समकालीन दौर आधुनिक भारतीय राजनीति का एक ऐसा दौर है जहाँ निगाहें जाती हैं, दूर तलक गुबार ही गुबार है। लोकतंत्र सामूहिकता के उत्सव से फिसल कर कब व्यक्ति के आभामंडल की विषय वस्तु बन बैठा, हमें ठीक से पता ही नहीं चलाI ठीक ऐसे वक़्त यह आवश्यक है कि गुबार और धुंध के बादलों के बीच समकालीन राजनीति की उन प्राथमिकताओं को लोकजीवन में वापस लाया जाएँ जिन्हें बिसरा देने की सफल कोशिश लगातार हो रही है I संभवतः छह दशक पूर्व राष्ट्र कवि दिनकर जी ने लिखा था:

बीते बीस-पच्चीस वर्षों में किसान और खेतिहर मजदूर हमारे लोकजीवन की चर्चाओं और सरकारों की प्राथमिकताओं से लगातार दूर क्यों है? मुझे ऐसा कोई स्पष्ट कारण नहीं दिख रहा है कि आखिर इस मुल्क का अन्नदाता इस देश के राजनीतिक वर्ग और उसकी उसकी प्राथमिकताओं से लगातार गायब क्यों हो जा रहा है या कर दिया जा रहा है।
बैलों के ये बंधु वर्ष भर न जाने कैसे जीते हैं।
बंधी जीभ आँखे विषम ग़म खा शायद आंसू पीते हैं।।