बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का
जो चीरा तो क़तरा ए खूं तक न निकला
कुछ ऐसा ही हो गया शुक्रवार को जीएसटी काउंसिल की बैठक में। जिस मामले पर पूरे देश की नज़र थी। जिसपर मीडिया ने भी खासा माहौल बना रखा था। कुछ लोग तो यहाँ तक भविष्यवाणी कर रहे थे कि प्रधानमंत्री के बर्थडे पर देश को एक बड़ा गिफ्ट मिलनेवाला है। उस मामले का ज़िक्र कुल मिलाकर दो मिनट छह सेकंड में हुआ एक घंटे चली प्रेस कॉन्फ्रेंस में। और वो भी एकदम रस्म निभाने के अंदाज़ में। बताया गया कि बैठक में भी रस्म ही निभाई गई।
बैठक के फ़ैसलों की जानकारी देते समय वित्तमंत्री ने एक से ज़्यादा बार बताया कि पेट्रोल और डीजल पर जीएसटी लगाने का मामला जीएसटी परिषद की बैठक में आया ही इसलिए था कि केरल हाइकोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया था कि परिषद की बैठक में इस पर चर्चा की जाए। बैठक के बाद की प्रेस वार्ता से साफ़ है कि प्रस्ताव यही बताकर लाया गया कि यह विषय इसलिए उठाया जा रहा है क्योंकि उच्च न्यायालय ने इस विषय पर चर्चा का निर्देश दिया है। और लगभग तुरंत ही सभी तरफ़ से प्रस्ताव के विरोध में आवाज़ें आईं और सबने मिलकर यह प्रस्ताव नामंजूर कर दिया कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। और यह भी तय पाया गया कि अब काउंसिल की तरफ़ से केरल हाईकोर्ट को बता दिया जाएगा कि आपने विचार करने को कहा था, हमने विचार कर लिया।
अदालत की खाना पूरी तो हो गई, मगर जनता की अदालत में क्या होगा? सवाह है कि आख़िर क्या वजह है कि केंद्र सरकार, बीजेपी की राज्य सरकारें और दूसरी पार्टियों की सरकारें भी, सब एक साथ हैं, एकमत हैं और बिलकुल नहीं चाहतीं कि पेट्रोल और डीजल पर मौजूदा टैक्स हटाकर जीएसटी लगा दिया जाए? इस सवाल का छोटा जवाब तो वही है जो बिहार के पूर्व वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी ने दिया। उन्होंने कहा कि अगर पेट्रोल और डीजल जीएसटी के दायरे में आ गए तो इससे केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को मिलकर 4.10 लाख करोड़ रुपए का नुक़सान झेलना पड़ेगा। यानी टैक्स से होनेवाली उनकी कमाई इतनी कम हो जाएगी।
कमाई में इतना बड़ा गड्ढा कैसे होगा यह समझने के लिए जानना ज़रूरी है कि पेट्रोल डीजल पर सरकार की कमाई होती कैसे है। पहले यह समझना मुश्किल था, लेकिन अब तो सरकारी तेल कंपनी इंडियन ऑयल की वेबसाइट पर तेल के दाम का पूरा हिसाब आप रोज़ देख सकते हैं।
सोलह सितंबर को दिल्ली में पेट्रोल की क़ीमत थी 101.19 रुपए। इसके टुकड़े करके देखेंगे तो कंपनी की रिफाइनरी से यह पेट्रोल निकला 40.78 रुपए का और एक लीटर पर दिल्ली तक की ढुलाई वगैरह का ख़र्च आया बत्तीस पैसे। यानी डीलर को चुकाना था इकतालीस रुपए दस पैसे। मगर इसके ऊपर लगी एक्साइज ड्यूटी 32.90 रुपए जो केंद्र सरकार वसूलती है, डीलर का कमीशन 3.84 रुपए, और इस पूरी रक़म पर वैट 23.35 रुपए जो राज्य सरकार वसूलती है। अलग-अलग राज्यों में ढुलाई का ख़र्च और वैट अलग-अलग होने की वजह से ही पेट्रोल डीजल के दाम भी अलग-अलग होते हैं।
पेट्रोल जैसा ही हाल डीजल का भी है जहाँ 40.97 से दाम 88.62 तक पहुंच जाता है। साफ़ है कि पेट्रोल-डीजल पर केंद्र और राज्य मिलकर सौ से डेढ़ सौ परसेंट तक टैक्स वसूल रही हैं। जबकि जीएसटी का सबसे ऊँचा स्लैब ही 28 परसेंट का है।
अगर उसे सिन गुड्स की कैटेगरी में यानी बेहद ऊँचे टैक्स वाले स्लैब में भी मान लिया जाए, तब भी टैक्स चालीस परसेंट ही लगेगा। यानी चालीस बयालीस रुपए का माल, उसपर सोलह अठारह रुपए टैक्स। कुल मिलाकर सत्तर रुपए के अंदर ही निपट जाता। लेकिन तब जो तीस-बत्तीस रुपए आपकी जेब में बचते, वही इन दोनों सरकारों को चुभ रहे हैं क्योंकि इन्हें लगता है कि इनकी जेब कट जाएगी। और इसी को बचाने के चक्कर में दोनों तुरंत एक साथ भी हो जाते हैं और तरह-तरह के तर्क भी गढ़ते हैं।
केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कुछ ही समय पहले कहा था कि पेट्रोल डीजल सस्ता करना या उसपर ड्यूटी और टैक्स कम करना फिलहाल संभव नहीं है। उनका तर्क था कि पिछली सरकार ने तेल कंपनियों को सब्सिडी देने के लिए जो ऑयल बॉन्ड जारी किए थे उनपर ब्याज भरने में ही बहुत रक़म ख़र्च हो जाती है। यानी आज जो महंगा पेट्रोल डीजल आपको मिल रहा है उसके लिए यह सरकार नहीं बल्कि मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ज़िम्मेदार थी। उनका कहना था कि इसीलिए सरकार एक्साइज ड्यूटी घटा नहीं सकती क्योंकि इन बॉन्ड्स का ब्याज भरने में ही खजाने पर बहुत बोझ पड़ता है।
लेकिन थोडी़ सी पड़ताल इस दावे को ग़लत नहीं, बल्कि बेबुनियाद साबित कर देती है। मोटा अनुमान है कि अगर रेट बदले नहीं गए तो वित्तवर्ष 2014-15 से 2023-24 के बीच यानी इस सरकार के दस सालों में राज्यों का हिस्सा देने के बाद भी केंद्र सरकार के पास तेल पर एक्साइज और टैक्स से क़रीब पंद्रह लाख तिहत्तर हज़ार करोड़ रुपए की मोटी रक़म जमा होती है। इसके सामने ऑयल बॉन्ड पर ब्याज की देनदारी दस साल में बस एक लाख तैतालीस हजार करोड़ रुपए ही होती है। यानी जितना कमाया उसका सिर्फ़ नौ परसेंट।
जब मोदी सरकार सत्ता में आई उस वक़्त कुल 1,34,423 करोड़ रुपए के ऑयल बॉन्ड बाज़ार में थे। 2015 में इसमें से 3500 करोड़ रुपए के मूल धन का भुगतान किया गया था। और बकाया एक लाख तीस हज़ार करोड़ से ऊपर की रक़म का भुगतान दो हज़ार छब्बीस से पहले होना है।
तेल की क़ीमतों पर वित्तमंत्री ने जो बयान दिया उस वक़्त भी उन्होंने यही कहा था कि दो हज़ार छब्बीस तक ऑयल बॉन्डों पर ब्याज के 37000 करोड़ रुपए चुकाने हैं और साथ ही एक लाख तीस हज़ार करोड़ की मूल रक़म की देनदारी है। उन्होंने कहा था कि ‘अगर मेरे ऊपर ऑयल बॉन्ड्स का बोझ न होता तो शायद मैं ईंधन पर एक्साइज ड्यूटी घटाने की हालत में होती।’
पिछले महीने जिस वक़्त यह बयान आया था, तब से अब तक कुछ नए आँकड़े सामने आ चुके हैं और आते जा रहे हैं जिनपर नज़र डालने से इस सवाल का जवाब मिल सकता है कि सरकार चाहे तो एक्साइज ड्यूटी में कटौती क्यों बहुत आसान है। बजट में ही एलान किया गया है कि इस साल सरकार ऑयल बॉन्ड के ब्याज में 9989 करोड़ रुपए चुकाएगी। जबकि तेल पर एक्साइज बढ़ाकर उसकी कमाई इसकी कई गुना हो चुकी है। एक्साइज ड्यूटी का बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम पदार्थों से ही आता है। सन 2019-20 में सरकार को एक्साइज ड्यूटी से क़रीब दो लाख उन्तालीस हजार करोड़ रुपए मिले थे जो वित्त वर्ष 2020-21 में 389677 करोड़ पर पहुँच चुके थे। चालू वित्तवर्ष में अप्रैल से जुलाई तक यानी चार महीनों में ही एक्साइज वसूली में अड़तालीस परसेंट का उछाल दिखाई दिया है। यानी ऑयल बॉन्ड के ब्याज में जितनी रक़म जानी है उसके तीन गुने से ज़्यादा का उछाल तो एक्साइज में आ ही चुका है। इन चार महीनों में एक लाख करोड़ से ज़्यादा की रक़म एक्साइज के खाते में आई है जबकि पिछले साल यह क़रीब सड़सठ हज़ार करोड़ ही थी।
सरकार का यह तर्क भी अब नाकाम होता दिख रहा है कि कमाई के दूसरे रास्ते बंद हैं इसलिए पेट्रोल डीजल और एल्कोहल से आनेवाला टैक्स ही केंद्र और राज्य सरकारों के इंजन चला रहा है। जीएसटी खाते में हर महीने एक लाख करोड़ से ऊपर की रक़म आ ही रही है।
उधर डायरेक्ट टैक्स वसूली के ताज़ा आँकड़े भी काफ़ी उत्साहजनक हैं। बजट में सरकार ने इस साल इनकम टैक्स और दूसरे प्रत्यक्ष करों के रास्ते 11.08 ट्रिलियन यानी लाख करोड़ रुपए की कमाई का लक्ष्य रखा था। सोलह सितंबर तक ही इसमें से 5.66 लाख करोड़ रुपए की वसूली हो चुकी है। यानी आधा समय बीतने के पहले ही आधे से ज़्यादा रक़म आ चुकी है। यह वसूली कोरोना के पहले वाले साल के इन्हीं महीनों के मुक़ाबले क़रीब अठाईस परसेंट ज़्यादा है और साफ़ तौर पर इकोनॉमी में सुधार का सबूत है।
इस परिस्थिति में केंद्र का यह तर्क तो हजम नहीं ही हो सकता कि उनके पास पेट्रोल डीजल पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की गुंज़ाइश नहीं है। उल्टे उन्हें इसे कम करके राज्यों को भी संकेत देना चाहिए कि वो भी अपने टैक्स घटाएँ और ईंधन सस्ता करें। अब जबकि इकोनॉमी पटरी पर लौटने के संकेत दे रही है। सस्ता ईंधन उसके इंजन को नई रफ्तार देने का काम कर सकता है यह बात सरकारें जितना जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा हो।
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