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क्या कर्नाटक में मुस्लिमों को आरक्षण धर्म के आधार पर दिया जा रहा? जानें सच!

कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार द्वारा सरकारी ठेकों में मुस्लिम समुदाय के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला एक बार फिर सुर्खियों में है। यह प्रस्ताव कर्नाटक ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक प्रोक्योरमेंट्स यानी केटीपीपी एक्ट, 1999 में संशोधन के ज़रिए लागू करने की योजना है। डीके शिवकुमार ने कहा है कि मुस्लिमों को आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन भी कर सकते हैं। बीजेपी ने इसे 'मुस्लिम तुष्टिकरण' करार देते हुए सिद्धारमैया सरकार पर तीखा हमला बोला है। संसद में भी सोमवार को इस मुद्दे पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच तीखी बहस हुई।

कर्नाटक में मुस्लिमों को आरक्षण देने पर केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा और किरेन रिजिजू ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से कांग्रेस का रुख साफ करने को कहा। संसद में इस पर जोरदार हंगामा हुआ। बीजेपी का कहना है कि यह क़दम संविधान के ख़िलाफ़ है, क्योंकि भारत में धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। लेकिन क्या वाक़ई यह आरक्षण धर्म के आधार पर है? और बीजेपी इसे क्यों तुष्टिकरण का मुद्दा बना रही है? साथ ही, भारत के अन्य राज्यों में मुस्लिमों को मिले आरक्षण की स्थिति क्या है? आइए, इसकी गहराई से पड़ताल करते हैं।

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कर्नाटक सरकार का तर्क है कि यह 4 प्रतिशत आरक्षण मुस्लिम समुदाय को धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन की वजह से दिया जा रहा है। यह आरक्षण अन्य पिछड़ा वर्ग की श्रेणी 2बी के तहत प्रस्तावित है, जिसमें पहले से ही मुस्लिमों की कुछ जातियाँ शामिल हैं। 1974 में एल.जी. हवानूर आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कर्नाटक में मुस्लिमों की कई जातियों को ओबीसी में शामिल किया गया था। इसका मक़सद सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना था, न कि धार्मिक आधार पर कोई विशेषाधिकार देना।

हालाँकि, बीजेपी इसे अलग नज़रिए से देखती है। उसके नेताओं का कहना है कि सरकारी ठेकों में मुस्लिमों के लिए अलग से कोटा तय करना संविधान की मूल भावना के ख़िलाफ़ है, जो धर्म आधारित भेदभाव को नकारता है। बीजेपी सांसद तेजस्वी सूर्या और रविशंकर प्रसाद जैसे नेताओं ने इसे राहुल गांधी और कांग्रेस के 'वोट बैंक' की राजनीति से जोड़ा है। उनका दावा है कि यह क़दम अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी के हकों में सेंध लगाता है।

बीजेपी का सिद्धारमैया सरकार पर हमला केवल संवैधानिक सवालों तक सीमित नहीं लगता। कर्नाटक में 12.92 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, जो कई विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाती है। बीजेपी इसे कांग्रेस की उस रणनीति से जोड़ रही है, जिसमें वह अपने पारंपरिक अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, दलित वोट बैंक को मज़बूत करना चाहती है। 
2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने मुस्लिम आरक्षण बहाल करने का वादा किया था, जब बीजेपी की बोम्मई सरकार ने ओबीसी कोटे से 4 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण हटा दिया था। अब इस वादे को पूरा करने की कोशिश को बीजेपी 'तुष्टिकरण' कहकर इसका राजनीतिक फ़ायदा उठाने की कोशिश कर रही है।
बीजेपी का यह भी आरोप है कि कांग्रेस ओबीसी के कोटे से काटकर मुस्लिमों को लाभ दे रही है, जिससे सामाजिक समीकरण बिगड़ सकते हैं। कर्नाटक में पहले से ही एससी के लिए 17 प्रतिशत, एसटी के लिए 7 प्रतिशत और ओबीसी के लिए 32 प्रतिशत आरक्षण है। अगर 4 प्रतिशत मुस्लिम कोटा जोड़ा जाए, तो कुल आरक्षण 50 प्रतिशत की संवैधानिक सीमा को पार कर सकता है, जो सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के ख़िलाफ़ है। बीजेपी इसे मुद्दा बनाकर कांग्रेस को संविधान विरोधी साबित करने की कोशिश में है।
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मुस्लिमों को कहाँ-कहाँ, कितना आरक्षण?

