भीमा-कोरेगांव हिंसा में गिरफ़्तार पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं के मामले की पिछले सप्ताह ही सुनवाई के दौरान चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा की बेंच में शामिल जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा है कि विपक्ष की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता। इससे पहले भी जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, ‘असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ़्टी वॉल्व है। अगर आप इन सेफ़्टी वॉल्व को नहीं रहने देंगे तो प्रेशर कुकर फट जाएगा।'दुनिया भर में सरकारें निरंकुश आज़ादी चाहती हैं। वे अपने से अलग या विरोधी सोच रखने वालों का दमन करना लोकतांत्रिक अधिकार मानने लगी हैं। वे मुश्क़िल से ही असहमति को बर्दाश्त कर पाती हैं। हाल के बरसों में तो असहमति को देशद्रोह, राष्ट्रविरोधी और असह्य क़रार देने की प्रवृत्ति बढ़ी है।विपक्षी दलों द्वारा सरकार पर हर रोज़ विरोध की आवाज़ यानी असहमति को दबाए जाने का अारोप लगाया जाता रहा है। ऐसी घटनाओं की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। ऐसी घटना 2015 में भी हुई जब लोग रोहित वेमुला की आत्महत्या और अख़लाक की सामूहिक हत्या से आहत और सरकार समर्थित संगठनों के आक्रामक व्यवहार से नाराज़ थे। कई लेखकों, संस्कृति-कर्मियों और बुद्धिजीवियों ने अपने पुरस्कार वापस करने शुरू किए। अचानक यह प्रक्रिया असहिष्णुता के विरुद्ध प्रतिरोध की एक मज़बूत आवाज़ बन गई। हालांकि, असहमति को दबाने की इससे भी बड़ी घटना 1975 के आपातकाल में हुई थी जब विरोध की हर आवाज़ को कुचल दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद बहस तेज़
हाल के दिनों में असहमति पर बहस भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी के बाद तेज़ हो गई है। सुप्रीम कोर्ट ने पांचों कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी पर पहले सवाल उठाए थे। हालांकि बाद में दख़ल देने से इनकार कर दिया और पांचों को घर में नज़रबंद रखने का आदेश दे दिया। अब संबंधित निचली अदालत तथ्यों के आधार पर तय करेगी कि यह असहमति को दबाने का मामला है या पांचों आरोपियों के माओवादियों से लिंक हैं। फ़िलहाल, पांचों आरोपी कवि वरवर राव, मानवाधिकार कार्यकर्ता अरुण परेरा व वेरनोन गोन्जाल्विस, मजदूर संघ कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और सिविल लिबर्टीज कार्यकर्ता गौतम नवलखा नज़रबंद हैं।'असहमति को नहीं दबाया जा रहा है'
हालांकि, सरकार कहती रही है कि असहमति को बिल्कुल दबाया नहीं जा रहा है। भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने पांचों कार्यकर्ताओं पर प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रचने, वैमनस्यता फैलाने, कश्मीरी अलगाववादियों से संपर्क रखने जैसे आरोप लगाए हैं। इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक व देविका जैन सहित अन्य बुद्धिजीवियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाकर असहमति की आवाज़ को दबाने का आरोप लगाया था। इस आरोप के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई की। हालांकि, इसने आखिरकार निचली अदालत पर ही मामले को छोड़ दिया।‘असहमति सजीव लोकतंत्र का प्रतीक है। अलोकप्रिय मुद्दों को उठाने वाले विपक्ष की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता। हालांकि, जहां असहमति की अभिव्यक्ति हिंसा को उकसाने या गै़र-कानूनी साधनों का सहारा लेकर लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार का तख़्तापलट करने के ‘प्रतिबंधित क्षेत्र’ में प्रवेश करती है तो असहमति महज़ विचारों की अभिव्यक्ति नहीं रह जाती। कानून का उल्लंघन करने वाली गै़र-कानूनी गतिविधियों से उसी अनुसार निपटा जाना चाहिये।’ -जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ (भीमा-कोरेगांव केस पर सुनवाई के दौरान)
असहमति के लिए आपातकाल काला दिन
देश ने 1975 में वे दिन देखे जब असहमति के लिए कोई जगह नहीं थी। जून महीने की 25 तारीख़ की रात देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे। इंदिरा गंधी सरकार ने राजनीतिक विरोधियों को उनके घरों, ठिकानों से उठाकर जेलों में डाल दिया था। बोलने की आज़ादी पर पाबंदी लगा दी गई थी। इंदिरा गांधी ने सत्ता जाने के डर से आपातकाल लगाया था, लेकिन वे इसे बचा नहीं पाई थीं। आपातकाल हटते ही सत्ता उनके हाथ से फ़िसल गई।
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