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राकेश झुनझुनवाला- शेयर बाज़ार का जादूगर!

एक थे राकेश झुनझुनवाला। आज यह लिखना भी कुछ अटपटा लग रहा है और शायद पढ़ना भी लगे, लेकिन अब झुनझुनवाला को ऐसे ही याद किया जायेगा।

अभी एक हफ्ता ही बीता है बिग बुल, भारत के वॉरेन बफेट, और करोड़ों लोगों को भारत में शेयर बाज़ार की तरफ़ खींचने वाले अरबपति निवेशक राकेश झुनझुनवाला को यह दुनिया छोड़े हुए। शायद इसलिए शोक संतप्त परिवार को संवेदना और मृतात्मा को श्रद्धांजलि देने पर जोर है। अपने संस्मरण गिनाते हुए लोग बता रहे हैं कि कैसे राकेश कंपनियाँ चुनते थे, कैसे निवेश का फ़ैसला करते थे और कैसे वो भारत की तरक्की पर अटूट भरोसा रखते थे। 1986 में पाँच हज़ार रुपए से शुरू करके 2022 में पैंतालीस हज़ार करोड़ रुपए तक पहुँचने के सफर में इस तरह की यादों की गुंजाइश भी बहुत है। कब उन्होंने किस कंपनी में पैसा लगाया और वो कितना बन गया। इतनी कंपनियाँ हैं और इतने किस्से हैं कि एक लंबी दास्तान बन जाती है। सुनने वाले हिसाब लगा लगा कर खुश होते हैं, या अफसोस करते हैं कि काश हमें भी उस वक्त ही पता लग गया होता!

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पहली नज़र में आप कह सकते हैं कि सिर्फ बासठ साल की ज़िंदगी में राकेश झुनझुनवाला ने जो दौलत, जो शोहरत और जो इज्जत कमाई वो कम लोगों को नसीब होती है। ज़िंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए, इसकी जीती जागती मिसाल भी मान सकते हैं उन्हें। लेकिन मुझे लगता है कि राकेश झुनझुनवाला का असली मूल्यांकन करना अभी बहुत मुश्किल है। जैसे जैसे वक्त बीतेगा, उनकी असली कीमत समझ आएगी। शायद बीस, पचास या सौ साल बाद लोगों को समझ आए कि राकेश झुनझुनवाला होने का मतलब क्या था। खुद के लिए भी, शेयर बाज़ार के लिए भी, और उन लाखों या करोड़ों लोगों के लिए भी जिन्हें राकेश में उम्मीद की एक किरण नज़र आती थी।

ऐसा नहीं है कि राकेश झुनझुनवाला ने भारत में शेयर बाज़ार की बुनियाद डाली थी। ऐसा भी नहीं है कि बाज़ार की ताकत को पहचानने वाले वो पहले इंसान थे। फिर क्या था जो राकेश को खास बनाता था? 

 

भारत के शेयर बाज़ार की ताकत का अंदाजा लगाने वाले और उसे दुनिया को दिखाने वाले दो बड़े उद्योगपति थे। पहले तो टाटा जिन्होंने 1907 में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी यानी टिस्को को शेयर बाज़ार में उतारा। यही कंपनी आज टाटा स्टील कहलाती है। और दूसरे रिलायंस के संस्थापक धीरज लाल हीराचंद अंबानी यानी धीरूभाई। 

टाटा और धीरूभाई- दोनों ने अपने अपने वक्त पर भारत के शेयर बाज़ार में भरोसा दिखाया और उसके बाद अपनी कंपनियों के काम से निवेशकों को इतना मुनाफा कमाकर दिया कि उससे लोगों को न सिर्फ इन पर बल्कि शेयर बाज़ार पर भी भरोसा होने लगा।

