असम की लड़ाई इस बार बीजेपी और कांग्रेस के बीच की लड़ाई है। इस लड़ाई में क्षेत्रीय पार्टियाँ, असम गण परिषद (एजीपी) और बोडो पीपल्स फ्रंट (बीपीएफ़) बीजेपी के साथ हैं और एनडीए का हिस्सा। इस चुनावी संघर्ष में इत्र व्यापारी बदरुद्दीन अज़मल वाली एआईयूडीएफ़ एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी है। चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होते ही इस अफ़वाह ने ज़ोर पकड़ा था कि कांग्रेस बदरुद्दीन अज़मल की पार्टी के साथ गठबंधन करेगी ताकि अल्पसंख्यक वोटों का बँटवारा न हो। लेकिन फ़िलहाल ऐसा कोई गठबंधन नहीं हुआ और अब अल्पसंख्यक वोटों के बँटने की संभावना प्रबल हो गई है। इन वोटों के बँटवारे की वजह से ही असम में भारतीय जनता पार्टी को हमेशा फ़ायदा होता रहा है और 2014 में उसकी सीटें 4 से बढ़ कर 7 हो गईं।
एआईयूडीएफ़ से किसे ख़तरा?
बीजेपी की तुलना में कांग्रेस को 2014 लोकसभा चुनाव में भारी नुक़सान हुआ। जहाँ 2009 में उसकी 7 सीटें थीं, 2014 में वह घट कर 3 रह गईं। 2014 में अज़मल की पार्टी को भी 3 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी। असम में कांग्रेस पार्टी की ज़मीन उखड़ने के वैसे तो कई कारण हैं, लेकिन एआईयूडीएफ़ के उदय के साथ ही अल्पसंख्यक वोट कांग्रेस से छिटकने लगे और एआईयूडीएफ़ कांग्रेस के लिए सबसे ख़तरनाक खिलाड़ी साबित हुआ। इस बात के सबसे साफ़ संकेत राज्य विधानसभा के चुनाव में मिलते हैं। ऐसी बहुत सारी सीटों पर बीजेपी को जीत मिली जो कांग्रेस के मजबूत गढ़ हुआ करते थे।कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा कारण यह था कि मुसलिम मतदाता कांग्रेस और एआईयूडीएफ़ में बँट गए, जिसका फ़ायदा बीजेपी को मिला। 2016 विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने असम में सरकार बनाई और 15 साल शासन में रहने के बाद कांग्रेस सत्ता से बेदख़ल हो गई।
हालाँकि कुछ जानकारों का यह मानना है कि लोकसभा चुनाव में शायद इतिहास अपने आप को न दुहराए। जानकारों का कहना है कि इस लोकसभा चुनाव में एआईयूडीएफ़ उतनी बड़ी खिलाड़ी नहीं है, जितनी वह हुआ करती थी। इसके कारण हैं। एक, इस चुनाव में एआईयूडीएफ़ 14 में से सिर्फ़ 3 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। दो, एआईयूडीएफ़ का जनाधार बड़ी तेज़ी के साथ खिसकता जा रहा है। हाल में हुए पंचायत चुनाव में मुसलिम बाहुल्य करीमगंज, धुबड़ी, बरपेटा जैसे ज़िलों में उसकी बुरी हार हुई थी।
कांग्रेस को उम्मीद है कि इन 3 चुनाव क्षेत्रों और दूसरे मुसलिम बाहुल्य इलाक़ों में उसे फ़ायदा होगा। इस चुनाव में कांग्रेस 14, बीजेपी 10, एजीपी 3 और बीपीएफ़ 1 सीट पर लड़ रही है।
असम में चाय बागान में काम करने वाले लोगों का वोट बहुत मायने रखता है। राजनीतिक पार्टियाँ उनको अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगी रहती हैें। इन चाय बागानों में काम करने वाले लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए बीजेपी ने ढेर वायदे किए और उन्हें अपने साथ लाने में कामयाब रही। चाय बागानों के लोग कम से कम चार चुनाव क्षेत्रों तेज़पुर, ज़ोरहाट, डिब्रूगढ़ और लखीमपुर में काफ़ी निर्णायक माने जाते हैं। साल 2009 तक इन चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस