चाहे शिगूफ़े का इरादा हो, चाहे शरारत का, चाहे सनसनी का या फिर वास्तविक सरोकार का- मुक्तिबोध को लेकर दिलीप मंडल ने जो तीर चलाया, वह चल गया लगता है।
पिछले दिनों उन्होंने कवि मुक्तिबोध की जाति के उत्खनन की कोशिश की- बताया कि वे कुशवाहा हैं। यह जानकारी बाद में ग़लत निकली। मुक्तिबोध की जाति पूछे जाने से बेहद बेचैन और अशांत एक समूह ने उनके बेटों से बात की। बेटों ने शालीनता के साथ बताया कि हालाँकि वे जाति को अहमियत नहीं देते हैं, लेकिन महाराष्ट्र के ब्राह्मण हैं।
यानी जाति सामने आ गई। जाति को महत्व दिए बिना अपने ब्राह्मणत्व का एक सहज-सामान्य तथ्य की तरह यह उल्लेख बताता है कि जाति बनी हुई है। क्या मुक्तिबोध दलित होते तब भी यह तथ्य इतना ही छुपा रहता और क्या तब भी उनके बेटे यह कह सकने की स्थिति में होते कि वे जाति-पांति को नहीं मानते, लेकिन दरअसल वे दलित हैं?
निश्चय ही यह अंदेशा डराने वाला है कि क्या हमारा सारा बौद्धिक या साहित्यिक विमर्श अब जाति के कठघरों में कैद होने को अभिशप्त है? क्या हम अपने कवियों को अब उनकी जाति से पहचानेंगे? क्या मुक्तिबोध या धूमिल अपनी कविताओं से ज़्यादा अपनी जातिगत पहचान के हिसाब से पूजे और सराहे जाएंगे? क्या यह मुक्तिबोध समग्र के साथ बेईमानी नहीं है?
जो कवि बरसों नहीं, दशकों तक लगभग उपेक्षा के 'अंधेरे में' किसी 'ब्रह्मराक्षस' की तरह आजीवन एक बहुत बड़ी कविता रचता रहा, जो अपनी ही कविता के अग्निचक्र में कुछ इस तरह दाखिल हुआ कि पूरी तरह झुलस कर ही निकल पाया, जो नेहरूकालीन भारत की अंदरूनी छटपटाहट का एक महाकाव्यात्मक वृत्तांत लगभग पूरे की तरह अधूरा छोड़ गया, क्या अब हम उसे उसकी जाति से पहचानेंगे? जिस कवि ने एक तरह से अपनी जाति ही नहीं, अपने समाज से भी लगभग बहिष्कृत जीवन जिया, जिसने खुद को लगभग ‘डीक्लास’ कर डाला, क्या अब हम उसे जाति में बांधेंगे।
लेकिन अब इस वैध सवाल को कुछ दूर से, और कुछ दूसरी सामाजिक सच्चाइयों के आईने में देखने की कोशिश करें। क्या हिंदी समाज पहली बार अपने साहित्यकारों की जाति देख रहा है? हमारी पाठ्य पुस्तकों में निराला का परिचय छपा रहता था कि वे एक ग़रीब विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे। जयशंकर प्रसाद के बारे में बताया जाता था कि वे बनिया हैं।
प्रेमचंद, महादेवी वर्मा और हरिवंश राय बच्चन के कायस्थत्व का तथ्य इतना सार्वजनिक रहा है कि वह किसी को तब चुभता है जब धर्मवीर जैसा कोई दलित विचारक-लेखक ‘कफ़न' कहानी की धज्जियां उड़ाने की कोशिश करता है या फिर 'सामंत का मुंशी' जैसी अतिरेकी-आक्रामक किताब लिख डालता है।
निराला की 'सरोज स्मृति' में क्या अनायास एक जाति-विमर्श नहीं चला आता है जब वे अपनी बिटिया सरोज के घर लाने का बहुत मार्मिक वर्णन करते हुए भी जाति-बंधन को याद करते हैं-
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार --
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।"
फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
अगर ध्यान से देखें तो ऐसे जाति-विमर्श के उदाहरण और भी कवियों में मिल जाएँगे। कहीं-कहीं उसके परोक्ष रूप भी नज़र आएंगे। अज्ञातकुलशीलत्व के प्रति जो घनघोर अवज्ञा भाव हिंदी के संस्कार का हिस्सा है, वह भी इसी जाति-पूर्वग्रह की देन है।
मुक्तिबोध पर लौटें। जिस भारतीय समाज में जाति सबसे बड़ा तराजू बनी हुई है- चाहे वह विवाह का मामला हो, राजनीति का मामला हो, नौकरी का मामला हो, सार्वजनिक संबंधों का मामला हो- उसमें एक कवि की जाति जानने-बताने की कोशिश क्या ऐसा बड़ा अपराध है जिसके लिए सामने वाले को गालियाँ दी जाएँ? बल्कि यह कल्पना की जा सकती है कि क्या मुक्तिबोध अगर दलित या पिछड़े होते तो भी उसी तरह की कविता लिखते जिसके लिए वे जाने जाते हैं? या उन्हें वाक़ई हिंदी के आलोचकों ने वह सम्मान दिया होता जो उनके बीहड़-अनगढ़ शिल्प के बावजूद दिया? या जैसे रामविलास शर्मा मुक्तिबोध को मनोरोगी मानते थे, वैसे ही कुछ और आलोचक निकल आते जो उनकी जाति की याद दिलाकर उन्हें उपेक्षा से पागल करार देते- यह बताते हुए कि उनकी कविताएँ तो समझ में ही नहीं आती हैं?
