कोरोना लॉकडाउन की वजह से देश में करोड़ों लोगों की रोज-रोटी छिनी, इसमें असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की तादाद सबसे ज़्यादा है। पर ऐसा नहीं है कि इसकी मार सिर्फ़ उन्हीं पर पड़ी है। पढ़े-लिखे, एअर कंडीशन्ड ऑफ़िसों में काम करने वाले लोगों की भी नौकरी गई है। इसमे वे लोग भी शामिल हैं जो इंजीनियर हैं, एमबीए हैं, जिन्होंने संघर्ष कर गाँव की ग़रीबी से निजात पाई और शहरों में ऊँची और बड़ी नौकरियां हासिल करने में कामयाब रहे। ऐसे लोग मनरेगा के तहत काम कर रहे हैं। इंजीनयरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई किए हुए लोग गांवों में मिट्टी काट रहे हैं, नहर बना रहे हैं।
जून की तिमाही में भारत में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में शून्य से लगभग 24 प्रतिशत नीचे विकास दर दर्ज किया गया। इस एक आँकड़े से देश की आर्थिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।
12 करोड़ बेरोज़गार
वॉशिंगटन पोस्ट ने एक खबर में भारत के व्हाइट कॉलर जॉब करने वालों की स्थिति पर रोशनी डालते हुए कहा है कि कोरोना लॉकडाउन की वजह से 12 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई। इसमें अधिकतर लोग असंगठित क्षेत्र के हैं। पर शहरों में अच्छे वेतन पर काम करने वाले लोग भी इसमें शामिल हैं। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई ने माना है कि अप्रैल-अगस्त के बीच 2.10 करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए। इसमें सबसे ज़्यादा मार पेशेवर काम करने वालों पर पड़ी है, जिसमें शिक्षक, अकाउंटेन्ट, इंजीनियर वगैरह हैं।
भारत में 50 लाख से अधिक लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं। इसमें रोज नए लोग जुड़ते जा रहे हैं, संख्या बढ़ती जा रही है।
मनरेगा का सहारा
शहरों में नौकरी जाने और रोज़गार का दूसरा कोई उपाय नहीं होने के कारण ये पढ़े लिखे लोग अपने गाँवों की ओर लौट रहे हैं। उनके गाँवों में मनरेगा के तहत दिहाड़ी मिल जाती है। वे यह काम भी करने को तैयार हैं, क्योंकि दूसरा कोई काम नहीं है।
कर्नाटक के बीदर ज़िले में मनरेगा के तहत काम करने वालों में 11,000 लोग ऐसे हैं जिनके पास विश्वविद्यालय की डिग्री है यानी वे ग्रैजुएट हैं या उससे भी अधिक पढ़े हुए हैं। वे मिट्टी काट रहे हैं, ढो रहे हैं, नहर खोद रहे हैं, सड़क बना रहे हैं, पौधे लगा रहे हैं, झील या तालाब साफ कर रहे हैं।
बीदर ज़िले में मनरेगा का काम देखने वाले ज्ञानेंद्र कुमार गंगवार ने वॉशिंगटन पोस्ट से कहा, 'मनरेगा के तहत काम माँगने वालों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। हमें इस पर दुख है कि हम उनकी योग्यता के मुताबिक़ उन्हें काम नहीं दे पा रहे हैं।'
मनरेगा में एमबीए
ऐसे ही लोगो में शामिल हैं ईरप्पा बावजे जो बीदर ज़िले के कमठाना गाँव के रहने वाले हैं। कड़े संघर्ष के बाद उन्होंने इंजीनियरिेंग में दाखिला लिया, पढ़ाई पूरी की और उन्हें मैनेजर के पद पर नौकरी भी मिल गई। उस कंपनी का कारखाना बंद हो गया, उनकी नौकरी चली गई। एअर कंडीशन्ड कमरे में बैठ कर फाइलों में गुम प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने वाले ईरप्पा अपने गाँव लौट आए। उन्हें मनरेगा में काम मिल गया, वे गाँव में ही गड्ढे खोदने का काम करते हैं।
इंजीनियर बावजे के साथ काम करने वालों में पूर्व बैंक कर्मचारी, पशु चिकित्सक और 3 एमबीए भी शामिल हैं। बावजे ने कहा, 'यदि मैं काम न करूं, मेरे पास खाने को कुछ नहीं रहेगा। भूख ने मेरी इच्छाओं को हरा दिया है।'
ऐसी और कहानियाँ हैं। तेलंगाना के शंकरैया कर्रवुला 14 साल तक शिक्षक के रूप में काम करने के बाद अपने गाँव लौट आए हैं। वे कहते हैं, 'मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।'
ओडिशा के राजेंद्र प्रधान भी इंजीनयिर हैं, अपने गाँव लौट आए हैं, उन्होंने मनरेगा के तहत रोज़गार के लिए आवेदन दे दिया है।
इंदिरा गांधी इंस्टीच्यूट ऑ़फ़ डेवलपमेंट रिसर्च की सुधा नारायण ने वॉशिंगटन पोस्ट से कहा, 'मुझे लगता है कि कम से कम दो साल तक मनरेगा लोगों के लिए सुरक्षा कवच बना रहेगा। लोगों के लिए यह अंतिम उपाय ही है, लेकिन अर्थव्यवस्था को देख कर नहीं लगाता है कि कहीं और रोज़गार के मौके बन रहे हैं।'
14 करोड़ मनरेगा कार्ड
देश में लगभग 14 करोड़ लोगों के पास मनरेगा कार्ड है। यदि हर किसी को साल में 100 दिन रोज़गार दिया जाए तो सरकार को 2.8 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। बता दें कि 1 अप्रैल, 2020 के बाद से लगभग 35 लाख लोगों ने मनरेगा कार्ड बनाने के लिए आवेदन दिया है। यह अब तक की सबसे बड़ी वृद्धि है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन का एलान कर दिया।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आर्थिक पैकेज का एलान करते हुए कहा था कि मनरेगा के तहत अतिरिक्त 40 हज़ार करोड़ रुपए दिए जाएंगे। इस साल के बजट में पहले से ही इस मद में 60 हज़ार करोड़ रुपए का प्रावधान है।
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