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प्रियंका गाँधी को कांग्रेस का महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर राहुल गाँधी ने एक बड़ा दाँव खेला है और एक बड़ा ख़तरा भी मोल लिया है। अपने सबसे मज़बूत गढ़ उत्तर प्रदेश में कमज़ोर होने के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय राजनीति में लड़खड़ाने लगी थी।
90 के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो बड़े क्षत्रपों का उदय हुआ। एक तरफ़ मायावती और बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के धुर समर्थक दलितों को अपनी तरफ़ खींच लिया तो दूसरी तरफ़ मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी ने पिछड़ों को कांग्रेस से काट दिया। कांग्रेस के सवर्ण ख़ासकर ब्राह्मणों का झुकाव कभी बसपा और कभी बीजेपी की तरफ़ होने लगा। मुसलमान भी सपा और बसपा में बँट गए।
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लोकसभा की 80 सीटों वाला उत्तर प्रदेश ही अब तक देश के प्रधानमंत्री का फ़ैसला करता आया है। आज़ादी के बाद सबसे पहले जवाहर लाल नेहरू फिर लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी ही नहीं बीजेपी के पूर्व प्रधानमंत्री और मध्य प्रदेश के मूल निवासी अटल बिहारी वाजपेयी को भी उत्तर प्रदेश की सीढ़ियाँ चढ़कर ही प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली।
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चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह और चंद्रशेखर भी उत्तर प्रदेश से आए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो गुजरात और वडोदरा छोड़कर बनारस की गलियों का आसरा लेना पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस महज़ दो सीटों तक सिमट गई और बीजेपी उत्तर प्रदेश की 71 सीटों की बदौलत केंद्र में नरेंद्र मोदी की ताज़पोशी में सफल रही।
आज उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बेहद कमज़ोर स्थिति में है। इतनी कमज़ोर कि मायावती और अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ गठबंधन और उसके लिए सम्मानजनक सीटें छोड़ने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
बदहवास हाल कांग्रेस के लिए प्रियंका एक मीठी दवा की तरह सामने आई हैं। औपचारिक राजनीति में भले ही वह अब क़दम रखने जा रही हैं लेकिन प्रदेश की राजनीति में उनका दख़ल पहले से ही है।
माँ सोनिया गाँधी के रायबरेली और भाई राहुल गाँधी के अमेठी चुनाव क्षेत्र का काम वह पहले से ही देखती आ रही हैं। 2014 में दोनों क्षेत्रों में चुनाव अभियान का कमान उनके हाथों में ही थी। ‘नरेंद्र मोदी नीच की राजनीति करते हैं’, जैसा बयान देकर उन्होंने चुनावी राजनीति में अच्छी ख़ासी खलबली पैदा कर दी थी।
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वंशवाद का इतिहास : नेहरू से लेकर प्रियंका तक, कांग्रेस में नेहरू-गाँधी परिवार2014 के चुनावों में कांग्रेस की महापराजय के बाद पार्टी का एक ख़ेमा ‘प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ’ का नारा भी लगने लगा था। तब यह माना जाता था कि राहुल में नेतृत्व की क्षमता नहीं है। लेकिन अब राहुल पार्टी के अध्यक्ष बन चुके हैं और विपक्ष के नेता के रूप में ख़ुद को स्थापित भी कर चुके हैं। ऐसे में प्रियंका कम से कम अभी राहुल के लिए चुनौती नहीं दिखाई देती हैं।
प्रियंका का अंदाज़-ए-बयाँ एक हद तक मतदाताओं को आकर्षित करता है। इंदिरा गाँधी से मिलता-जुलता चेहरा-मोहरा उन्हें ग्रामीण जनता के क़रीब आसानी से ले जाता है। उनकी आवाज़ में भी इन्दिरा गाँधी जैसी गूँज है।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन खस्ताहाल है। ऐसे में प्रियंका से किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती है। हाँ, इतना ज़रूर दिखाई देता है कि उनके खुलकर राजनीति में आने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को नया जोश मिला है। चुनावों पर इसका अच्छा असर पड़ सकता है।
बीजेपी ने अभी से आरोप लगाना शुरू कर दिया है कि यह परिवारवाद का विस्तार है। पिछले 5 सालों से बीजेपी लगातार कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाती रही है। राहुल गाँधी और नेहरू परिवार पर जितने संभव हैं उतने लांछन लगाए गए। प्रियंका पर कुछ नये आरोप जड़ने से कांग्रेस का कोई ख़ास नुक़सान दिखाई नहीं देता।
प्रियंका अगर उत्तर प्रदेश की हवा में सनसनी घोल पाती हैं तो कांग्रेस का रास्ता आसान हो सकता है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पूर्व चुनाव क्षेत्र गोरखपुर और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के चुनाव क्षेत्र फूलपुर के उपचुनाव में हार से बीजेपी को लगे करंट की सिहरन उत्तर प्रदेश की हवा में अब भी महसूस की जा सकती है।
फूलपुर कभी पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का चुनाव क्षेत्र था। नेहरू का परिवार इलाहाबाद में बसा हुआ था। कांग्रेस का यह मज़बूत क़िला धीरे-धीरे ढह गया। अब तक माना जा रहा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में बीजेपी का मुक़ाबला समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन से है।
प्रियंका की सबसे बड़ी चुनौती पूर्वी उत्तर प्रदेश के निराश कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश भरने की है। लोकसभा चुनाव से पहले संगठन को ठीक करने का समय अब नहीं बचा है। लेकिन कई बार चुनाव सिर्फ़ हवा के बूते पर लड़ा जाता है।
प्रियंका को पार्टी महासचिव बनाकर एक तरह से राहुल गाँधी ने यह संकेत भी दे दिया है कि उनके बाद कांग्रेस का नेता कौन होगा। प्रियंका और राहुल में विवाद के आरोपों पर भी इससे विराम लग जाएगा।
अब तक चर्चा यह होती थी कि राहुल गाँधी ही प्रियंका गाँधी को कांग्रेस नेतृत्व में शामिल नहीं करना चाहते हैं। कारण यह बताया जाता था कि प्रियंका गाँधी में नेतृत्व की ज़्यादा क्षमता है और राहुल उनसे डरते हैं। अब संकेत ये मिल रहे हैं कि बीमार होने के कारण सोनिया गाँधी इस बार लोक सभा का चुनाव नहीं लड़ेगी। यह भी चर्चा है कि राहुल गाँधी रायबरेली से लड़ेंगे और प्रियंका उनकी सीट अमेठी से उम्मीदवार बनेंगी।
एक परिवार का दबदबा किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है लेकिन भारतीय राजनीति अभी भी परिवारवाद और सामंतवाद से मुक्त नहीं है। परिवारवाद बीजेपी में भी है और ज़्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों में भी। फ़िलहाल भारतीय जनता और मतदाताओं ने इसे एक मजबूरी के तौर पर स्वीकार कर लिया है।
प्रियंका को सामने लाकर कांग्रेस अपनी प्रेतबाधा से मुक्त हो गई है। शुरुआती रुझानों से लग रहा है कि पार्टी में इसका कोई नकारात्मक असर नहीं होगा। लेकिन प्रियंका की राजनीतिक सूझ-बूझ और नेतृत्व क्षमता की परख 2019 के लोकसभा चुनावों में होगी।
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