भारत के बैंकिंग क़ारोबार में बड़ी खलबली की तैयारी है। रिज़र्व बैंक के एक समूह ने राय दी है कि देश के बड़े उद्योग घरानों को बैंकिंग लाइसेंस दिए जा सकते हैं। यानी अब टाटा, बिड़ला, अंबानी, अडानी और ऐसे ही अनेक दूसरे बड़े सेठ अपने-अपने बैंक खोल सकते हैं। यही नहीं, रिज़र्व बैंक के इस वर्किंग ग्रुप ने जो सुझाव दिए हैं वो मान लिए गए तो फिर बजाज फ़ाइनेंस, एलएंडटी फ़ाइनेंशियल सर्विसेज़ या महिंद्रा समूह की एमएंडएम फ़ाइनेंशियल जैसी एनबीएफ़सी कंपनियाँ सीधे बैंक में तब्दील हो सकेंगी। इनके अलावा भी अनेक एनबीएफ़सी कंपनियों के बैंक बनने का रास्ता खुल जाएगा जिनकी कुल संपत्ति पचास हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा हो और जिन्हें दस साल का अनुभव हो। रिज़र्व बैंक ने इस रिपोर्ट पर सुझाव माँगे हैं जो पंद्रह जनवरी तक दिए जा सकते हैं और उसके बाद बैंक अपना फ़ैसला करेगा।
रिपोर्ट को लागू करने के लिए बैंकिंग रेगुलेशन क़ानून में बड़े बदलाव करने होंगे। लेकिन उससे पहले इस विवादास्पद प्रस्ताव पर तीखी बहस होने की पूरी आशंका है। ख़बर सामने आने के एक ही दिन बाद पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन, पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य और एस एस मूंदड़ा के अलावा अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ने भी इस प्रस्ताव पर सवाल उठा दिए हैं। रघुराम राजन और विरल आचार्य ने तो सोशल नेटवर्किंग साइट लिंक्डिन पर बाकायदा एक पोस्ट लिख दी है। उन्होंने पूछा है कि यह फ़ैसला इस वक़्त करने का औचित्य क्या है। “क्या हमें ऐसा कुछ नया पता चल गया है जिसके बाद हम बैंकिंग कारोबार में बड़े उद्योग घरानों की भूमिका से जुड़े सारे पुराने एहतियात ताक पर रख सकते हैं? हम कहते हैं, नहीं। उल्टे इस वक़्त यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि बैंकिंग में कंपनियों की भूमिका पर लगाई गई जाँची परखी पाबंदियों को क़ायम रखा जाए।’
राजन और आचार्य का कहना है कि बड़े बिजनेस घरानों को पूंजी की ज़रूरत पड़ती रहती है और अगर उनका अपना बैंक भी हो तो इसका इंतज़ाम करना आसान हो जाता है। वह कहते हैं कि ऐसे लेनदेन के रिश्तों का इतिहास बहुत विनाशकारी रहा है। आप उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं कि कर्ज वापस आएगा जब देनदार ही बैंक का मालिक है?
जानकार इस प्रस्ताव पर सवाल उठा रहे हैं, इसपर हैरानी नहीं होनी चाहिए। हैरानी की बात तो यही है कि इस वक़्त ऐसा प्रस्ताव आया क्यों?
