यह अजीब विडंबना है कि भारत में पेट्रोल और डीजल की क़ीमतें ऐसे समय में रिकॉर्ड ऊँचाई पर है, जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर है। बीजेपी के सत्ता में आने के एक साल पहले यानी 2012-13 में कच्चे तेल की कीमत जहां 110 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गई थी, वह उनके सत्ता में आने के बाद ही गिरने लगी और कोरोना काल में वह 25 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गई।
हद तो तब हो गई जब एक दिन तेल भंडारण में समस्या होने के कारण न्यूयॉर्क एक्सचेंज में किसी कंपनी ने कहा कि वह मुफ़्त तेल देने को तैयार है, इतना ही नहीं, वह तेल ले जाने का खर्च भी देगी। बस, कोई वह तेल ले जाए। लेकिन उस समय भी मोदी सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती ही की थी, कीमतें उस समय भी बढी थीं।
ऐसा क्यों हो रहा है, सवाल यह है। इसकी वजह यह है कि केंद्र सरकार सब्सिडी में तो कटौती करती ही है, वह पेट्रोल-डीज़ल पर लगने वाले उत्पाद कर में भी लगातार वृद्धि करती जाती है। यह उत्पाद कर केंद्र की कमाई का ज़रिया बन चुका है, तमाम राज्य सरकारें अपनी इच्छा से मूल्य संवर्द्धित कर यानी वीएटी में भी इज़ाफ़ा करती रहती हैं।
इसे हम थोड़े से तुलनात्मक अध्ययन से बेहतर समझ सकते हैं।
मई, 2014 में पेट्रोल पर उत्पाद कर 9.48 रुपये प्रति लीटर थी, वह अब 32.98 रुपए है।
मई, 2014 में पेट्रोल पर एक्साइज़ ड्यूटी 3.56 रुपए थी, जो अब 31.83 रुपए प्रति लीटर है।
यानी, पेट्रोल पर उत्पाद कर में 348 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गई है।
उत्पाद कर ऐसी कमाई है, जो सरकार को सीधे तेल साफ करने वाली कंपनियों से मिलती है, उसे कुछ करना नहीं होता है।
सरकारी नियंत्रण हटा
मनमोहन सिंह सरकार ने 25 जून 2010 को पेट्रोल की कीमत से सरकारी नियंत्रण हटा लिया, यानी उसकी कीमत सरकार तय नहीं करेगी, वह बाज़ार के मांग-खपत सिद्धान्त से तय होगी। नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के तुरन्त बाद 19 अक्टूबर, 2014 को डीज़ल की कीमत को नियंत्रण-मुक्त कर दिया।
मार्च 2014 में कच्चे तेल की कीमत 107.14 डॉलर यानी 6,655.54 रुपए प्रति बैरल थी, वह अक्टूबर 2020 में 41.53 डॉलर यानी 3,050.38 रुपए प्रति बैरल हो गई। लेकिन 15 मार्च 2014 को पेट्रोल की कीमत 73.20 रुपए और डीज़ल की कीमत 55.48 रुपए प्रति लीटर हो गई। 16 दिसंबर 2020 को पेट्रोल 90.34 रुपए और डीज़ल 80.51 रुपए प्रति लीटर तक बिक रहा था।
इतना टैक्स?
एक लीटर पेट्रोल पर 32.98 रुपए केंद्रीय उत्पाद कर और 19.32 रुपए मूल्य संवर्द्धित कर यानी वीएटी जुड़ता है। यह बेस प्राइस यानी मूल कीमत का 70 प्रतिशत है। वीएटी राज्य सरकारें लगाती हैं और यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है।
इसी तरह डीज़ल पर केंद्रीय उत्पाद कर 31.83 रुपए और राज्य सरकार का वैल्यू एडेड टैक्स 10.85 रुपए प्रति लीटर लगता है। केंद्रीय कर बेस प्राइस का 111 प्रतिशत और राज्य का कर उसका 37.9 प्रतिशत है।
साफ है, पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें बढने की मूल वजह उस पर लगने वाले केंद्रीय और राज्य सरकार के टैक्स हैं।
सरकार की कमाई का ज़रिया
पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनलिसिस सेल (पीपीएसी) के अनुसार, 2019-2020 के दौरान केंद्र सरकार को पेट्रोल-डीज़ल की बिक्री से 2.23 लाख करोड़ रुपए का टैक्स मिला। वित्तीय वर्ष 2020-21 के बजट में 2.67 लाख करोड़ रुपए बतौर उत्पाद कर मिलने की संभावना जताई गई है।
मौजूदा समय में पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद कर 32.98 रुपए प्रति लीटर है, जो मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में 9.48 रुपए था। इसी तरह डीजल पर यह फिलहाल 31.83 रुपए है जो पिछली सरकार में 3.56 रुपए प्रति लीटर था।
सेस से चलती केंद्रीय परियोजनाएं
केंद्र सरकार सिर्फ उत्पाद कर ही नहीं लादती है, यह इसकी कीमत इस तरह बढ़ाती है कि सेस भी बढ़ जाता है। यह सेस पूरी तरह केंद्र सरकार को मिलता है। इसका इस्तेमाल केंद्रीय परियोजनाओं में होता है।
क्यों और कैसे बढ़ती हैं पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें? क्या कहना है विशेषज्ञों का? देखें यह वीडियो।
सवाल यह उठता है कि ईंधन का भाव पूरी अर्थव्यवस्था को संचालित करता है और यह आम आदमी की जेब पर सीधे और परोक्ष, दोनों रूप से चोट करता है। ऐसे में यदि सरकार इन कीमतों को अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमत पर भी छोड़ देती तो भी आम आदमी को कम कीमत चुकानी होती, यानी सरकार कुछ नहीं करती तो भी लोगों को राहत मिलती।
लेकिन सरकार ने इसे कमाई का जरिया बना लिया है। वह केंद्रीय उत्पाद कर बढ़ाती रहती है, राज्य सरकारें भी वीएटी बढ़ाती रहती हैं। नतीजा यह होता है कि सरकार को जब भी पैसे की किल्लत होती है, वह पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढा देती है।
यह साफ है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें कृत्रिम है, सरकार की मनमर्जी पर है और सरकार के पैसे की कमी के मुताबिक ही है। यह अर्थव्यवस्था नहीं, सरकार की नाकामी से प्रभावित है।
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