रेस-एनसीपी गठजोड़। लेकिन इस बीच पर्यवेक्षकों का कहना है कि शरद पवार को किसी बड़ी भूमिका की उम्मीद है। यदि कांग्रेस की स्थिति कमज़ोर होती है और राहुल गाँधी की स्वीकार्यता में किसी तरह की अड़चन आती है तो पवार अपना दाँव खेल सकते हैं।महाराष्ट्र इस लिहाज़ से भी स्विंग स्टेट है कि शिवसेना और बीजेपी ने भले ही क़रार कर लिया हो, ज़मीनी स्तर पर दोनों में काफ़ी खींचतान है। शिवसेना ने पाँच साल तक जिस तरह बीजेपी पर ज़बरदस्त हमला बोल रखा था, बीजेपी के कार्यकर्ता उसे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।
अपनी राय बतायें