पिछले ही साल भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की स्वर्ण जयंती मनाई गई थी। 1969 में जब इंदिरा गाँधी सरकार ने चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तब इन चौदह बड़े बैंकों के पास देश की जनता का 85 प्रतिशत से ज़्यादा पैसा जमा था। सरकार को एक डर था और एक शिकायत थी। डर यह था कि बड़े सेठों के यह बैंक जनता की जमा की गई रक़म उन्हीं सेठों के दूसरे क़ारोबारों में लगाने के लिए बेरोकटोक कर्ज दे सकते थे और अगर धंधा सही नहीं चला तो पैसा डूबने का ख़तरा था। और शिकायत यह थी कि सेठों के कब्जे वाले ये बैंक सरकार की विकास योजनाओं में खुले दिल से भागीदार नहीं बन रहे थे और ख़ासकर गाँवों में और ग़रीब लोगों को कर्ज देने में कंजूसी बरतते थे।
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हालाँकि आज़ादी के बाद 1949 में ही सरकार बैंकिंग क़ारोबार को नियंत्रित करने का क़ानून ले आई थी। लेकिन इसके बावजूद 1951 से 1968 तक के आँकड़े चिंताजनक थे। इस दौरान बैंकों से निजी व्यापार और बड़े उद्योगों को दिया जानेवाला कर्ज क़रीब-क़रीब दोगुना हो गया था। बैंकों से दिए जानेवाले कुल कर्ज में इसका हिस्सा 34% से बढ़कर इन्हीं सत्रह सालों में 68% हो गया। जबकि खेती को मिला सिर्फ़ दो परसेंट। सरकार का तर्क था कि बैंक अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने में नाकाम रहे हैं और इसकी सज़ा के तौर पर ही उसने इन बैंकों की कमान अपने हाथ में ले ली। उसके बाद भी 1980 में छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।
आज रघुराम राजन और दूसरे विद्वान जो सवाल उठा रहे हैं उन्हें हवा में उड़ाने से पहले एक और बात याद कर लेनी चाहिए। सरकार ने जब से दोबारा प्राइवेट बैंकों को लाइसेंस देने शुरू किए हैं तभी से यह सवाल चल रहा है कि बड़े व्यावसायिक घरानों को बैंकों से दूर रखना चाहिए या नहीं। पिछली बार जब रिज़र्व बैंक ने लाइसेंस के लिए अर्जियाँ माँगी थीं तब भी शर्तों में काफ़ी ढील दी जा चुकी थी और सत्ताईस बड़े समूहों ने लाइसेंस के लिए अर्जी लगाई थी। इनमें टाटा, बिड़ला, महिंद्रा, बजाज और एलएंडटी शामिल थे। बाद में इनमें से कई अर्जियाँ वापस ले ली गईं। और 2014 में आईडीएफ़सी और बंधन बैंक को लाइसेंस मिले थे।
लेकिन इससे कुछ साल पहले दो ऐसे उद्योगपति अपने बैंक खोलने की राह पर काफ़ी आगे बढ़ चुके दिख रहे थे जो आज दिवालिया हो चुके हैं। इनमें से एक हैं अनिल अंबानी और दूसरे वीडियोकॉन समूह के वेणुगोपाल धूत।
अनिल अंबानी अपनी फ़ाइनेंस कंपनी रिलायंस कैपिटल को बैंक बनाने का सपना न सिर्फ़ देख रहे थे बल्कि अपनी कंपनी की सालाना बैठक में इसका एलान भी कर चुके थे। उधर वेणुगोपाल धूत रिज़र्व बैंक के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल थे। दोनों की मौजूदा हालत देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि अगर इनके पास अपने अपने बैंक होते तो उनका क्या हाल होता।
और यह सवाल इसलिए भी बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है कि आज़ादी के बाद से अब तक भारत में कोई भी शिड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक डूबा नहीं है। खातेदारों की रक्षा के लिए सरकार इन बैंकों की तारणहार बनती है। ग्लोबल ट्रस्ट बैंक हो, यस बैंक हो या लक्ष्मी विलास बैंक, इन्हें किसी न किसी तरह बचाने का इंतज़ाम करना सरकार की ही ज़िम्मेदारी बन जाती है। यानी अंत में खातेदारों की मदद के नाम पर भरपाई की ज़िम्मेदारी सरकारी खजाने या टैक्सपेयर की ही होती है।
इसीलिए ज़रूरी है न सिर्फ़ बैंक से जुड़े लोग, बैंकों के कर्मचारी और अफ़सर या खातेदार, बल्कि देश के सभी लोग इस मामले की गंभीरता को समझें, रघुराम राजन, विरल आचार्य, एस एस मूंदड़ा जैसे विद्वानों के तर्कों पर नज़र डालें और सरकार पर दबाव बनाएँ कि इस मामले में दुर्घटना से देर भली वाली नीति ही बेहतर है।
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