शेख़ अब्दुल्ला के सामने यह सवाल था कि जम्मू-कश्मीर को भारत के साथ रहना चाहिये या फिर पाकिस्तान के, तब उनके दिमाग़ में किसी तरह का कन्फ्यूजन नहीं था। आज भले ही संघ परिवार और बीजेपी शेख़ अब्दुल्ला की कैसी भी तसवीर पेश करे, वह एक आज़ाद ख़्याल, आधुनिक सोच के नेता थे। वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि पाकिस्तान के साथ जाना कश्मीर के लिये विकल्प नहीं हो सकता। वह यह भी जानते थे कि कश्मीर एक आज़ाद मुल्क नहीं हो सकता। शेख़ अब्दुल्ला का ख़्वाब था ‘नया कश्मीर’। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘ग़ुलामी की ज़ंजीरें उनके क़ब्ज़े (पाकिस्तान) में बनी रहेंगी। लेकिन भारत अलग है। भारत में ऐसे नेता और दल हैं जिनके विचार हमसे मिलते हैं। भारत के साथ विलय होने पर क्या हम अपने लक्ष्य के क़रीब नहीं पहुँचेंगे? हमारे पास दूसरा विकल्प आज़ादी का है लेकिन चारों तरफ़ से बड़े देशों से घिरे होने के कारण एक छोटे देश का आज़ाद रह पाना मुमकिन नहीं होगा।’
डीडीसी चुनाव: घाटी में लोग सरकार पर यक़ीन नहीं करते!
- जम्मू-कश्मीर
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- 24 Dec, 2020

मोदी सरकार और संघ परिवार को समझना होगा कि कश्मीर की समस्या ज़मीन या भू-भाग की समस्या नहीं है, ये लोगों की समस्या है, और लोग तब तक मोदी सरकार पर यक़ीन नहीं करेंगे जब तक कि उन्हें प्यार से समझाने की कोशिश नहीं की जाएगी। डीडीसी चुनाव से लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू होने का आभास तो होगा लेकिन क्या वाक़ई में लोकतंत्र पूरी तरह से लागू हो पाएगा?
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।