या एजीपी जीता करती थी, लेकिन 2014 में बीजेपी ने यह सीट अपने पक्ष में कर ली थी। शुरुआती रुझानों के आधार पर ऐसा लगता है कि बीजेपी ऊपरी असम की ज़ोरहाट और डिब्रूगढ़ सीट जीत सकती है, जबकि तेज़पुर के बारे में अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। यहाँ से कांग्रेस ने एम. जी. वी. के भानु को अपना उम्मीदवार बनाया है। पूर्व नौकरशाह भानु का मुक़ाबला सोनोवाल सरकार में मंत्री पल्लव लोचन दास से है। लखीमपुर में बीजेपी अच्छी स्थिति में कही जा सकती है। यहाँ से 2014 में मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल जीत चुके हैं।
आज की तारीख़ में असम में हिन्दू-मुसलिम विभाजन बहुत तीखा जान पड़ता है। जबसे बीजेपी ने इस राज्य में अपनी पैठ बनानी शुरू की है, तब से हिन्दुवाद को हवा देना भी शुरू कर दिया था। आज की हक़ीक़त यह है कि असम में एक बड़ा तबका धार्मिक पहचान के नाम पर वोट करता है। इस संदर्भ में नागरिक क़ानून की चर्चा करना सही होगा। जानकारों का मानना है कि नागरिक क़ानून मुसलिम प्रवासियों को भारत से बाहर खदेड़ने का एक ज़रिया है और हिन्दू प्रवासियों को यहीं बसाने का एक तरीका।
असम में कम से कम 10 लोकसभा सीटों पर मुसलिम वोट निर्णायक भूमिका निभाता है। कांग्रेस ने बरसों इस बात का फ़ायदा उठाया। लेकिन आज कांग्रेस को इसका कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है।
इसके दो कारण हैं।
- 1.बीजेपी ने सफलतापूर्वक क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिला कर हिन्दू वोट बैंक संगठित करने का प्रयास किया है।
- 2.अल्पसंख्यक बाहुल्य चुनाव क्षेत्रों में एआईयूडीएफ़ ने कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया है।
इस चुनाव में ऐसा लगता है कि हिन्दू-मुसलिम विभाजन की वजह से शहरी क्षेत्रों में बीजेपी को फ़ायदा हो सकता है। कांग्रेस पार्टी को उन क्षेत्रों में ज़्यादा बेहतर अवसर है, जहाँ उनके उम्मीदवार मजबूत हैं। जैसे कि कालियाबोर, जहाँ से तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई चुनाव लड़ रहे हैं। इसी तरह सिलचर में सुष्मिता देव भी विरोधी उम्मीदवारों से आगे दिख रही हैं। सुष्मिता को पूर्व बंगाली पहचान का फ़ायदा मिल रहा है। इलाक़े में उनकी छवि एक मजबूत महिला नेता की हैं, जो नेहरू-गाँधी परिवार के काफ़ी नज़दीक हैं। असम में 7 लाख नए वोटर बने हैं। ऐसा नहीं लगता है कि ये युवा वोटर सांप्रदायिक रंग में रंगे हैं। इनके लिए विकास, नौकरी, सुरक्षा जैसे मुद्दे ज़्यादा अहम हैं। साथ ही राहुल गाँधी बनाम मोदी की लड़ाई में बीजेपी को फ़ायदा मिलता दिखता है।
एक अजीब द्वंद्व भी राज्य के युवा मतदाताओं में दिखता है। वे बीजेपी की धार्मिक आधार पर बाँटने वाली राजनीति के पक्ष में नहीं, लेकिन राहुल गाँधी की छवि उन्हें बहुत प्रेरित भी नहीं करती है कि वह कांग्रेस को वोट दें।
अंत में यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से बीजेपी ने राज्य के अंदर क्षेत्रीय संतुलन को बनाने का प्रयास किया है, क्षेत्रीय दलों से गठबंधन किया है और राज्य के अंदर मजबूत नेतृत्व की छवि की वजह से वह फ़िलहाल कांग्रेस पर भारी पड़ती दिख रही है। लेकिन अंत में ऊंट किस करवट बैठेगा, यह नतीजों के बाद ही पता चल पाएगा।
अपनी राय बतायें