सभी सर्वेक्षण अभी तक यह मानने को मजबूर हैं कि इस बार किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिलना बेहद मुश्किल है जैसा 2014 के आम चुनाव में “अच्छे दिन आयेंगे” के सपने के कारण तीन दशक बाद संभव हो सका था ! सच यह है कि “चौकीदार चोर है” जब तक रंग पकड़ता, तब तक सर्जिकल स्ट्राइक 2 (बालाकोट)का मौक़ा मोदी जी को मिल गया और वह 2019 के चुनाव का केंद्रीय नारा बनते-बनते रह गया।
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अब बीजेपी-कांग्रेस और ग़ैर कांग्रेसी ग़ैर बीजेपी विपक्ष के बीच त्रिशंकु की स्थिति बनने की संभावना सबसे प्रबल है। इसका असर इतना है कि महाबली मोदी जी तक ने करीब सत्ताइस दलों के साथ चुनाव पूर्व समझौते पहले ही कर लिये हैं । कांग्रेस लगभग हर राज्य में लगातार दोस्त तलाशने के क्रम में है और तीसरे-चौथे मोर्चे तो अस्तित्व में हैं ही।
जो समझौते हुए हैं वे सब भी “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” वाले मुहावरे को चरितार्थ करते लगते हैं। ये समझौते चुनाव बाद भी कायम रहेंगे ऐसा दावा कर पाना मुश्किल है। शिवसेना, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान, केसीआर जगन रेड्डी आदि चुनाव बाद कहाँ होंगे कहा नहीं जा सकता। ऐसी परिस्थिति में प्रधानमंत्री कौन बनेगा? यह यक्ष प्रश्न है। फ़िलहाल हम कुछ संभावित चेहरों पर नजर तो डाल ही सकते हैं!
मायावती
प्रबल महत्वाकांक्षी और शेड्यूल्ड कास्ट आइकॉन मायावती यदि तीस या तीस से ज़्यादा लोकसभा सीट जीत कर आईं और ग़ैर भाजपा विपक्ष ने नानुकुर की तो बीजेपी की मदद से प्रधानमंत्री बन सकती हैं , यह क़यास दूर की कौड़ी है भी और नहीं भी है। बीजेपी की मदद ही उन्हें जीवन में पहली बार देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 1995 में ले गई थी।बीजेपी ने इसके बाद भी 1997 और 2002 में उन्हें बाहर से समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनवाया।चौथी बार वे अकेले बहुमत पाकर मुख्यमंत्री बनीं । फ़िलहाल वे अखिलेश की समाजवादी पार्टी के साथ हैं जिन्होंने दिल्ली की गद्दी पर अपने पिता मुलायम सिंह यादव का दावा उनके हक़ में चुपचाप छोड़ दिया है।
मोदी सरकार के ख़िलाफ़ सबसे प्रबल राष्ट्रव्यापी जन आंदोलन शेड्यूल्ड कास्ट समाज ने ही छेड़ा। रोहित वेमुला की दुर्भाग्यपूर्ण आत्महत्या ने इसमें चिंगारी का काम किया, जिसकी भरपाई सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को संसद में बदलने के बावजूद मोदी सरकार अब तक नहीं कर पाई । जिग्नेश मेवानी और चन्द्रशेखर आजाद (रावण) ने सड़क पर और दिलीप सी मंडल जैसे तमाम साइबर योद्धाओं ने इसे परवान चढ़ाया ।फ़िलहाल इसका लाभ मायावती को मिल रहा है पर इसमें उनका अवसान भी छिपा हुआ है क्योंकि पढ़े लिखे शेड्यूल्ड कास्ट युवा सत्ता के लिये व्यक्तिगत समझौते की जगह सत्ता में हिस्सेदारी के पूर्ण और जायज़ हक़ के लिये लड़ रहे हैं ।
ममता बनर्जी
ग़ैर कांग्रेसी, ग़ैर भाजपा दलों में वे सबसे स्वीकृत नाम हो सकती हैं। केजरीवाल, शरद पवार, चन्द्रबाबू नायडू आदि उनके लिये लॉबीइंग कर सकते हैं।अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव भी उनके विरोध में नहीं हैं। जैसे संकेत हैं वे कम से कम बत्तीस लोकसभा सीट तो ज़रूर जीत रही हैं, क्योंकि बीजेपी के पक्ष में तमाम मीडिया शोरगुल के बावजूद पाँच-छ: सीट से ज़्यादा का अनुमान अनौपचारिक बातचीत में स्वपन दास गुप्ता तक का नहीं है । ममता बनर्जी ने काफ़ी होशियारी से अपने को तीसरे-चौथे मोर्चे वाले दलों में स्वीकृत कराया है। वामपंथी उनके ख़िलाफ़ हैं पर वे लोकसभा में बड़ी संख्या नहीं रह गये हैं और न ऐसी संभावना है कि वे इस चुनाव में भारी उलट फेर करें।
