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गुलाम नबी आजाद

जम्मू कश्मीरः किस हवा में उड़ गये गुलाम नबी आजाद, इंजीनियर रशीद और जमात

जम्मू कश्मीर में जब सितंबर की शुरुआत में लोकसभा सांसद शेख अब्दुल रशीद उर्फ इंजीनियर रशीद के नेतृत्व वाली अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) ने विधानसभा चुनाव के लिए जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) से गठबंधन कायम किया तो इस खबर को राष्ट्रीय अखबारों और चैनलों ने सुर्खियां बनाया था। इन्हें इस चुनाव का गेम चेंजर बताया गया था। कांग्रेस से बाहर आये गुलाम नबी आजाद की आजाद पार्टी ने वैसे ही लोकसभा चुनाव से लेकर इस चुनाव तक एक हव्वा खड़ा किया हुआ था। जबरदस्त साधनों के साथ चुनाव लड़ने वाली इन तीनों पार्टियों की रैलियों में भीड़ उमड़ने लगी। अब जब एनसी-कांग्रेस गठबंधन राज्य में सरकार बनाने की तरफ बढ़ रहा है। इस जीत ने छोटी पार्टियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। 
Jammu Kashmir: big debacle for Ghulam Nabi Azad, Engineer Rashid and Jamaat party? - Satya Hindi
इंजीनियर रशीद और जमात नेता गुलाम कादिर वानी
जमात-ए-इस्लामी कई दशक से जम्मू कश्मीर में चुनाव का बहिष्कार और विरोध कर रही थी। उस पर प्रतिबंध तक लगा। लेकिन जब जमात ने इस चुनाव में हिस्सा लेने की घोषणा थी तो लोगों की जुबान पर एक ही सवाल था, उसके उम्मीदवार कैसा प्रदर्शन करेंगे। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हराने वाले इंजीनियर रशीद की अवामी इत्तेहाद पार्टी ने जब जमात से "रणनीतिक गठबंधन" किया तो लोगों की दिलचस्पी और भी बढ़ गई। दिल्ली में बैठकर भाजपा और कुछ पत्रकार इसे किसी का मास्टरस्ट्रोक बता रहे थे।
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जल्द ही पूरे कश्मीर में हवा फैल गई कि इंजीनियर साहब और जमात का गठबंधन दरअसल आजादी पार्टी की तरह ही भाजपा के प्रॉक्सी हैं।जब नामांकन दाखिल किये गये तो जमात समर्थित 10 उम्मीदवार निर्दलीय के रूप में मैदान में उतरे लेकिन उनमें से कुछ बाद में पीछे हट गए। जो रुझान आये उनसे पता चलता है कि जमात समर्थित सभी उम्मीदवार अपने विधानसभा क्षेत्रों में पीछे हैं। कश्मीरी अवाम ने मुख्यधारा की पार्टियों यानी एनसी और कांग्रेस को महत्व दिया। उसने पीडीपी को भी ठुकरा दिया जिसने कभी भाजपा से गठबंधन किया था।
लोकसभा चुनाव में उमर अब्दुल्लाह को हराने वाले इंजीनियर रशीद से विधानसभा चुनाव में करिश्मे की उम्मीद की जा रही थी। उस आश्चर्यजनक जीत के बावजूद इंजीनियर साहब इस बार कोई छाप नहीं छोड़ पाए हैं, उनकी पार्टी द्वारा समर्थित केवल एक उम्मीदवार - उनके भाई खुर्शीद अहमद शेख इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक 2812 वोटों से आगे चल रहे थे।

गुलाम नबी आज़ाद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी भी कोई तीर नहीं मार सकी। इस पार्टी ने लोकसभा चुनाव में तीन प्रत्याशी उतारे थे लेकिन बुरी तरह हार गई थी। तभी से आजाद की पार्टी अव्यवस्थित चल रही है। उसके कई नेताओं ने लोकसभा चुनाव के दौरान ही पद छोड़ दिया था। विशेषज्ञों का कहना है कि इन सभी के नाकाम होने के पीछे यह आम धारणा बनना है कि इन राजनीतिक खिलाड़ियों को भाजपा ने नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन के वोटों में सेंध लगाने के लिए उकसाया था। चुनाव से ठीक पहले इंजीनियर रशीद को जिस तरह प्रचार के लिए जमानत मिली, उसने इस धारणा को और मजबूत किया।

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2018 में गठबंधन टूटने तक महबूबा मुफ्ती ने भी भाजपा के साथ जम्मू-कश्मीर में सरकार चलाई थी। अनुच्छेद 370, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था, एक साल बाद हटा दिया गया और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया। इसके लिए कश्मीर के अवाम ने भाजपा को तो माफ नहीं किया लेकिन पीडीपी को भी माफ नहीं किया। इस चुनाव जम्मू से लेकर कश्मीर तक लोगों की एक प्रमुख मांग यह भी है कि उसका राज्य का दर्जा बहाल किया जाए। हालांकि यह केंद्र की मोदी सरकार ही फैसला लेती है लेकिन एनसी-कांग्रेस की सरकार बनने के बाद यह मुद्दा गरमाएगा। इसी तरह धारा 370 की बहाली भी केंद्र से जुड़ा मुद्दा है। लेकिन भाजपा इस एजेंडे पर चल रही है, इस धारा की बहाली नामुमकिन है। लेकिन कुल मिलाकर जम्मू कश्मीर के चुनाव नतीजों ने भाजपा का नुकसान तो किया ही है।  
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क़मर वहीद नक़वी
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