टाटा घराने के अधिकृत जीवनी लेखक आर एम लाला उस वक्त का जिक्र करते हैं जब जमशेदजी के सपनों के हिसाब से इस्पात कारखाने की योजना बन चुकी थी और जगह भी तय हो चुकी थी। -“टाटा ने बियाबान जंगल को जीत लिया था, अब विजय पानी थी पूंजी की दुनिया पर। शुरू शुरू में सुझाव दिया गया कि परियोजना की विशालता को देखते हुए पूंजी लंदन के मुद्रा बाज़ार से लानी होगी। 1907 में लंदन बाज़ार का भी खराब दौर चल रहा था। और लंदन के पूँजी लगानेवाले पूंजी लगाने के साथ अपना नियंत्रण भी चाहते थे।

कुछ कमज़ोर दिलवालों का ख्याल था कि भारत इतनी ज़्यादा पूंजी जुटाने की स्थिति में नहीं होगा। टाटा ने भारतीय शेयर बाज़ार में ही उतरना तय किया। डेढ़ करोड़ रुपए के साधारण शेयर, 75 लाख के प्रेफरेंशियल शेयर और सात लाख रुपए के डेफर्ड शेयरों के ज़रिए 2.32 करोड़ रुपये के शेयर के लिए प्रॉस्पेक्टस जारी हुआ। सुबह से देर रात तक बंबई में लोग टाटा के दफ्तर को घेरे रहते थे। तीन हफ्ते के भीतर आठ हज़ार लोगों ने पूंजी लगाई। भारत के इस पहले महान उद्यम के लिए उसकी छिपी संपदा बाहर आ गई थी।”

 

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इस कंपनी में टाटा की हिस्सेदारी क़रीब पच्चीस लाख रुपए या ग्यारह परसेंट की थी। आज सवा दो करोड़ की यह रक़म मामूली लगती है। लेकिन तब याद करना चाहिए कि इस रकम से खड़ी हुई कंपनी अभी कुछ साल पहले रिलायंस के नंबर वन होने तक भारत की सबसे बड़ी निजी कंपनी थी।

यह भारत के शेयर बाज़ार की ताकत का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन भी था और समृद्धि के एक लंबे सफर की शुरुआत भी। लेकिन देश के आम आदमी तक शेयर बाज़ार की ख़बर पंहुचाने में बड़ी भूमिका निभाई रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ धीरूभाई अंबानी ने। 1977 में जब उन्होंने रिलायंस के शेयर जारी किए तब शायद ही बाज़ार से जुड़े लोगों के अलावा किसी ने भी उन पर ध्यान दिया हो। लेकिन दस साल बाद यह बात पूरे देश को पता चल चुकी थी कि रिलायंस में जिसने भी एक हज़ार रुपए लगाए थे उसकी रकम दस साल में सतहत्तर हज़ार हो चुकी है। इसके बाद तो बाज़ार में जैसे रिलायंस का सिक्का ही चलने लगा। जब भी उसे पैसे की ज़रूरत पड़ती थी कंपनी शेयर बाज़ार का रुख करती थी और लोग उसे हाथोंहाथ लेते रहे।

रफ्तार कम ज्यादा होती रही, मगर सिलसिला अगली पीढ़ी में भी चल रहा है। 

शेयर बाज़ार से पैसा उठाने और फिर अपने निवेशकों को ज़बर्दस्त कमाई करवाने के लिए कई कंपनियां जानी जाती हैं। लेकिन इस बाज़ार में ऐसे हुनरमंद लोग बहुत कम हैं जो सही वक्त पर कंपनी के भविष्य की तस्वीर पढ़ लेते हैं और उसमें पैसा लगाकर तगड़ी कमाई करते हैं।

जब भी ऐसा कोई जादूगर सामने आता है तो फिर लाखों लोग उसके पीछे लग जाते हैं। टिप मांगने के लिए यानी कोई ऐसा शेयर जानने के लिये जो उनकी किस्मत का ताला खोल सके। 

