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प्रतीकात्मक तसवीर।

इस तुलसीदास को देखना ज़रूरी है!

मध्यकाल के लगातार विवादास्पद बनाए जा रहे इतिहास के बीच असग़र वजाहत का नाटक 'महाबली' अपनी तरह का एक हस्तक्षेप है जिसका मंचन पिछले दिनों जाने-माने रंग-निर्देशक एमके रैना ने श्रीराम सेंटर में सेंटर के ही समारोह की पहली प्रस्तुति के तौर पर किया।

नाटक में दो महाबली हैं- एक तुलसीदास और दूसरे अकबर। यहीं से नाटक के विवादास्पद होने का ख़तरा शुरू हो जाता है। भारत में प्रगतिशील वैचारिकी की एक परंपरा तुलसीदास को कुछ हेय दृष्टि से देखती है और परंपरावादी मानती है। जबकि भारत की हिंदूवादी वैचारिकी की परियोजना को अकबर की महानता मंज़ूर नहीं है। उसे यह स्वीकार नहीं होगा कि अकबर तत्कालीन हिंदू पंडितों के मुक़ाबले ज़्यादा उदार, सभ्य और सांस्कृतिक समझ वाला शासक नज़र आए।

फिर यह नाटक एक मुसलिम लेखक का है (यह दुर्भाग्य ही है कि असग़र वजाहत को मुसलमान की तरह चिह्नित किया जाए, लेकिन मौजूदा सोच का रंग इतना बदला हुआ है कि वह इस पहलू को नज़रअंदाज़ कर ही नहीं सकती, इसलिए इसके सकर्मक इस्तेमाल की कोशिश करनी होगी)। 

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यानी कुल मिलाकर संकट कई हैं। मगर यह नाटक इन सारे संकटों के पार जाता है। कम से कम तीन बड़े मुद्दे हैं जिनकी ओर यह नाटक ध्यान खींचता है। पहला मुद्दा लेखक की स्वतंत्रता का है। नवरत्नों से भरे दरबार में अकबर को एक और रत्न मिल जाता तो वह खुश होता। लेखक के मुताबिक़ अकबर की कोशिश थी कि तुलसीदास बनारस छोड़ें और सीकरी आ जाएं। वैसे भी बनारस में तुलसीदास पोंगापंथी पंडितों के निशाने पर हैं। उन्हें रामभक्त भी प्रताड़ित कर रहे हैं और शिवभक्त भी उनसे कुपित हैं। उनकी सभा में पत्थर फेंके जा रहे हैं, उन्हें डराया-धमकाया जा रहा है, उन्हें पीटा जा रहा है, उन्हें मारने की कोशिश की जा रही है, उनकी पोथी जलाने का यत्न हो रहा है। रामभक्त नाराज़ हैं कि वे रामकथा का लोकतांत्रिकीकरण कर रहे हैं- कि शुद्ध संस्कृत में कही गई और पंडितों द्वारा बांची जाने वाली रामायण को अवधी जैसी गंवार बोली में आम आदमी की चीज़ बना रहे हैं। शिवभक्त नाराज़ हैं कि शिव की नगरी काशी में तुलसीदास राम को शिव से बड़ा बता रहे हैं, कि शिव पार्वती को राम कथा सुना रहे हैं।

एक तरफ़ ये स्थितियां हैं और दूसरी तरफ़ अकबर के दूतों अब्दुल रहीम खानखाना और टोडरमल का निरंतर आग्रह है कि तुलसीदास सीकरी चले आएं- बिल्कुल अपनी शर्तों पर, अपनी मर्ज़ी के मुताबिक। लेकिन तुलसीदास इसे टालते जाते हैं। अकबर लगातार अपने लोगों से पूछता है कि वे तुलसी को कब ला रहे हैं। वह उनसे मानस की चौपाइयां सुनता है और उनमें अभिभूत होता है। अंततः उसे एहसास हो जाता है कि तुलसीदास सीकरी आने को तैयार नहीं हैं। वह उसके बाद खुद तुलसी से जाकर मिलता है। वह बताता है कि वह उन्हें महाबली मानता है और जबकि ख़ुद भी महाबली है और इसलिए उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल करना चाहता है।

यहाँ तुलसी और अकबर के बीच देर तक चलने वाला संवाद है- यह ठीक-ठीक सत्ता और साहित्य के बीच का संवाद तो नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अपनी सारी ताक़त के बावजूद अकबर ने इस बातचीत में सत्ता की हनक को अपने से दूर रखा है और तुलसीदास साहित्य की स्वायत्तता की बात करते हुए भी ख़ुद को राम का ही चाकर बताते हैं। लेकिन यह बहुत दिलचस्प संवाद है जिसमें एक बादशाह की हसरतें भी चली आती हैं और एक कवि का अभिमान भी।
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बादशाह कहता है कि अगर तुलसीदास उसके नवरत्नों में शामिल हो जाते तो उनकी जगह इतिहास में होती। अब कहां है?

