जिन दो उपन्यासों ने एक दौर में मेरे भीतर अपनी बहुत गहरी छाप छोड़ी- और जिन्हें बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है- उनमें एक फणीश्वर नाथ रेणु का ‘परती परिकथा’ है और दूसरा निर्मल वर्मा का ‘एक चिथड़ा सुख’। हालाँकि ये दोनों एक-दूसरे से नितांत भिन्न आस्वाद की कृतियां हैं- एक में आंचलिक आभा है तो दूसरे में महानगरीय वैभव। एक की कथा पूर्णिया के परानपुर नाम के पिछड़े गांव में घूमती है तो दूसरे के चरित्र दिल्ली के संभ्रांत ठिकानों में भटकते हैं। एक में सामूहिकता के उत्सव के बीच भविष्य की कल्पना है तो दूसरे में अपनी एकांतिकता की अपने वर्तमान से मुठभेड़ का यथार्थ। एक में पचास के दशक में देखा गया विकास का नेहरूवादी सपना है तो दूसरे में ऐसा कोई सपना नहीं है, बस एक कशमकश है और एक बेचैन पड़ताल- एक चिथड़ा सुख की स्मृति की, या उसकी तलाश की।
यह एक चिथड़ा सुख की तलाश नहीं है
- साहित्य
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- प्रियदर्शन
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- 3 Nov, 2021

प्रियदर्शन
निर्मल वर्मा के कालजयी उपन्यास 'एक चिथड़ा सुख' पर वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन ने एक बेहद सारगर्भित टिप्पणी 'कथादेश' के लिए लिखी थी। रेणु की 'परती परिकथा' को साथ में याद करते हुए। अर्थ और व्यर्थ के बीच जीवन का मर्म तलाशने की कोशिश।
लेकिन दो नितांत भिन्न कृतियों में वह कौन सी एक समान चीज़ होती है जो किसी पाठक को फिर भी आकृष्ट करती है? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। इस पर विचार करते हुए मुझे यह खयाल आता है कि रेणु और निर्मल वर्मा दोनों व्यक्ति के अंतर्जगत के भी अद्भुत चितेरे हैं। बल्कि अपनी जड़ों से टूटने और फिर उन्हें खोजने की कसक उनके किरदारों को भटकाती रहती है। ‘परती-परिकथा’ का नायक जित्तन मिश्र ऐसा ही किरदार है- देश और समाज को बदलने की चाहत और इसे बदलने निकले लोगों की हक़ीक़त उसे जड़ों से भी काट देती है और बाक़ी दुनिया से भी। अलग-अलग ग्राम प्रांतरों में घूमते हुए, सितार बजाने से लेकर पत्रकारिता करते हुए, अंततः वह जड़ों की तलाश में गांव लौटा है। गांव वाले उसे पागल कहते हैं।