राजनीति में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता है, स्थायी सिर्फ हित होते हैं, यह कहावत पुरानी है। लेकिन मायावती के साथ 30 साल बिता चुके नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी ने यह कह कर सबको चौंका दिया है कि चुनाव बाद बहुजन समाज पार्टी सरकार बनाने में भारतीय जनता पार्टी की मदद करेगी। सवाल उठता है कि क्या वाकई ऐसा हो सकता है, या नसीमुद्दीन यूँ ही कह रहे हैं। इसकी पड़ताल ज़रूरी है।
उनका तर्क है कि चुनाव बाद बहुजन सुप्रीमो पर इतना ज़्यादा दवाब बढ़ेगा कि उनके पास नरेंद्र मोदी को समर्थन करने का कोई विकल्प नहीं बचेगा, वे उनसे हाथ मिला लेंगी। नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी 33 साल तक मायावती के काफ़ी नज़दीक रहे और एक साल पहले ही उन्होंने उनका साथ छोड़ कर कांग्रेस का हाथ थामा है।
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बीएसपी सुप्रीमो पहले भी बीजेपी के साथ काम कर चुकी हैं। 23 मई के बाद उन पर इतना अधिक दवाब होगा कि वह बीजेपी के साथ एक बार फिर जुड़ जाएँगी। मैं उनके साथ 33 साल रह चुका हूँ। उन्हें मैं जितना जानता हूँ, वह ख़ुद को उतना नहीं जानती हैं।
नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी, कांग्रेस नेता
सिद्दीक़ी ने यह भी कहा कि इसके बाद समाजवादी पार्टी अलग-थलग पड़ जाएगी, पर वह बीजेपी से हाथ नहीं मिलाएगी। वह कांग्रेस के साथ ही रहेगी।
क्या ऐसा होगा?
यह सच है कि मायावती और बीएसपी ने अलग-अलग समय तीन बार बीजेपी के साथ हाथ मिला कर उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई और मुख्यमंत्री रही। उन्होंने बीजेपी की मदद से 1995, 1997 और 2002 में सरकार बनाईं। तीनों ही बार दोनों दलों की सरकार किसी वैचारिक समानता के कारण नहीं बनी थीं, वह राजनीतिक जोड़-तोड़ और मौकापरस्ती का ही उदाहरण था। इसलिए यह कहना ज़्यादती होगी कि मायावती सैद्धांतिक मतभेदों के कारण बीजेपी के साथ किसी क़ीमत पर नहीं जाएँगी।चुनाव की तारीख़ों का एलान होने के ठीक पहले नरेंद्र मोदी सरकार ने ताज कॉरीडोर मामले की सीबीआई से जाँच शुरू करवा कर मायावती पर दवाब डाला। यह दबाव आगे कितना कारगर होगा, यह कहना मुश्किल है। पर बीजेपी इसकी कोशिश कर सकती है। मोदी सरकार के बीते पाँच साल के कामकाज के तौर तरीकों को देख कर ऐसा कहा जा सकता है।
रसगुल्ले की राजनीति?
इस तरह की बातें ममता बनर्जी के बारे में भी कही जा रही हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के मुखपत्र ‘गणशक्ति’ ने यह लिख कर सबको चौंका दिया कि तृणमूल और बीजेपी में मिलीभगत है और दोनों मिल कर सरकार बनाने की कोशिश कर सकती हैं।
मोदी ने ममता बनर्जी के बारे में कुछ ऐसा कहा कि लोग चौंक गए। प्रधानमंत्री ने अक्षय कुमार को दिए एक विवादास्पद इंटरव्यू में कहा कि ममता उन्हें हर साल कुर्ते और मिठाइयाँ भेजती हैं। इसका राजनीतिक निहितार्थ साफ़ है। मोदी ममता बनर्जी तक पहुँचने और उनसे समर्थन लेने की संभावना बनाए रखने की ओर इशारा कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल ने तुरत-फुरत कहा कि बंगाल के लोग उन्हें ‘कंकडों से भरा मिट्टी का रसगुल्ला’ भेजें। लेकिन उन्होंने कुर्ता या मिठाई भेजने की बात से इनकार नहीं किया।
चुपचाप, फूल छाप
मायावती की तरह ही ममता बनर्जी अतीत में बीजेपी के साथ राजनीतिक गठजोड़ बना चुकी हैं। वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री थीं। उनके समय ही उन्होंने राज्य विधानसभा का चुनाव बीजेपी के साथ मिल कर लड़ा था। उन्होंने दो नारे दिए थे, जिन पर आज भी उन्हें सफ़ाई देनी पड़ती है। उन्होंने कहा था, ‘चुपचाप, फूल छाप’। बीजेपी का चुनाव चिह्न कमल का फूल है तो तृणमूल का चुनाव चिह्न दो फूल हैं। एक और नारा था, ‘आमार चोखेर दू टी फूल, बीजेपी तृणमूल।’ यानी, ‘मेरी आँखों के दो फूल हैं-बीजेपी और तृणमूल।’फिलहाल दोनों दलों और दोनों शीर्ष नेताओं में रिश्ते बेहद ख़राब हैं लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि सही मोल-भाव होने की स्थिति में दीदी पश्चिम बंगाल के विकास, कांग्रेस-बीजेपी समान चरित्र या सीपीएम को रोकने के बहाने एक बार फिर बीजेपी से हाथ मिला लें। इसकी वजह यह है कि उनके शासनकाल में पश्चिम बंगाल की आर्थिक स्थिति बदतर हुई है और वह राज्य का विकास करने के नाम पर केंद्र से टकराव के बदले सहयोग के रास्ते पर चलने की बात कह सकती हैं।
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