तब्लीग़ी जमात पर लगे तमाम आरोपों को खारिज करने और फिर डॉ. कफील खान को जमानत मिलने के बाद अब जम्मू एवं कश्मीर हाई कोर्ट ने राजद्रोह के नाम पर दर्ज केस को लेकर अहम टिप्पणी की है। हाई कोर्ट ने कहा है कि केवल अपमानजनक टिप्पणी करना ही राजद्रोह का केस लगाने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।
जे एंड के हाई कोर्ट की यह टिप्पणी उस वक्त आयी है जब देश की सबसे बड़ी अदालत में सोशल मीडिया पर रोक लगाने को लेकर बहस जारी है। एक मामले में सुनवाई के दौरान खुद केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह चुकी है कि सोशल मीडिया पर लगाम लगनी चाहिए।
क्या था मामला?
लद्दाख ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल (एलएएचडीसी) के एक चुने काउंसलर ने भारत-चीन सीमा पर बढ़ते हुए तनाव को देखते हुए सोशल मीडिया में एक टिप्पणी कर दी। करीब 6 मिनट के वायरल ऑडियो टेप में काउंसलर जाकिर हुसैन को भारतीय राजनीति में बड़े पदों पर बैठे नेताओं और आर्म्ड फोर्सेज के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हुए सुना गया।
वायरल ऑडियो के सामने आने के बाद पुलिस ने जून महीने में देशद्रोह, दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने, राष्ट्रीय अखंडता पर लांछन लगाने जैसी आईपीसी की गंभीर धाराओं के अंतर्गत काउंसलर की गिरफ्तारी की। निचली अदालत से जमानत खारिज हो जाने के बाद उन्होंने जे एंड के हाई कोर्ट में शरण ली। हाई कोर्ट ने उन्हें फिलहाल जमानत पर छोड़ने का आदेश दिया है।
हाई कोर्ट ने जमानत का आदेश देते हुए कहा कि मात्र अपमानजनक टिप्पणी करना ही राजद्रोह या दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने जैसी आपराधिक धाराओं के अंतर्गत अपराध नहीं बनता है। हाई कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह या दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने जैसी आपराधिक धाराओं के लिए ये ज़रूरी होता है कि लिखे या कहे शब्दों का असली मकसद क्या था और इससे शांति व्यवस्था किस तरह से भंग या खराब हुई है।
हालांकि कोर्ट ने ये भी कहा कि ये जल्दबाजी होगी कि अदालत दी गई और सोशल मीडिया पर अपलोड की गयी बातचीत पर कोई टिप्पणी करे जबतक ये साबित न हो जाए कि कही गयी बातें शांति व्यवस्था को बिगाड़ने के मकसद से ही की गयी थीं। हालांकि कोर्ट ने कहा कि जब निचली अदालत मामले में आरोप तय करे तो इन बातों पर गहराई से ध्यान देने की आवश्यकता है।
राजद्रोह दर्ज करने के मामले बढ़े
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2014 में जहां राजद्रोह के 47 मामले देश में दर्ज हुए वहीं साल 2018 में दर्ज मामलों की संख्या बढ़कर 70 तक पहुंच गयी। इससे पहले साल 2015 में 30, 2016 में 35 और 2017 में बढ़कर ये आंकड़ा 51 तक पहुंच गया था। लेकिन राज्यों पर नजर डालें तो असम, झारखंड, हरियाणा और बिहार में ही राजद्रोह के दर्ज मामले देश में दर्ज मामलों की संख्या में आधे थे। साल 2014-2018 के बीच असम और झारखंड में 37 मामले दर्ज किए गये।
सीएए के ख़िलाफ़ धरना देने पर राजद्रोह
इस साल जनवरी महीने में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के खिलाफ धरना प्रदर्शन करने वाले 3000 लोगों पर राजद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया गया जबकि जमीन के कानूनों को लेकर प्रदर्शन करने वाले करीब 3300 किसानों पर भी राजद्रोह के तहत मुकदमे दर्ज किए गये। इस लिस्ट में पत्रकार विनोद दुआ और 14 साल की एक लड़की भी शामिल है जिस पर बेंगलुरू में पाकिस्तान जिंदाबाद कहने पर राजद्रोह का आरोप लगा। हालांकि चौकाने वाली बात ये भी है कि साल 2016 से अब तक केवल 4 लोगों पर ही पुलिस राजद्रोह का आरोप अदालत के सामने सिद्ध कर पायी है।
