कल अपने आदरणीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का एक नया ब्लॉग पढ़ा। एक के बाद एक ब्लॉग के सामने आने से दिल को सुकून मिला कि वह शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की ओर अग्रसर हैं। यह सबसे सुखद ख़बर है। अब ज़रा उनके लिखे विषयों और उनके विश्लेषण पर गौर किया जाए। जेटली जी के हालिया ब्लॉग से इस बात की पुनः पुष्टि होती है कि अगर ब्रीफ़ या यूँ कहें कि वकालतनामा कमज़ोर हो तो एक बेहतरीन वकील भी अपना संतुलन खो बैठता है।
विनाशकारी नीतियों के हैं विरोधी
कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता जी द्वारा आहूत महारैली के बारे में वह कहते हैं कि यह सिर्फ़ मोदी विरोधी कैंपेन है। हम हज़ार बार अवाम की मनोभावना दुहरा चुके हैं कि हम मोदी जी के विरोधी नहीं हैं बल्कि उस व्यक्ति में सन्निहित और उनके द्वारा परिलक्षित विनाशकारी नीतियों के विरोधी हैं। इन्हीं नीतियों के कारण आज समाज के हर वर्ग और जातियों में कोहराम मचा हुआ है।
संवैधानिक संस्थाओं पर है संकट
आज रोज़गार विहीन अर्थव्यवस्था और उसके कई अन्य नियामक लहूलुहान होकर औंधे मुँह ज़मीन पर हैं। किसान और किसानी के समक्ष अस्तित्व का अभूतपूर्व संकट है। विश्वविद्यालयों के साथ केंद्र की सरकार युद्ध कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर तमाम संवैधानिक संस्थाएँ अंधी गुफा में रोशनी का सुराग ढूँढ रही हैं। आपकी राजनीतिक, वैचारिक खुराक पाकर एक भीड़ किसी का भी क़त्ल करने का लाइसेंस लेकर गाँव से लेकर शहर तक सब कुछ लील जाने को आमादा है और आप कहते हैं...ऑल इज वेल। आप बरबस नीरो की याद दिला देते हैं!
अहंकार की बू आती है
प्रधानमंत्री जी की ईमानदारी और पारदर्शिता की डपोरशंखी गाथा सुनाने में आप काफ़ी कुछ भूल गए। नीरव मोदी, मेहुल भाई और रफ़ाल में लाभार्थी उस विशिष्ट पुरुष को अगर अफ़साने में लाते तो हमें लगता कि आपका विश्लेषण वस्तुनिष्ठ है।
जेटली जी, आपकी इस प्रकार की चयनित भुलक्कड़ी से अहंकार की बू आती है। हम भारत के लोग यानी संविधान के प्रस्तावना की पहली पंक्ति तमाम कष्ट और दुःख बर्दाश्त कर सकते हैं लेकिन अहंकार से लबरेज़ व्यक्ति केन्द्रित विमर्श नहीं। इस हक़ीक़त को स्वीकार करिए...देवकांत बरुआ मत बनिए।
कुछ लोग त्राहिमाम मचाती अवाम के साथ खड़े होना पसंद करते हैं तो कुछ लोग हताश हुक़ूमत के लिए अर्थहीन ब्लॉग लिखना पसंद करते हैं। सबका अपना-अपना नज़रिया है।
कुतर्कों के आधार पर प्रधानमंत्री जी की तारीफ़ में कसीदे पढ़ने के बजाए अगर इसका 10% भी वित्तमंत्री जी ने अर्थव्यवस्था की ख़ामियों को दुरुस्त करने में लगाया होता तो शायद हालात इतने बदहाल नहीं होते। कुतर्क की पराकाष्ठा के क्षण अभी बाक़ी हैं।
क्यों नहीं बना सकते गठबंधन?
ब्लॉगर मंत्री जी आगे कहते हैं कि कोलकाता की रैली में स्टेज पर बैठे दो-तिहाई दल अतीत में बीजेपी के साथ काम कर चुके हैं? गठबंधनों के बनने और बढ़ने के दौर में क्या उन दलों को आज़ादी नहीं है कि आपकी जनविरोधी नीति का विरोध कर नये गठबंधन के सृजन का हिस्सा बनें। जेटली जी को यह स्मरण रखना चाहिए कि जाँच अजेंसीज के दिखाए डर से हर दल समझौता नहीं करता है।
जेटली जी, स्वनाम धन्य बादशाह की पैरोकारी आपकी मज़बूरी हो सकती है, लेकिन प्रगतिशील और लोकोन्मुख राजनीति करने वाले दल आपके साथ कोरस मे शामिल हो जाएँ तो क्या यह धरातल पर चल रहे मंथन के साथ अन्याय नहीं होगा?
हमारी या बहुजन समाज की राजनीति को जातिवादी कह कर आपने एक बार पुनः साबित कर दिया कि आपकी और आपके दल की राजनीति ऐतिहासिक वर्ण व्यवस्था के सरोकारों को आधुनिक नागपुरी चोंगा पहना कर चल रही है। एक ईमानदार पड़ताल के लिए अपनी कैबिनेट का और उच्च पदों पर विराजमान महानुभावों की जातिगत पृष्ठभूमि का आकलन करें तो फिर पता चलेगा कि आप और आपका दल मनसा-वाचा-कर्मणा में घोर जातिवादी है।
चूँकि आप सुविधाओं और विशेषाधिकारों से लैस जातियों की नुमाइंदगी करते हैं, इसलिए आपके शब्दकोष में वंचित समूहों और समाज के नेता आपको जातिवादी दिखते हैं। सिर्फ़ चश्मा नहीं आपको पूरी की पूरी नज़र और फिर नज़रिये में बदलाव करना होगा।
असमानता के महासागर में समृद्धि के पाँच क्रोनी पूँजीपतियों की पैरोकारी की राजनीति करने वाले लोग और दल, बहुजन और मंडलवादी दल के चरित्र को समझने का माद्दा ही नहीं रखते।
देश के अलग-अलग हिस्सों से आ रहे क्रंदन के स्वर के साथ खड़े दलों के सरोकार में वित्त मंत्री जी को सिर्फ़ नकारात्मकता ही दिखती है। ऐसे में अनायास अदम गोंडवी जी याद आते हैं -
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है
जेटली जी, अमेरिकी सन्दर्भ में वहाँ के सातवें दशक के भूतपूर्व उपराष्ट्रपति के बयान को हमारे सन्दर्भ में नकारात्मकता समझाने के लिए परोसते हैं। मैं उन्हें बर्नी सेंडर्स, जो कि डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद के दावेदार थे, का कल का बयान बताना चाहता हूँ। सेंडर्स अमेरिकी सन्दर्भ में कहते हैं कि एक लोकतांत्रिक समाज में, लोगों की राय में अंतर हो सकता है। हालाँकि, ट्रम्प जैसे किसी व्यक्ति के साथ नीतिगत चर्चा में शामिल होना मुश्किल है, जो मनोविकारी तौर पर झूठा है। इसे अमेरिकी सन्दर्भ से बाहर भी देखे जाने की ज़रूरत है और आख़िर में पुनः एक गुज़ारिश, एक अपील..इस दौरे-ए-सियासत के देवकांत बरुआ मत बनिए।
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