प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू 1952 में आज़ादी के बाद हुए पहले चुनाव में प्रचार करने विंध्यक्षेत्र पहुँचे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के नायक नेहरू को देखने-सुनने के लिए अथाह भीड़ उमड़ी थी। नेहरू के बोलने की बारी आने ही वाली थी उनके कान में किसी नेता ने कुछ कहा जिसे सुनकर नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उन्होंने मंच से ऐलान कर दिया कि चुरहट से पार्टी के निशान पर लड़ रहा प्रत्याशी कांग्रेस का नहीं है। दरअसल, नेहरू को पता चल गया था कि कांग्रेस प्रत्याशी और सरकार में मंत्री राव शिवबहादुर सिंह पर 25 हज़ार रुपये रिश्वत का गंभीर आरोप है। नेहरू एक आरोपित को हराने की अपील करने से हिचके नहीं हालाँकि वह उनकी पार्टी का ही था।
70 साल बाद भारत के प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी हैं और इन दिनों कर्नाटक चुनाव में प्रचार में जुटे हैं। वहाँ उन्होंने अपनी पार्टी की संभावना को कमज़ोर पड़ता देख बजरंग बली और बजरंग दल का फ़र्क़ मिटा दिया। कांग्रेस के घोषणापत्र में पीएफआई और बजरंग दल जैसे संगठनों पर बैन लगाने के वादे से पहले तो उन्होंने पीएफआई को गोल किया और फिर कह दिया कि कांग्रेस बजरंग बली का विरोध कर रही है। बजरंग दल ने तमाम राज्यों में जैसी उत्पाती हरक़तें की हैं या करता है, उसे लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन क्या भगवान के नाम वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को कुछ भी करने की छूट दी जा सकती है। अफ़सोस कि भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे राजनेता की ओर से ऐसा ही प्रस्ताव किया जा रहा है।
पीएम का बयान सुनकर आशंका होती है कि कहीं दिल्ली के जंतर-मंतर पर बैठी महिला पहलवानों के बलात्कार की चीत्कार से वे इसीलिए तो बेअसर नहीं रहे। आख़िर आरोपित बीजेपी सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ वे कार्रवाई करें भी कैसे जिसका नाम भगवान कृष्ण का पर्याय है? या फिर गुजरात दंगों के दौरान गर्भवती स्त्रियों का पेट चीरने की बात स्टिंग ऑपरेशन में स्वीकार करने वाले बाबू बजरंगी को नरोदा गाम मामले बरी करने के पीछे यही मानसिकता तो काम नहीं कर रही थी। आख़िर उसका नाम भी तो बजरंग बली के नाम पर है। और फिर गौरी लंकेश की हत्या, लेखकों को धमकी, मुस्लिम दुकानदारों के साथ मारपीट करने को लेकर चर्चा में रहे श्रीराम सेने पर भी कोई कार्रवाई कैसे हो सकती है। मोदी जी के सिद्धांत को स्वीकार करें तो इस संगठन के ख़िलाफ़ कुछ भी किया जाना सीधे भगवान श्रीराम पर लांछन लगाना माना जाएगा। यूपी के मशहूर शूटर कहे जाने वाले मुन्ना बजरंगी की हत्या हो चुकी है, वरना आज मोदी जी के बयान से उसे जीवन का नया अर्थ मिल जाता।
प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के किसी भी बयान को दुनिया भर में गंभीरता से सुना जाता है और देश में तो पूरा सिस्टम ही इससे अर्थ ग्रहण करता है। प्रधानमंत्री जी हर चुनाव में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे खोजकर उसे हवा देते हैं, उसने पूरे सिस्टम को प्रदूषित कर दिया है। यह संयोग नहीं कि भारत के अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का मुद्दा वैश्विक स्तर पर उठ रहा है जबकि सत्ता पक्ष द्वारा विश्वगुरु का डंका बजाया जा रहा है। अमेरिका के धार्मिक स्वतंत्रता आयोग ने लगातार चौथे साल मोदी सरकार पर धार्मिक स्वतंत्रता को व्यवस्थित रूप से बाधित करने का आरोप लगाते हुए भारत को विशेष चिंता वाले देशों की सूची में शामिल करने की सिफारिश अमेरिकी विदेशमंत्रालय से की है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 161वें स्थान पर जा गिरा भारत का तथाकथित मुख्यधारा मीडिया इस बात पर चाहे चर्चा से बच रहा हो लेकिन दुनिया बड़े ग़ौर से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओँ और मर्यादाओं को कुचले जाने का तमाशा देख रही है।