अपने वक्त में हर्षद मेहता ऐसा ही एक जादूगर था। जिस शेयर पर हाथ लगा दे वो आसमान की तरफ भागने लगता था। कहानी उसकी भी यूं ही थी। 1980 के दशक में छोटी रक़म से शुरू किया और 1992 तक यानी अब से तीस साल पहले साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपए से ज्यादा का पोर्टफोलियो खड़ा कर लिया। लेकिन इसके लिए उसने कायदे कानून की कमियों का फायदा भी उठाया और फिर जालसाज़ी का सहारा भी लिया। मगर हर्षद का खेल खुला तो सारा जादू टूट गया और न सिर्फ हर्षद की संपत्ति हवा हुई बल्कि सेंसेक्स को भी तगड़ा झटका लगा और लाखों लोग बाज़ार में हाथ जलाकर बिलकुल वैसे ही दूर जा बैठे जैसे दूध का जला छाछ पीने से डरता है।

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हालाँकि उसके बाद कायदे कानून में तमाम बदलाव हुए हैं। नियम सख्त किए गए हैं और शेयर खरीदने बेचने की प्रक्रिया आसान और पारदर्शी बना दी गई है। फिर भी बहुत लंबा समय लगा एक बार फिर लोगों का भरोसा जीतने में। और इस बीच राकेश झुनझुनवाला ने अपना एक अलग कद बना लिया।

इसी बाज़ार में राकेश के बराबर ही संपत्ति बनानेवाले रमेश दमानी जैसे निवेशक भी मौजूद हैं और राधाकृष्ण दमानी भी जिन्हें राकेश अपना गुरु मानते थे। गुरू हैं भी वो, तभी तो उनकी संपत्ति डेढ़ लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा की है। डीमार्ट स्टोर के मालिक या प्रोमोटर होने के अलावा वो भी अच्छी कंपनियों को पहचान कर उनमें लंबे समय का निवेश करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी अपनी कंपनी को भी देख लें तो समझा जा सकता है कि कैसा काम करने वाली कंपनी पैसा लगाने के लिए अच्छी हो सकती है।

हालाँकि राकेश झुनझुनवाला लंबे निवेश, रिसर्च और धीरज के लिए मशहूर हैं। लेकिन ट्रेडिंग में भी उनका उतना ही दिल लगता था और ज़रूरत पड़ने पर वो कर्ज लेकर यानी मार्जिन पर भी बाज़ार में पैसा लगाने से नहीं कतराते थे। वक्त कम हो और कमाई बढ़ाने की इच्छा ज्यादा तो फिर जोखिम लेना ही पड़ता है।

rakesh jhunjhunwala portfolio and share market profiteer  - Satya Hindi
वॉरेन बफेट

लेकिन दुनिया के सबसे मशहूर निवेशक वॉरेन बफेट की ही तरह राकेश झुनझुनवाला भी इस बात में यकीन रखते थे कि अगर समाज के हर हिस्से को तरक्की का लाभ नहीं पहुंचा तो मुश्किल होगी। खुद उन्होंने अपनी संपत्ति का लगभग पच्चीस परसेंट हिस्सा समाज कार्यों के नाम कर रखा था। लेकिन इससे बड़ी बात राकेश का यह मानना था कि अगर पूरा देश तरक़्क़ी करेगा तभी सब लोगों की ज़िंदगी बेहतर हो पाएगी। तरक्की का रास्ता रोककर मौजूदा संसाधन ही बांटने का फ़ार्मूला लंबे समय तक चल नहीं सकता। उन्हें भारत की अर्थव्यवस्था पर और भारत की तरक्की की संभावनाओं पर बहुत ज्यादा यकीन था। इसीलिए वो लगातार कहा करते थे कि भारत एक लॉंग टर्म बुल रन में है, यानी यहां लंबे दौर में तेज़ी ही तेज़ी रहनी है। बाज़ार के जोखिम राकेश ने खूब उठाये और खुद अपनी ज़िंदगी में जो जोखिम लिए उनकी क़ीमत उन्हें अपनी जान से ही चुकानी पड़ी।

 

लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि राकेश झुनझुनवाला भारत में शेयर बाज़ार के, वेल्थ क्रिएशन के या समृद्धि के ब्रांड एंबेसडर बन चुके थे और आने वाला वक्त उनकी इस भूमिका को और भी गहराई से रेखांकित करेगा।

 

(साभार - हिंदुस्तान)

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आलोक जोशी
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