नरेंद्र मोदी
जितने लोगों से मैं पूछ सका उनमें से किसी ने भी उनके हक़ में 250 सीटों का आँकड़ा पार नहीं किया। यह फ़र्क़ भी फ़िलहाल पैदा हुई बालाकोट की गर्मी के चलते है वरना यही लोग दो सौ की संख्या पार नहीं कर रहे थे।वजह पूछने पर जवाब आया कि बीजेपी जो इस चुनाव तक पार्टी की जगह “मोदी” हो चुकी है विन्ध्याचल पार नहीं कर पा रही। बालाकोट के बम हिंदी हार्टलैंड में ही परिक्रमा कर रहे हैं। बिहार और हरियाणा में अस्पष्ट सामाजिक समीकरणों के कारण ज़रूर इसका सबसे घातक असर है तो झारखंड और छत्तीसगढ़ में सबसे कम। राजस्थान और मध्यप्रदेश में लाभ मिलेगा पर 2014 दोहरा पाना मुश्किल है।
हिमाचल और उत्तराखंड में विशिष्ट सामाजिक संरचना (सवर्ण हिंदू बाहुल्यता )के कारण बीजेपी जीत सकती है। गुजरात में फिर गृहराज्य होने का लाभ हो सकता है पर कांग्रेस शून्य पर रहे ऐसा संभव नहीं लगता।
उत्तर प्रदेश में महासमर होगा। गठबंधन हर सीट पर बीजेपी को दाँतों चने चबवायेगा और पूरी संभावना है कि कांग्रेस राज्य की सारी सीटें नहीं लड़ेगी। अधिकतम पंद्रह सीट लड़ेगी। यानी क़रीब 65 सीटों पर बीजेपी और गठबंधन आमने-सामने मुकाबला करेंगे। यही वह कारक है जो मोदी जी के दोबारा बहुमत से वापस आने के सवाल पर सवाल बन कर खड़ा हो गया है।
दिल्ली की सातों सीटें कांग्रेस और आप के समझौते के टूटने के बावजूद बीजेपी को नहीं मिलेंगीं (इसे बहुत कम लोग स्वीकार करेंगे)। उड़ीसा फिर राज्य की पार्टी बीजू जनता दल के पक्ष में दिखना शुरू कर चुका है और बाकी के उत्तर-पूर्व में नागरिकता विधेयक पर उठे आंदोलन ने संभावनाओं पर ग्रहण लगा दिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि सबसे ज़्यादा सीटें जीतकर व बहुमत के करीब पहुँचकर भी मोदी क्यों सरकार नहीं बना पायेंगे ? मेरा मत है कि बना भी सकते हैं पर वे समझौतों की मार से मोदी नहीं रह जायेंगे। हो सकता है ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर संघ उनके पैरों के नीचे की दरी खींच दे।
राहुल गाँधी
वक़्त फ़िलहाल बदली परिस्थितियों में राहुल गाँधी एकाएक सबसे ऊपर की पायदान की ओर बढ़ते-बढ़ते नीचे लुढ़क पड़े। वजह ऐसी हैं जिन पर उनका कोई बस नहीं। पुलवामा में आतंकवादी हमला होने के मामले में उनका कोई रोल नहीं और न बालाकोट पर हवाई हमला करने का फैसला करने में पर इसके चलते हिंदी हार्टलैंड में उनके चढ़ते हुए ग्राफ़ पर ग्रहण लग गया।आज चुनाव कार्यक्रम का ऐलान हो रहा है। ऐसा देखा नहीं गया कि बीच चुनाव कोई आमचुनाव का पासा पलट दे। वे ज़्यादा से ज़्यादा सामाजिक न्याय, बेहतर गवर्नेंस सबको मिनिमम सपोर्ट गारंटी स्कीम, किसानों की क़र्ज़माफ़ी आदि का सबसे बेहतर चुनावी कार्यक्रम तो दे देंगे पर अब इससे इतने कम समय में किसी सर्जिकल स्ट्राइक का असर पैदा हो पाने की उम्मीद करना पानी से दिया जलाने जैसा होगा। फिर भी ग़ैर भाजपा दलों में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में फिर उभर कर आने का उनका ख़िताब कायम रहेगा और डीएमके, टीएमसी, बीएसपी, या सपा उनके इस रोल को चुनौती नहीं दे सकेंगीं।
दिल फिर भी बहलाया जा सकता है कि इस सबके बावजूद देश के ग़ैर बीजेपी दलों में वे सबकी सहमति पा लें और इस बार लालकिले पर झंडा फहरा ही दें,पर लोग कहेंगे कि “ख़याल अच्छा है।”
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