भारतीय जनता पार्टी ने पिछले कुछ सालों से भगवा रंग, देवी-देवताओं की तस्वीर या फिर धार्मिक साहित्य को लेकर जिस तरह आक्रामकता दिखानी शुरू की है, उसने कई सवाल खड़े किये हैं। ऐसा लगता है कि हिंदू धर्म और देवी-देवताओं पर आस्था भारतीय जनता पार्टी के गठन के बाद ही हिंदू समाज में पैदा हुई है। जबकि सिर्फ़ नाम और रंग कैसे पवित्रता की गारंटी हो सकते हैं? रामकथा बताती है कि सोने का हिरन बने मारीच को जब राम ने बाण मारा तो उसने राम की आवाज़ बनाकर लक्ष्मण को पुकारा था जिससे विचलित होकर सीता ने लक्ष्मण को भेज दिया था और रावण को उनके हरण का अवसर मिल गया था। वैसे रावण भी भगवाधारी साधु बनकर ही वहाँ पहुँचा था।
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धार्मिक प्रतीक और भगवान का नाम हमेशा साधु होने की गारंटी नहीं होती, ये शैतानी इरादों का आवरण भी हो सकते हैं।
गुजरात दंगों के बाद संसद में हुई बहस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि हमें उदार हिंदुत्व चाहिए जो समन्वयवादी हो। गुजरात में बलात्कार की घटनाओं पर उन्होंने हैरानी जताते हुए कहा था कि कोई समाज इतना गिर कैसे सकता है! लेकिन मोदी जी उसी पार्टी के प्रधानमंत्री हैं और भूलकर भी कभी समाज में सद्भाव और प्रेम का संदेश देने की कोशिश नहीं करते। उल्टा हर चुनाव में नफ़रत और सांप्रदायिक विद्वेष को राजनीतिक पूँजी में बदलने की कोशिश करते हैं। कर्नाटक चुनाव में बजरंग बली और बजरंग दल को जोड़कर तो उन्होंने अति ही कर दी है।
हो सकता है कि आगे भगवान के नाम वाले किसी बीजेपी प्रत्याशी को वोट न देना वे धर्मविरुद्ध घोषित कर दें। प्रधानमंत्री पद पर बैठे किसी व्यक्ति का इस स्तर पर उतरना दुखद है। या शायद कर्नाटक चुनाव में बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर इस क़दर प्रबल है कि मोदी जी बेहद हताश हो चुके हैं। वे जानते हैं कि कर्नाटक चुनाव में बीजेपी की हार 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्षी एकता और रणनीति का नया परिदृश्य रचेगी। इसलिए कर्नाटक की हार महँगी साबित हो सकती है जिसकी भविष्यवाणी ज़्यादातर चुनावी सर्वे कर रहे हैं।
पुनश्च: 1952 की चुनावी सभा में जब नेहरू जी ने कांग्रेस के प्रत्याशी राव शिवबहादुर सिंह को नकारा तो सामने ही उनका बेटा बैठा था जो तब दरबार महाविद्यालय छात्रसंघ का अध्यक्ष था। 1954 में राव शिवबहादुर सिंह को रिश्वत कांड में तीन साल की सज़ा हुई जिसे उस बेटे ने कभी नहीं छिपाया। हमेशा यही जवाब दिया कि पिता का चयन किसी के वश में नहीं होता। उसे 1957 में कांग्रेस ने टिकट देने का प्रस्ताव दिया लेकिन उसने इंकार कर दिया और निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुँचा। नेहरू जी ने 1960 में उसकी लगन और सच्चाई देखते हुए ख़ुद कांग्रेस में शामिल किया। उसका नाम था अर्जुन सिंह जो तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री, पाँच बार केंद्र के मंत्री और पंजाब के राज्यपाल रहे और कांग्रेस के एक दिग्गज नेता कहलाये।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)
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