और कवि का जवाब है- वर्तमान में।

इस जवाब के साथ अचानक हम सिहर से जाते हैं। तुलसी वाक़ई कितनी गहराई के साथ आने वाली सदियों में भी और इस समय में भी बिल्कुल वर्तमान में बने हुए हैं।

लेकिन यह नाटक तुलसी की महानता बताने के लिए नहीं लिखा गया है। नाटक जैसे समकालीन समय में हस्तक्षेप की अपनी सुविचारिक भूमिका को एक क्षण भी नहीं छोड़ता। जो रामभक्त तुलसीदास को धमकाने-मारने-पीटने आते हैं, उनमें अभी के भक्तों को पहचानना मुश्किल नहीं है। जो धर्मांधता और कट्टरता आज भी हमारे चारों ओर मौजूद है, उसकी व्यर्थता और मूढ़ता के प्रमाण जैसे यह नाटक देता चलता है।

सवाल है, तुलसीदास को इतने विरोध और प्रतिरोध के बावजूद वह कौन सी चीज़ है जो उन्हें बचाए रखती है? वह कौन सी ताक़त है जो उनके पांव उखड़ने नहीं देती?

इस सवाल के दो जवाब नाटक के भीतर मिलते हैं। पहली ताक़त तो उस कविता से मिलती है जो तुलसीदास लिख रहे हैं- यह बिल्कुल आम आदमी की बोली में महान कविता है। यह कविता लोगों को इस तरह प्रभावित कर रही है कि वह बिल्कुल आंदोलन में बदल जा रही है। बनारस जैसे शहर में, जहां पंडितों की तूती बोलती है, जहाँ धर्म-कर्म का हर फ़ैसला उनकी पोथियों से होता है, वहां तुलसी की कविता रामकथा को पंडितों की जकड़ से मुक्त कर देती है। वह धर्म पर भरोसा करने वाले बहुत सारे लोगों के लिए रामबाण बन जाती है।

दूसरी बात तुलसी की अपनी आस्था है। उन्हें अपने राम पर अगाध विश्वास है। बेशक, इस मोड़ पर यह पूछने की तबीयत होती है कि क्या ऐसी निष्कंप आस्था हमेशा सकारात्मक होती है? क्या आस्था अपने-आप में कोई ऐसी चीज़ है जिसे एक मूल्य की तरह लिया जा सके? लेकिन तुलसी की आस्था ऐसे अंधे भरोसे से नहीं निकली है। वे परंपरा से मिले राम को जस का तस नहीं ग्रहण कर लेते, वह राम की निर्जीव मूर्ति से उपजी आस्था को अपना संबल नहीं बनाते, वह राम से जैसे लगातार संवादरत रहते हैं और इस क्रम में अपने आराध्य का ख़ुद निर्माण करते हैं। यह आराध्य मानवीय है, सबका कल्याण चाहने वाला है और इस भरोसे से पैदा हुआ है कि वह किसी का अहित नहीं कर सकता। 

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यह दरअसल एक विचार में भरोसा है जिसका निरंतर परिष्कार हो रहा है। हमारे समय का संकट यह भी है कि हमारे पास अपना निर्मित या विकसित कोई विचार नहीं है। जो रेडीमेड मिला है, उसे जितनी तेज़ी से हम पकड़ते हैं, उसी तेज़ी से छोड़ देते हैं। तुलसी के लिए विचार परिधान नहीं, अपने होने का प्रमाण है। यही विचार तुलसी को तमाम संकटों के बावजूद बनारस में बनाए रखता है। और इसी विचार की वजह से अकबर उनके पास आकर ख़ाली हाथ लौट जाता है।

नाटक की इतनी विस्तार में चर्चा के बीच उसके मंचन का पक्ष छूटा रह गया है। यह सच है कि असगर वजाहत ने जिस नाटक की परिकल्पना की, उसकी देह और आत्मा का संधान एमके रैना ने ही किया। पूरा नाटक तुलसी की चौपाइयों से भरा है। कहानी अपनी जगह है, बहसें अपनी जगह हैं, लेकिन तुलसी हर जगह हैं। पूरा नाटक एमके रैना ने उनकी चौपाइयों से बुन दिया है। इसके अलावा प्रकाश और मंच परिकल्पना पूरे नाटक को सार्थक करने वाली है। मंच पार्श्व में नदी का प्रभाव, बहुत हल्के परिवर्तन से शहर से लेकर महल तक का आभास और बिना किसी मुश्किल के दृश्य परिवर्तन की तत्काल नज़र आने वाली स्थूल ख़ूबियों के अलावा उसका सांगीतिक पक्ष बहुत सूक्ष्मता से गूंथा गया है। कुल मिलाकर यह एक शानदार और ज़रूरी प्रस्तुति है जिसे इस जलते हुए समय में जगह-जगह मंचित किया जाना चाहिए।

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प्रियदर्शन
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