चुनाव आयोग के तारीख बदलने से पहले दो घटनाक्रम हुए। पूर्व सीएम गुलाम नबी आजाद अनंतनाग राजौरी सीट से चुनाव लड़ने से पीछे हट गए। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने इस सीट से चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। इस लोकसभा का परसीमन बदलवाने के बाद भाजपा अपने प्रॉक्सी दलों के जरिए जीत का सपना देख रही थी। जिसमें गुलाम नबी आजाद की पार्टी भी कश्मीर में भाजपा की प्रॉक्सी पार्टी के रूप में मशहूर है। चुनाव की तारीख बदलने का इन दोनों घटनाक्रमों से सीधा संबंध है।
तारीख बदलने से किसे फायदा
ताजा घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्लाह ने कहा- "जाहिर है कि बीजेपी और उसके सहयोगियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश की जा रही है, अन्यथा इसे स्थगित करने का कोई कारण नहीं है। मैंने यह भी कहा था कि मुगल रोड वहां तक पहुंचने का सिर्फ एक रास्ता नहीं है...। ऐसा पहली बार नहीं है कि चुनाव आयोग बीजेपी की मदद कर रहा है, लेकिन वे कुछ भी कर लें, जितनी चाहें उतनी साजिश कर लें, बीजेपी और उसके सहयोगियों को इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ेगा...।"
घाटी में इस बात पर व्यापक बहस हो रही थी कि क्या अनंतनाग-राजौरी सीट भाजपा को घाटी में उसे एंट्री दिला देगी। हालाँकि, जैसे ही नामांकन पत्र दाखिल करने की आखिरी तारीख करीब आई, दोनों दलों यानी गुलाम नबी आजाद और भाजपा ने दौड़ से बाहर होकर सभी को हैरान कर दिया। 17 अप्रैल को, आज़ाद ने घोषणा की कि वह चुनाव मैदान में नहीं उतरेंगे क्योंकि वह केवल जम्मू-कश्मीर के लोगों के बीच रहकर उनकी सेवा करना चाहते हैं। बहरहाल, चुनाव की तारीख आगे बढ़ने से भाजपा को तैयारी करने और नई राजनीतिक बिसात बिछाने का मौका मिल जाएगा।
दरअसल, जब गुलाम नबी आजाद ने अनंतनाग-राजौरी सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा की तो घाटी में यह चर्चा शुरू हो गई कि आजाद दरअसल भाजपा की ओर से लड़ेंगे। भाजपा यहां सिर्फ मौजूदगी दिखाने के लिए रहेगी। गुलाम नबीं आजाद चुनाव जीतने के बाद पार्टी सहित भाजपा में चले जाएंगे। यह चर्चा आजाद पर भारी पड़ी और वो भाग खड़े हुए। उसके बाद महबूबा मुफ्ती ने इस सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा की और पर्चा भी दाखिल कर दिया। यानी आजाद भागे तो महबूबा आईं। इस सारी राजनीति में भाजपा की कहीं कोई पूछ नहीं है। भाजपा को भी एहसास हो गया कि इस चुनाव में मतदाता उसे अलग-थलग कर देंगे। उसने फिर मांग रख दी कि अभी फिलहाल इस सीट पर चुनाव टाला जाए। चुनाव आयोग ने भाजपा की मांग स्वीकार कर ली। कश्मीर घाटी में चुनाव के तीन बड़े स्टेक होल्डर नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस ने चुनाव की तारीख बदलने का कोई आवेदन नहीं दिया था।
पिछले कुछ हफ्तों में कश्मीर के तथाकथित भाजपा नेताओं ने जम्मू-कश्मीर के कई हिस्सों का दौरा किया और जनता के मूड को जानने के लिए जाहिरा तौर पर कई रैलियाँ और बैठकें कीं। उन्होंने देख लिया कि भावना उनके ख़िलाफ़ है, जिसके चलते उन्होंने यह पैंतरेबाजी की। हालत यह थी कि कई रैलियों में गुलाम नबी आजाद के सामने ही जनता ने उन्हें भाजपा का एजेंट कह दिया। पीडीपी के प्रवक्ता मोहित भान का कहना है कि आजाद को उनके खिलाफ जनभावना इसलिए मिली थी क्योंकि वह भाजपा के प्रति अपना समर्थन छिपाने में विफल रहे। उन्होंने कहा, "इसके अलावा, अनंतनाग में लोगों के साथ उनका कोई जुड़ाव नहीं था।
कश्मीर में चुनाव में भाजपा का सबकुछ दांव है। जुमले से लेकर वादे तक। यहां हार का मतलब अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले पर तमाचा मारने जैसा होगा। घाटी में स्थिति सामान्य होने के दावे भी मजाक में बदलते रहते हैं। कश्मीर के आम लोगों और राजनीतिक वर्ग के बीच एक आम धारणा है कि भाजपा ने जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी (जेकेएपी) और सज्जाद गनी लोन के नेतृत्व वाली पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) जैसे अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से कश्मीर में चुनाव लड़ने का विकल्प चुना है। जेकेएपी प्रमुख अल्ताफ बुखारी के आवास पर भाजपा के जम्मू-कश्मीर प्रभारी तरुण चुघ और लोन के बीच हाल ही में हुई बैठक ने ऐसी धारणाओं को कुछ हद तक बल दिया। यानी भाजपा अपनी प्रॉक्सी दलों और नेताओं के जरिए जमीन तलाश रही है।
भाजपा को अब घाटी की असलियत पता चल गई है। जम्मू छोड़कर शेष घाटी में नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस का थोड़ा बहुत जनाधार है। भाजपा घाटी में कहीं नहीं है। जम्मू में जरूर उसका आधार है। ऐसे में वो अपनी भद्द नहीं पिटवाना चाहती है। घाटी से हारने का मतलब पूरी दुनिया में यही जाएगा कि कश्मीरी अवाम ने भाजपा सरकार को धारा 370 रद्द करने का जवाब दे दिया है।
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