क्या कोरोना महामारी के समय संकट की आड़ में मज़दूरों का हक़ छीना जा सकता है? क्या जिस समय समाज के वंचित तबक़े को सहारे की ज़रूरत है, उनसे उनकी बची-खुची सुरक्षा भी छीनी जा सकती है?
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने एक अध्यादेश लाकर राज्य के ज़्यादातर श्रम क़ानूनों पर तीन साल के लिए रोक लगा दी है।
क्या कहना है सरकार का?
राज्य सरकार की कैबिनेट ने यह कह कर इस अध्यादेश को मंजूरी दे दी है कि कोरोना की वजह से राज्य की आर्थिक गतिविधियाँ बुरी तरह प्रभावित हुई हैं, लिहाज़ा राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए इसकी ज़रूरत है।
अध्यादेश में कहा गया है कि राज्य में पूंजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए ये बदलाव किए जा रहे हैं। ये बदलाव मौजूदा और नए हर तरह की ईकाइयों पर लागू होंगे।
ऑर्डिनेंस का मतलब?
ये नियम ट्रेड यूनियन, कामकाज में होने वाले विवाद, कामकाज की स्थिति, ठेका समेत तमाम मुद्दों पर लागू होंगे। उत्तर प्रदेश की देखादेखी मध्य प्रदेश में भी श्रम क़ानूनों इसी तरह के बदलाव लाए गए हैं।
मध्य प्रदेश में कामकाज की अविध 8 घंटे से बढ़ा कर 12 घंटे करने का प्रस्ताव है। यह व्यवस्था भी कर दी गई है कि किसी भी कर्मचारी को मनमाफ़िक तरीके से नौकरी पर रखा जा सकता है, उसे हटाया भी जा सकता है।
बर्बरतापूर्ण!
श्रमिक संगठनों और वामपंथी पार्टियों ने इसकी तीखी आलोचना की है। भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े सेंटर फ़ॉर इंडियन ट्रेड यूनियन यानी सीटू ने कहा इन बदलावों को बर्बरतापूर्ण क़रार दिया। सीटू ने कहा कि 'मज़दूरों पर ग़ुलामी वाली शर्ते थोपी जा रही हैं, देश पूंजीपतियों के बड़े व्यापारिक घरानों की लूट का शिकार है।'
सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा, 'श्रमिकों को बर्बाद करने का मतलब है आर्थिक विकास को नष्ट करना। भारत को बचाने के लिए बीजेपी के भयानक अजेंडे को रोकना होगा।'
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