बल्कि इस सवाल को कुछ और ढिठाई से पूछा जा सकता है। अगर वे दलित होते तो क्या ‘अंधेरे में’ के भीतर जिस जुलूस का ज़िक्र है, उसका नेतृत्व करने वाले का नाम ‘डोमाजी उस्ताद’ होता या कुछ और होता? क्या यह सच नहीं है कि हमारी जातिगत संरचनाएं हमारी मनोरचनाओं का भी चुपचाप निर्माण करती रही हैं जिनके कुछ रूप अचेत ढंग से हमारे लेखन में दिखने लगते हैं?
दिलचस्प यह है कि मुक्तिबोध की जाति पूछने से नाराज़-आहत समुदाय एक तरह से उन्हीं भावनाओं का वहन कर रहा है जिसे मुक्तिबोध ने अपने व्यर्थता-बोध की तरह सामने रखा था।
'ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन....
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया...
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश,
अरे जीवित रह गये तुम!’
जैसी काव्य पंक्तियां उस कातर मध्यवर्गीय मन के उचाटपन का ही प्रदर्शन करती हैं जो कहीं न पहुंचने की हताशा में, ची़ज़ों को न बदल पाने की बेबसी में, अपने से ही तरह-तरह के सवाल करता रहता है। बल्कि ‘मर गया देश, जीवित रह गए तुम!’ जैसी वेधक पंक्ति का इस्तेमाल तो इस मोदीयुगीन भारत में किसी दिन हमारे विद्वान प्रधानमंत्री भी कर बैठें तो अचरज की बात नहीं। आख़िर वे निदा फ़ाज़ली और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को अपने भाषणों में उद्धृत कर ही चुके हैं।
लेकिन सवाल यह है कि क्या मुक्तिबोध दलित होते तब भी उनके भीतर बहुत ज़्यादा लेकर बहुत कम देने का अपराध भाव होता? या उनके कशाघात कुछ और तीखे होते?
बहरहाल, सवाल और भी हैं। क्या मुक्तिबोध इस नियति से उबरने की कोशिश करते हैं? यहां उनकी एक दूसरी कविता पढ़ी जा सकती है- 'मैं तुम लोगों से दूर हूं।' यहां बहुत खुल कर मुक्तिबोध एक अलग सतह पर चलते दिखाई पड़ते हैं और यह रेखांकित भी करते हैं कि वे जो होना चाहते हैं, वे हो नहीं पाते।
‘असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
छल-छद्म धन की
किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
जीवन की।
फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ़ करने के लिए मेहतर चाहिए
वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
पर, रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
कि कोई काम बुरा नहीं
बशर्ते कि आदमी खरा हो
फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।
रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
गतियों की दुनिया में
मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है।’
निश्चय ही मेरा आग्रह या प्रस्ताव नहीं है कि हम मुक्तिबोध की जाति के आधार पर उनकी कविता पर विचार करें। लेकिन अगर कोई ऐसा करता है तो उसे उसका अपराध न मानें। आख़िर इस ढंग से भी पाठ के कुछ रूप निकल सकते हैं। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि हिंदी में एक सवर्ण वर्चस्व चुपचाप सक्रिय रहता है। प्रकाशकों, लेखकों, आयोजनों की सूचियां देख जाइए- दलित और आदिवासी भर्ती के लिए मिलेंगे- अलग श्रेणी में मिलेंगे, पिछड़े भी कम दिखेंगे और हमेशा संदेह से देखे जाएंगे कि कहीं ये हिंदी लेखकों की जाति खोजने या उसके आधार पर निर्णय सुनाने तो नहीं निकले हैं?
लालू यादव या मुलायम सिंह यादव को लेकर राजेंद्र यादव के रुख़ को भी इस जातिवादी नज़रिए से देखने की कोशिश हुई थी।
दरअसल मुक्तिबोध ने जो प्रश्न बरसों पहले पूछा था और जिसका इस्तेमाल अक्सर दूसरों को कठघरे में खड़ा करने के लिए किया जाता है, वह फिर से नए सिरे से पूछा जा सकता है- ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ नया इसमें यह है कि पॉलिटिक्स का मतलब अब जाति हो चला है। आपकी जाति बहुत दूर तक यह कर रही है कि पॉलिटिक्स में आप किन विचारों के साथ खड़े होंगे और किनका साथ देंगे। यानी सवाल अब यह हो गया है कि पार्टनर तुम्हारी जाति क्या है?
निश्चय ही राजनीति, समाज और साहित्य में यह जातिगत जड़ता टूटनी चाहिए।
लेकिन इसे तोड़ेगा कौन?
कम से कम वे लोग नहीं, जो मुक्तिबोध की जाति पूछे जाने पर विमर्श के सात्विक सवर्ण भाव से भर कर पूछने वाले को खलनायक साबित करने में जुट जाते हैं। मुक्तिबोध की जाति का सवाल बिल्कुल अप्रासंगिक हो जाए- यह उचित कामना करने वालों को पहले बाक़ी जगहों पर भी जाति को अप्रासंगिक बनाने की कोशिश करनी होगी। नहीं तो ऐसे सवाल उठते रहेंगे और हमारी ‘निष्कलुष’ चेतना को मथते रहेंगे।
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