आर्थिक बदहाली, रिकॉर्ड बेरोज़गारी और किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं के बीच हुए आम चुनाव में सत्तारूढ़ दल की रिकॉर्ड जीत और अकेले पूर्ण बहुमत से कई सवाल खड़े हो रहे हैं। यह कहा जाने लगा है कि अर्थव्यवस्था चुनावी राजनीति को प्रभावित नहीं करती, बेरोज़गारी कोई मुद्दा नहीं है और आर्थिक रूप से फटेहाल लोग भी यह नहीं सोचते कि वे उसे फिर से न चुनें जो इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है। यह कहा जाने लगा है कि भारत की राजनीति अब बहुमतवाद और राष्ट्रवाद से संचालित होगी, अर्थव्यवस्था बेमानी हो चुकी है। क्या वाकई?