जिन दो उपन्यासों ने एक दौर में मेरे भीतर अपनी बहुत गहरी छाप छोड़ी- और जिन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है- उनमें एक फणीश्वर नाथ रेणु का ‘परती परिकथा’ है और दूसरा निर्मल वर्मा का ‘एक चिथड़ा सुख’। हालाँकि ये दोनों एक-दूसरे से नितांत भिन्न आस्वाद की कृतियां हैं- एक में आंचलिक आभा है तो दूसरे में महानगरीय वैभव। एक की कथा पूर्णिया के परानपुर नाम के पिछड़े गांव में घूमती है तो दूसरे के चरित्र दिल्ली के संभ्रांत ठिकानों में भटकते हैं। एक में सामूहिकता के उत्सव के बीच भविष्य की कल्पना है तो दूसरे में अपनी एकांतिकता की अपने वर्तमान से मुठभेड़ का यथार्थ। एक में पचास के दशक में देखा गया विकास का नेहरूवादी सपना है तो दूसरे में ऐसा कोई सपना नहीं है, बस एक कशमकश है और एक बेचैन पड़ताल- एक चिथड़ा सुख की स्मृति की, या उसकी तलाश की।