सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं

इस बार रिपोर्ट की प्रस्तावना लिखी है नोबल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और एस्थर दूफ्लो ने। उनका कहना है कि सरकारों की नीतियों ने ही गैर बराबरी पर लगाम कसी थी, और नीतियों ने इसे बेलगाम छोड़ दिया है।
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है?
कोई चालीस साल पहले जनकवि अदम गोंडवी ने ये लाइनें लिखी थीं। लेकिन आज भी यह सवाल न सिर्फ़ जस का तस खड़ा है, बल्कि मामला और भी विकट हो गया है। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट या विश्व विषमता रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत उन देशों में से एक है जहां आर्थिक विषमता या गैर बराबरी सबसे ज्यादा हो चुकी है। देश के दस परसेंट अमीरों की सालाना कमाई देश की कुल कमाई का सत्तावन परसेंट हिस्सा है। इनमें भी सिर्फ़ ऊपर के एक परसेंट लोग देश की बाईस फ़ीसदी कमाई पर काबिज हैं जबकि नीचे की आधी आबादी सिर्फ़ तेरह परसेंट कमाई पर ही गुजारा कर रही है। ये आँकड़े थोड़े और साफ़ समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि अगर आप महीने में बयालीस हज़ार रुपए कमाते हैं तो इस देश की अस्सी परसेंट आबादी आपसे नीचे है यानी आप टॉप बीस परसेंट लोगों में शामिल हैं। और बहत्तर हज़ार रुपए कमानेवाले तो दस परसेंट से भी कम हैं। और इन दस परसेंट लोगों की कमाई नीचे की आधी आबादी यानी कम कमाने वाले पचास परसेंट लोगों के मुक़ाबले बीस गुना है।