महंगाई एक ऐसी चीज़ है जो कभी ख़बरों से बाहर नहीं होती। कभी इसके बढ़ने की ख़बर है तो कभी घटने की। कभी एक चीज़ बढ़ती है तो दूसरी घटती है। बताया जाता है कि महंगाई ने इस देश में कई बार सरकारें भी गिरा दी हैं। हालाँकि आजकल के हालात देखकर यक़ीन करना मुश्किल है कि ऐसा भी होता होगा।
पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ना तो अब ख़बर ही नहीं रह गई है। पिछले पंद्रह दिन में बारह बार पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ चुके हैं। सौ रुपए लीटर पहुँचने तक की चर्चा तो बहुत थी लेकिन अब तो मुंबई में पेट्रोल एक सौ दस के ऊपर जा चुका है और कोई ख़ास हल्ला-गुल्ला भी नहीं है।
महंगाई के मोर्चे पर पिछले कुछ दिनों में आई ख़बरों पर नज़र डालें तो क्या दिखता है? सितंबर में खुदरा महंगाई की दर पाँच महीने में सबसे नीचे आ गई है जो त्योहारी सीज़न में अच्छी ख़बर मानी जा रही है। दूसरी तरफ़ खाने के तेलों की महंगाई से परेशान केंद्र सरकार ने इनके आयात पर कस्टम ड्यूटी ख़त्म करने और सेस घटाने का एलान किया है।
सब्जियों की उठापटक तो मौसमी ख़बर होती है लेकिन इस वक़्त टमाटर की महंगाई चौतरफ़ा मार कर रही है। कोलकाता में पूजा के मौक़े पर टमाटर बहत्तर रुपए किलो तक पहुँच गया जबकि मुंबई, दिल्ली और चेन्नई में भी भाव पचास रुपए से ऊपर ही हैं। इसके बावजूद सितंबर का थोक महंगाई दर का आँकड़ा भी लगातार चौथे महीने गिरा है और अब वो 10.66% पर पहुँच गया है। और इसकी सबसे बड़ी वजह है खानेपीने की चीजों की महंगाई में नहीं बल्कि दामों में भारी गिरावट। ध्यान रहे कि महंगाई में गिरावट का मतलब दाम कम होना नहीं है, बस दाम बढ़ने की रफ्तार में कमी होता है। जबकि सितंबर के आँकड़े में खाने-पीने की चीजों के दाम में ही 4.69% की कमी आई है। यानी यहाँ दाम बढ़ने के बजाय घटे हैं।
दूसरी तरफ़ मैन्युफैक्चर्ड प्रोडक्ट्स या फ़ैक्टरी में बननेवाली चीजों की महंगाई दर में मामूली बढ़त ही आई है और कच्चे तेल के दामों की वजह से ईंधन की महंगाई दर कुछ कम होने के बाद भी क़रीब पच्चीस परसेंट पर थी। यह सितंबर के आँकड़े हैं। अक्टूबर की शुरुआत से अब तक डीजल-पेट्रोल का हाल बता रहा है कि अक्टूबर में भी यहाँ कोई राहत दिखने के आसार तो नहीं हैं।
तो अब हिसाब जोड़िए कि महंगाई कम हो रही है या बढ़ रही है। सरकार और सरकारी पैरोकारों की मानेंगे तो यह घटती दिखेगी और इसके समर्थन में तर्क भी मिल जाएँगे और सबूत भी। लेकिन थोड़ा गहराई में चलें तो बात कुछ और ही है। और वो बात बहुत गंभीर है, आज के लिए ही नहीं, आगे के लिए भी।
अभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या आईएमएफ़ ने दुनिया की आर्थिक तरक्की के जो अनुमान जारी किए हैं उन्हें दिखाकर बहुत से लोग ढोल पीट रहे हैं कि भारत की ग्रोथ दुनिया में सबसे तेज़ रहनेवाली है। लेकिन वो यह नहीं देख रहे हैं कि मुद्राकोष ने इन आँकड़ों के साथ हल्के से एक चेतावनी भी दी है और वो चेतावनी महंगाई का ही ख़तरा दिखा रही है।
हालाँकि इससे ठीक पहले भारत का रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति में कह चुका है कि अगले तीन महीनों में महंगाई काबू में रहने के ही आसार दिख रहे हैं। लेकिन मुद्राकोष की चेतावनी तीन महीनों से आगे की है। उसका कहना है कि अगले साल के मध्य तक दुनिया भर में महंगाई की दर प्री-पैंडेमिक यानी कोरोना से पहले के स्तरों पर पहुँच जाएगी। उसका कहना है कि इस महंगाई का मुक़ाबला करने के लिए जल्दी एहतियाती क़दम उठाने की ज़रूरत है। यही नहीं, आईएमएफ़ का यह भी कहना है कि महंगे पेट्रोल और डीजल का बाक़ी हर चीज़ की महंगाई पर थोड़ा असर पड़ता है लेकिन वही काफी है। दूसरे शब्दों में कच्चे तेल के दामों में आ रही तेज़ी और उससे भारत में महंगाई बढ़ने की आशंका को नज़रअँदाज़ करना दुस्साहस ही कहा जा सकता है।