भारत में संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 के तहत धर्म के आधार पर आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है। आरक्षण सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया जाता है। फिर भी, कई राज्यों में मुस्लिमों की कुछ जातियों को ओबीसी श्रेणी में शामिल कर आरक्षण का लाभ दिया जाता है। प्रमुख राज्यों की स्थिति-

कर्नाटक: ओबीसी के 32 प्रतिशत कोटे में मुस्लिमों की जातियों को 4 प्रतिशत आरक्षण मिलता है। अब सरकारी ठेकों में भी 4 प्रतिशत कोटा प्रस्तावित है।

केरल: ओबीसी के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण में मुस्लिमों को 8 प्रतिशत नौकरियों और 10 प्रतिशत उच्च शिक्षा में हिस्सा मिलता है।

तमिलनाडु: ओबीसी के 50 प्रतिशत आरक्षण में मुस्लिमों को 3.5 प्रतिशत लाभ मिलता है। राज्य ने 69 प्रतिशत कुल आरक्षण को 9वीं अनुसूची में डालकर संवैधानिक चुनौती से बचाया है।

बिहार: अति पिछड़ा वर्ग के 18 प्रतिशत आरक्षण में मुस्लिम जातियाँ शामिल हैं।

आंध्र प्रदेश: 2004 में मुस्लिमों को 5% आरक्षण देने की कोशिश की गई, लेकिन कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया। बाद में 4% कोटा लागू हुआ, जो सामाजिक सर्वेक्षणों पर आधारित था।

तेलंगाना : ओबीसी श्रेणी के तहत मुस्लिम समुदाय के कुछ हिस्सों को 4% आरक्षण मिलता है। मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने इसे 12% करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन केंद्र ने मंजूरी नहीं दी। यह भी पिछड़ेपन पर आधारित है।

उत्तर प्रदेश: ओबीसी के 27 प्रतिशत कोटे में मुस्लिम जातियाँ शामिल हैं।

इन सभी मामलों में आरक्षण धर्म के बजाय सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया है। हालाँकि, क्रीमी लेयर यानी 8 लाख रुपये से अधिक सालाना आय वाले को इससे बाहर रखा जाता है।

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क्या देश और राज्यों में धर्म आधारित आरक्षण है?

संविधान साफ़ कहता है कि धर्म के आधार पर भेदभाव या विशेषाधिकार नहीं हो सकता। बाबा साहब आंबेडकर ने भी इसका विरोध किया था। लेकिन व्यवहार में कुछ राज्यों ने मुस्लिम समुदाय को ओबीसी में शामिल कर आरक्षण दिया है, जिसे बीजेपी 'धर्म आधारित' कहकर विरोध करती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार कहा है कि धर्म के आधार पर आरक्षण असंवैधानिक है, जैसा कि आंध्र प्रदेश मामले में देखा गया। फिर भी, तमिलनाडु जैसे राज्य 50 प्रतिशत की सीमा पार करने में सफल रहे हैं, क्योंकि उनके क़ानून 9वीं अनुसूची में हैं।

दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने 10 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग यानी ईडब्ल्यूएस आरक्षण लागू किया, जो धर्म से परे है। लेकिन मुस्लिमों को इसमें शामिल करने के लिए आर्थिक मापदंड तय किए गए हैं। इसे बीजेपी ने ही लागू किया है।

कर्नाटक में मुस्लिमों को दिया जा रहा 4 प्रतिशत आरक्षण तकनीकी रूप से धर्म आधारित नहीं है, बल्कि ओबीसी के तहत सामाजिक पिछड़ेपन पर आधारित है। लेकिन इसका समय और तरीक़ा इसे धार्मिक रंग दे रहा है, जिसे बीजेपी तुष्टिकरण का हथियार बना रही है।

बीजेपी का विरोध संवैधानिक चिंता से ज़्यादा राजनीतिक रणनीति का हिस्सा लगता है, ताकि वह कांग्रेस को अल्पसंख्यक-समर्थक और संविधान-विरोधी साबित कर सके।

भारत में मुस्लिमों को मिलने वाला आरक्षण ज़्यादातर ओबीसी के दायरे में है, जो संवैधानिक रूप से वैध है। लेकिन अगर यह कोटा धार्मिक पहचान से जोड़ा जाता है, तो यह सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा। सिद्धारमैया सरकार का यह दाँव उनके वोट बैंक को मज़बूत कर सकता है, लेकिन बीजेपी इसे लोकसभा चुनावों में बड़ा मुद्दा बनाकर कांग्रेस को घेरने की तैयारी में है। यह मामला कोर्ट तक पहुँच सकता है, और तब असली तस्वीर साफ़ होगी।

(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)

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क़मर वहीद नक़वी
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