कन्हैया और हार्दिक पर लगा आरोप
जब भी राजद्रोह का मामला आता है तो उसपर विवाद हो ही जाता है। अभी हाल ही में जब अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी में विवाद हुआ था, तो वहां के 14 छात्रों पर राजद्रोह का केस दर्ज किया गया था। खूब बवाल हुआ तो पुलिस ने कहा कि धाराएं हटा रहे हैं। इससे पहले गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले कांग्रेस नेता हार्दिक पटेल के ख़िलाफ़ भी राजद्रोह का केस दर्ज हुआ था।
जेएनयू में भी छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार और उनके साथी उमर खालिद पर राजद्रोह का केस लगा था। कांग्रेस के जमाने में 2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संविधान से जुड़ी भद्दी और गंदी तसवीरें पोस्ट करने की वजह से गिरफ्तार किया गया था और यही धारा लगाई गई थी।
क्या है राजद्रोह का कानून
इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) की धारा 124 ए में राजद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है, ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 124 ए में राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है।
किसी देश विरोधी संगठन से अगर कोई अनजाने में भी संबंध रखता है। ऐसे संगठन का किसी भी तरीके से सहयोग करता है तो उसके ख़िलाफ़ भी राजद्रोह का मामला बन सकता है। इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर अधिकतम उम्र कैद की सजा का प्रावधान है।
आजादी से पहले का है कानून
यह कानून अंग्रेजों के जमाने का है। तब अंग्रेज इस कानून का इस्तेमाल उन भारतीयों के ख़िलाफ़ करते थे, जो अंग्रेजों की बात मानने से इनकार कर देते थे। ये कानून 1870 में वजूद में आया था। 1908 में बाल गंगाधर तिलक को उनके लिखे एक लेख की वजह से 6 साल की सजा सुनाई गई थी और ये सजा उन्हें इसी कानून के तहत दी गई थी। इसके अलावा अखबार में तीन लेख लिखने की वजह से 1922 में महात्मा गांधी को भी राजद्रोह का आरोपी बनाया गया था। तब से अब तक कानूनों में कई बदलाव हुए हैं, लेकिन ये कानून बना हुआ है और पिछले कुछ सालों में इसे लेकर खूब विवाद भी हुए हैं।
1962 में केदारनाथ बनाम बिहार राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था
सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संवैधानिक बेंच ने अपने आदेश में कहा था कि राजद्रोह के मामले में हिंसा को बढ़ावा देने का तत्व मौजूद होना चाहिए। महज नारेबाजी करना देशद्रोह के दायरे में नहीं आता। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में कहा था कि महज नारेबाजी करना राजद्रोह नहीं है। दो लोगों ने उस समय खालिस्तान की मांग के पक्ष में नारे लगाए थे और सुप्रीम कोर्ट ने उसे राजद्रोह मानने से इन्कार कर दिया था।
खत्म होना चाहिए कानून?
यह धारा संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का दमन करती है। कानून के जानकारों का तर्क है कि संविधान की धारा 19 (1) ए की वजह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगे हुए हैं। ऐसे में धारा 124 की ज़रूरत नहीं है। जानकारों का तर्क है कि शांति व्यवस्था बिगाड़ने, धार्मिक उन्माद फैलाने और सामाजिक द्वेष पैदा करने जैसे अपराधों के लिए आईपीसी में पहले से ही अलग-अलग धाराओं में सजा का प्रावधान है। इसलिए अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे इस कानून को खत्म कर देना चाहिए।
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