आईएमएफ़ ने अप्रैल में कहा था कि चालू साल में भारत की महंगाई दर 4.9% रह सकती है लेकिन अब उसने इसे बढ़ाकर 5.6% कर दिया है। आईएमएफ़ की रिपोर्ट में एक चिंताजनक बात यह भी दिखती है कि कोरोना संकट के दौरान जहाँ अमीर देशों में महंगाई दर काफ़ी तेज़ी से और भारत जैसे विकासशील या इमर्जिंग मार्केट्स कहलानेवाले देशों में कुछ कम रफ्तार से गिरी थी, वहीं ग़रीब देशों में महंगाई गिरने के बजाय बढ़ती ही रही और इस वक़्त जब दुनिया भर में इकोनॉमी में सुधार की बात हो रही है तब भी वहाँ की महंगाई सबसे तेज़ ही बढ़ रही है। इमर्जिंग मार्केट्स उसके साथ मुक़ाबले में आ गए हैं और अमीर देशों में भी महंगाई का एक नया दौर शुरू होता दिख रहा है।
अमेरिका के अख़बारों पर नज़र डालें तो दिखता है कि इस वक़्त वहाँ महंगाई बहुत बड़ी चिंता बन चुकी है। पांच-साढ़े पांच परसेंट महंगाई का आँकड़ा भारत से देखने पर कम दिखता है लेकिन अमेरिका में यह दस साल में सबसे ऊँचे स्तर पर पहुँच चुका है। अब केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के भीतर भी इससे निपटने के मसले पर गंभीर मंत्रणा हो रही है और वाद-विवाद के स्वर बाहर भी आने लगे हैं।
सबसे बड़ा दबाव तो यही है कि डेढ़ साल से लगातार नोट छाप रहा अमेरिका अब कैसे उन नोटों को सिस्टम से बाहर खींचने का काम करेगा ताकि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व के इस फ़ैसले पर पूरी दुनिया की ही नज़र है क्योंकि सबको आशंका है कि जैसे ही नकदी की सप्लाई घटेगी वैसे ही शेयर बाज़ारों में दीवाली का माहौल भी ख़त्म हो जाएगा। और अब वो स्थिति भी कोई नहीं चाहता। यह महंगाई कुछ समय की बात है ऐसा माननेवाला तो अब शायद ही कोई बचा हो। लेकिन विद्वानों का एक तबक़ा खड़ा हो चुका है जिसका कहना है कि इस वक़्त दुनिया भर में अर्थव्यवस्था की जो हालत है उसमें सभी को थोड़ी और महंगाई झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि क़ारोबार का चक्का वापस चलाने के लिये शायद यह बहुत ज़रूरी है। उनका कहना है कि कोरोना संकट और उसके साथ लगे लॉकडाउन की वजह से दुनिया भर में सप्लाई चेन बिखर चुकी थीं। यही वजह है कि ज़्यादातर उद्योगों में कच्चा माल या पुर्जे नहीं पहुँच पाए और कार या फर्नीचर जैसी चीजों के दाम बढ़ते दिख रहे हैं। दाम बढ़ने की वजह यही है कि कंपनियों का ख़र्च बढ़ गया है। और वो भी तब जबकि वो किफायत के सारे रास्ते आजमा चुकी हैं। ऐसे में दाम काबू करने का दबाव शायद बहुत से क़ारोबारों के लिए ख़तरनाक भी साबित हो सकता है।
लेकिन यह एक तर्क है। दूसरी तरफ़ उन ग़रीब देशों में करोड़ों की आबादी को देखिए जो अमेरिका या यूरोप के मुक़ाबले तीन गुना रफ्तार से चढ़ती महंगाई की मार झेल रही है। उसे राहत न मिली तो वो क्या खाएगी और क्या खरीदेगी? मुद्राकोष और विश्वबैंक जैसी संस्थाओं को इन सबकी भी फिक्र करनी है। शायद इसीलिए वो तरक्की की बात करने के साथ ही महंगाई के ख़तरे की तरफ़ आगाह करना भी ज़रूरी समझ रहे हैं।
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