भले ही रेल राज्य मंत्री यह कह कर देश की अर्थव्यवस्था को अच्छा बताएँ कि 'रेल-हवाई जहाज़ भरे हुए हैं, शादियाँ हो रही हैं, किसी का कोई काम नहीं रुक रहा है', सच तो यह है कि आर्थिक सुस्ती विकराल रूप ले चुकी है। देश मंदी की ओर तेज़ी से बढ़ रहा है। देशी-विदेशी संस्थाएं और नामी-गिरामी अर्थशास्त्री तो यह कहते ही आ रहे हैं, तमाम इन्डीकेटर इसी ओर इशारा करते हैं। सरकारी आँकड़े भी यही कहते हैं।
एक आर्थिक अख़बार ने रिपोर्ट दी है कि गाँवों में माँग 40 साल के न्यूनतम स्तर पर है। उसने इसके लिए नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (एनएसओ) के ताज़ा आँकड़ों का हवाला दिया है।
इन आँकड़ों के अनुसार गाँवों में जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच खपत में 8.8 प्रतिशत की कमी आई है। यह 1972-73 से अब तक की अधिकतम गिरावट है। यानी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में माँग बीते 40 के न्यूनतम स्तर पर है। यह बात और है कि इसके बावजूद सरकार खुश है और तर्क दे रही है कि किसी का कोई रुक नहीं रहा है।
यह बात अधिक चिंता की इसलिए भी है कि 1.30 अरब जनसंख्या वाली अर्थव्यवस्था की दो-तिहाई आबादी गाँवों में रहती है। शिक्षा, खाद्य, कपड़े और अन्न जैसी चीजों में माँग 20 प्रतिशत कम होने से देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा, यह लाज़िमी है।
सरकार ने सफ़ाई दी है और इस रिपोर्ट पर सवालिया निशान लगाए हैं। सांख्यिकी मंत्रालय के अफ़सर ए. के. मिश्रा ने कहा, 'एनएसओ की रिपोर्ट पर अभी भी काम चल रहा है, यह पूरी तरह पक्की नहीं है और कई अधिकारियों को आँकड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद ही ये आँकड़े पक्के कहे जा सकते हैं।'
इसके पहले इसी साल अक्टूबर में बाज़ार शोध संस्थान नीलसन ने कहा था कि ग्रामीण खपत 7 साल के न्यूनतम स्तर पर है। उसने इसकी वजह किसानों की बदहाली बताई थी।
माँग में गिरावट को रोकने के लिए रिज़र्व बैंक ने लगातार 5 बार ब्याज दरों में कटौती की। पर इसका कोई ख़ास असर नहीं दिखा।
विशेषज्ञों का कहना है कि नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी के प्रभाव से अर्थव्यवस्था अभी नहीं निकल पाई है। एक झटके में 86 प्रतिशत करेंसी नोट बेकार हो गए। हज़ारों छोटे-मोटे व्यवसाय, काम-धंधे बंद हो गए और लाखों लोगों की नौकरी चली गई।
उसके बाद जीएसटी लागू किया गया, जिसका असर भी छोटे-मोटे काम धंधों और व्यापारियों पर पड़ा, वे इस नई कर प्रणाली से अभी भी तालमेल नहीं बैठा पाए हैं।
बदहाल किसान, कम खपत
सितंबर की तिमाही में गाँवों में उपभोक्ता वस्तुओं की खपत सिर्फ 5 प्रतिशत बढ़ी। बीते साल इसी दौरान 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। ज़ाहिर है, इस साल इस दौरान खपत में ज़बरदस्त कमी आई है। इस दौरान शहरों में भी उपभोक्ता वस्तुओं की खपत में कमी आई है। बीते साल जहाँ इस अवधि में शहरों में खपत 14 प्रतिशत बढ़ी थी, इस साल सिर्फ़ 8 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखायी दी।
पूरे देश में बिकने वाले उपभोक्ता वस्तुओं का लगभग 36 प्रतिशत हिस्सा गाँवों में ही बिकता है। इसमें वृद्धि दर शहरों की तुलना में 3 से 5 प्रतिशत ज्यादा रही है। अब पहली बार ऐसा हुआ है कि गाँवों में बिक्री में बढ़ोतरी शहरों की तुलना में कम हुई है।
पैकेज़्ड सामान वाले बदहाल
गाँवों में खपत कम होने का असर डिब्बाबंद सामान बेचने वाली कंपनियों पर भी हो रहा है। बड़ी कंपनियों मसलन, हिन्दुस्तान लीवर, अडानी विलमार को सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ा है।
नीलसन का यह आँकड़ा ऐसे समय आया है, जब तमाम अंतरराष्ट्रीय एजंसियों, मैनेजमेंट कंपनियों और पैसे देने वाली संस्थानों ने कहा है कि भारत में अर्थव्यवस्था फिसल रही है। उन्होंने इस पर चिंता भी जताई है।
लेकिन सरकार लगातार इन तमाम बातों से इनकार करती रही है और कहती रही है कि अर्थव्यवस्था बिल्कुल ठीक है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने पति परकल प्रभाकर को टका सा जवाब देते हुए कह दिया कि सरकार की लोक कल्याण योजनाओं से लाखों लोगों को फ़ायदा हुआ है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'ब्रिक्स' देशों यानी ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के संगठन के सम्मेलन में दो दिन पहले ही दावा किया कि भारत में निवेश की स्थिति सबसे अच्छी है। पर सवाल यह उठता है कि जिस देश की अपनी अर्थव्यवस्था बदहाल हो और माँग-खपत लगातार गिरती जा रही हो, सरकार की प्राथमिकता अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना नहीं हो, वहाँ कौन कंपनी निवेश करने आएगी।
अपनी राय बतायें