पवार के चुनाव नहीं लड़ने के मायने
पवार ने कहा था कि बारामती तथा माढा से ही पवार घराने के लोग चुनाव लड़ेंगें। शरद पवार के इस निर्णय से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में लालू प्रसाद यादव या तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार से सबक लेना चाहिए। पवार चाहते तो एक और लोकसभा अपने परिवार के लिए रख सकते थे, लेकिन उन्हें अच्छी तरह से पता है कि 23 सीटों में 4 अपने घराने के लिए आरक्षित कर लेंगें तो पार्टी के शीर्ष नेताओं के लिए ज़्यादा कुछ नहीं बचेगा।ऐसा नहीं है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में परिवारवाद नहीं है, लेकिन पवार ने पुरानी पीढ़ी के सभी नेताओं को कड़ा सन्देश दिया है कि अपने घर की नयी पीढ़ी को यदि विधानसभा के टिकट दिलाना चाहते हो तो खुद लोकसभा लड़ने की तैयारी करो।
इसी वजह से इस बार पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं पर दबाव है कि वे लोकसभा का चुनाव लड़ें। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि वरिष्ठ नेताओं की लोकसभा स्तर पर पहचान का फ़ायदा पार्टी को मिलेगा। माढा लोकसभा से साल 2009 में पवार ने भारी मतों से जीत हासिल की थी। साल 2009 में पवार ने करीब सवा तीन लाख वोटों के अंतर से लोकसभा चुनाव जीता था।
सीट पर पकड़ मजबूत
साल 2014 में उन्होंने इस सीट से पार्टी के नेता विजय सिंह मोहिते पाटिल को टिकट दिया। मोदी लहर के बावजूद पाटिल इस सीट को बचाने में कामयाब रहे। उनके ख़िलाफ़ उस चुनाव में भाजपा गठबंधन के स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के सदाभाऊ खोत मैदान में थे। राष्ट्रवादी कांग्रेस चुनाव जीत तो गयी, लेकिन अंतर मात्र 25 हजार वोटों तक सिमट कर रह गया। इस लोकसभा क्षेत्र में करमाला, माढा, सांगोले, मालशिरस,फलटण व माण विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं। इनमें से तीन पर राष्ट्रवादी का कब्जा है, जबकि एक-एक सीट कांग्रेस, शिवसेना और शेतकरी कामगार पार्टी के पास है।शरद पवार ने इस मामले में पहले ही स्पष्ट किया था कि पवार घराना सिर्फ़ दो सीटों पर लड़ेगा। जब पार्थ परिवार का दबाव बढ़ने लगा तो उन्होंने अपना नाम पीछे खींच लिया। दूसरा कारण उन्होंने बताया कि उन्हें देश भर में गठबंधन दलों के लिए प्रचार करना है।
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