रतन टाटा का दाँव उलटा पड़ गया है। नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्राइब्यूनल या एनसीएलएटी (एनक्लैट) ने साइरस मिस्त्री को दोबारा टाटा संस का चेयरमैन बनाने का फ़ैसला सुना दिया है। कंपनी विवादों में देश की सबसे ऊँची पंचायत ने यह कहा है कि जिस बोर्ड बैठक में मिस्त्री को हटाने का फ़ैसला हुआ वह बैठक ही ग़ैर-क़ानूनी थी। यही नहीं, उसने टाटा संस के चेयरमैन पद पर एन चंद्रशेखरन की नियुक्ति को भी अवैध क़रार दिया है।
एनक्लैट में दो जजों की जिस बेंच ने यह फ़ैसला सुनाया उसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति एस. जे. मुखोपाध्याय हैं। उन्होंने टाटा संस को पब्लिक कंपनी से प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में बदलने का प्रस्ताव भी रद्द कर दिया है।
टाटा संस वह कंपनी है जो टाटा समूह के पूरे क़ारोबार की सबसे बड़ी साझीदार या मालिक है। इसके शेयर ज़्यादातर टाटा समूह से जुड़े ट्रस्टों के पास हैं। लेकिन साइरस मिस्त्री का खानदान इस कंपनी का सबसे बड़ा निजी शेयर होल्डर रहा है। शापुरजी पालनजी मिस्त्री ने वे शेयर ख़रीदे थे जो अब उनके बेटे और पोतों के पास हैं। रतन टाटा के बाद 2012 में कंपनी और टाटा समूह के चेयरमैन बने साइरस मिस्त्री को अक्टूबर 2016 में एक दिन अचानक बोर्ड मीटिंग बुलाकर पद से हटा दिया गया था।
इस मसले पर कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल (एनसीएलटी) की मुंबई बेंच ने साइरस की अपील खारिज कर दी थी। उसके बाद पिछले साल अगस्त में उन्होंने एनक्लैट में अपील की। मिस्त्री की अपील का आधार ही था कि कंपनी को पब्लिक से प्राइवेट में बदलने का काम उनके साथ धोखाधड़ी है और क़ानूनन ऐसा नहीं हो सकता।
इस मसले पर साइरस ने रतन टाटा, टाटा संस और अन्य कई लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा किया था। एनसीएलटी की मुंबई बेंच ने फ़ैसला सुनाया था कि कंपनी के बोर्ड को साइरस को हटाने का पूरा अधिकार था और कंपनी को पब्लिक से प्राइवेट में बदलने में भी कोई हर्ज नहीं है। इसके बाद साइरस की अपील पर एनक्लैट में लंबी क़ानूनी बहस चली और जुलाई में इस पंचाट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित कर लिया था जो बुधवार को सुनाया गया। एनक्लैट ने यह मामला सुनवाई के लिए दाखिल करते समय ही टाटा समूह को यह निर्देश भी दिया था कि वह साइरस मिस्त्री पर यह दबाव नहीं बना सकता कि वह टाटा संस में अपनी हिस्सेदारी बेच दें।
अब टाटा समूह, रतन टाटा, एन चंद्रशेखरन और इस मसले से जुड़े बहुत से लोगों के लिए साख का संकट खड़ा हो गया है। ज़ाहिर है, उनके पास सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला है। हो सकता है कि वे इस फ़ैसले के उलट फ़ैसला लाने में सफल हो जाएँ।
लेकिन साइरस मिस्त्री जो साबित करना चाहते थे, वह अब साबित हो चुका है। जमशेद जी टाटा ने जिस समूह की नींव डाली थी और उसे जिन आदर्शों के साथ चलाने का सपना देखा था, वह बिखर चुका है या बिखर रहा है। याद रखना चाहिए कि जेआरडी के बाद जब रतन टाटा इस समूह के चेयरमैन बने थे तब भी यहाँ भारी भूकंप आया था। अलग-अलग कंपनियों में वर्षों से जमे हुए छत्रपों को काफ़ी रुसवाई के साथ विदा किया गया था। और उसके बाद ग्रुप के चेयरमैन ही हर कंपनी के चेयरमैन भी बन गए। इसके लिए एक नियम बनाया गया था कि चेयरमैन के रिटायरमेंट की उम्र तय होगी।
और फिर रतन टाटा की भी वह उम्र आई। पहले तो बोर्ड ने उन्हें एक्सटेंशन दिया। मगर एक दिन रतन टाटा ने अपने रिटायरमेंट की तारीख़ का एलान कर दिया और नए चेयरमैन की खोज शुरू हो गई। साइरस के पक्ष में बड़ा तर्क तो यही था कि उनके परिवार के पास टाटा संस में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है। रतन टाटा को और कोई मिला नहीं और तय तारीख़ को रिटायर होने का वचन निभाने के लिए अंत में उन्होंने साइरस को चेयरमैन बना दिया। यह 2012 की बात है। लेकिन कुछ समय में ही लगने लगा था कि सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है।
क्या चाहते थे रतन टाटा?
चार साल बाद यह बात साबित भी हो गई कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है जब अचानक साइरस को हटाने का एलान हुआ। उनपर जो आरोप लगाए गए, अनौपचारिक माध्यमों से, उनसे साफ़ था कि रिटायर होने के बाद भी रतन टाटा समूह की कमान छोड़ने के मूड में नहीं थे और उन्हें इस बात का शक था कि साइरस उनके नियंत्रण में नहीं हैं। इसी का नतीजा था वह बोर्ड बैठक जिसे एनक्लैट ने ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिया है। इस बार तैयारी भी पूरी थी। टाटा ने अपने समूह की सबसे शानदार कंपनी टीसीएस के मुखिया चंद्रा या एन चंद्रशेखरन का नाम भी आनन-फानन में फ़ाइनल कर दिया। चंद्रा एक शानदार प्रोफ़ेशनल हैं और शायद इस पद के लिए एकदम सही उम्मीदवार भी। लेकिन सवाल है कि वह तो समूह में पहले से मौजूद थे। उनकी कंपनी सफलता के झंडे गाड़ चुकी थी। फिर पहली बार में वह नज़र क्यों नहीं आए? क्यों साइरस को ज़बरदस्ती इस जंजाल में फँसाया गया?
ध्यान रखिए कि टाटा समूह का चेयरमैन बनने के साथ ही साइरस ने अपने पिता के यानी परिवार के क़ारोबार से ख़ुद को पूरी तरह अलग कर लिया ताकि कोई क़ारोबारी विवाद खड़ा न हो। अब जो रतन टाटा, टाटा संस और उनके साथियों ने किया उसके बाद वह घर के रहे न घाट के। और साख को जो बट्टा लगा वह अलग।
तो तब से अब तक साइरस जो लड़ाई लड़ रहे थे वह कुर्सी वापस पाने से ज़्यादा अपनी साख वापस पाने की लड़ाई थी जिसमें आज वह जीत गए हैं। अब सोचना रतन टाटा को है कि उनकी साख का क्या हुआ, क्या होगा?
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