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क्या भारत अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान प्रशासन को मान्यता दे देगा? यह सवाल देश के विदेश विभाग या सरकार के शीर्ष नेतृत्व के सामने तो है ही, पूरी दुनिया की नज़र इस पर है। लेकिन यह बेहद पेचीदा मामला है और इसका उत्तर उतना आसाना नहीं है जितना समझा जा सकता है।
यह भारत के सामने नैतिक, राजनीतिक व रणनीतिक सवाल तो खड़े करता ही है, सत्तारूढ़ दल की राजनीति पर भी गंभीर सवाल उठाता है।
अफ़ग़ानिस्तान में1996 से 2001 तक चले मुल्ला उमर के तालिबान प्रशासन को भारत ने अंत तक मान्यता नहीं दी थी।
भारत का मानना साफ था कि वह आतंकवादी गुट था और उसने सत्ता पर ज़बरन और हिंसा के बल पर क़ब्ज़ा किया था, जिसमें आम जनता की न तो भागेदारी थी न ही सहमति। वह पूरी तरह से अवैध सरकार थी।
ऐसा मानने वालों में भारत अकेला नहीं था, सिर्फ तीन देशों ने मुल्ला उमर की सरकार को मान्यता दी थी-पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब।
मौजूदा तालिबान को लेकर भी सरकार का हाल फिलहाल तक मानना था कि यह आतंकवादी गुट है, अफ़ग़ानिस्तान में चुनी हुई सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा कर रहा है और उससे किसी तरह की बातचीत नहीं की जा सकती है।
हालांकि भारत ने दोहा में हुई अमेरिका-तालिबान बातचीत के बाद गुपचुप व अनाधिकारिक तौर पर तालिबान नेतृत्व से संपर्क किया था, ऐसा कहा जा रहा है, पर सरकार ने इसकी पुष्टि नहीं की है।
इस नैतिक स्टैंड के बावजूद इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि तालिबान को समर्थन नहीं करना रणनीतिक रूप से भारत के लिए उल्टा पड़ सकता है।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा है कि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की जनता की 'ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया है'। इसका आशय साफ है।
विशेषज्ञों का कहना है कि तालिबान की कामयाबी के पीछे पाकिस्तान है, जिसने 20 साल तक तालिबान लड़ाकों और शीर्ष नेतृत्व को न सिर्फ पनाह दी, बल्कि उन्हें हथियार दिए, प्रशिक्षण दिया, उन पर अरबों रुपए खर्च कर उन्हें टिकाए रखा। इस सरकार को वह समर्थन ही नहीं देगा, बल्कि प्रशासन में सिराज़ुद्दीन हक्क़ानी और अपने दूसरे लोगों को अहम ज़िम्मेदारी भी दिलवाएगा।
राजधानी काबुल पर तालिबान के नियंत्रण के अगले ही दिन चीनी विदेश विभाग की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने कहा कि बीजिंग तालिबान के साथ 'सहयोग और दोस्ती का रिश्ता' बनाना चाहता है और वह अफ़ग़ानिस्तान के 'विकास व पुनर्निमाण में उसका साझेदार' बनना चाहता है। इसका भी अर्थ स्पष्ट है।
इसके पहले जुलाई महीने में तालिबान का शीर्ष नेतृत्व चीन गया था, जिसमें तालिबान के हथियारबंद दस्ते के प्रमुख मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर भी शामिल थे। इन लोगों ने तियानजिन में चीनी विदेश मंत्री वांग यिंग से मुलाक़ात की थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि चीन ने यह आश्वासन चाहा था कि तालिबान उसके उत्तर पश्चिम में पाकिस्तान व अफ़ग़ानिस्तान से सटे प्रांत शिनजियांग के उइगुर मुसलमानों पर चुप रहेगा, उन्हें किसी तरह का समर्थन नहीं करेगा। तालिबान इस पर राजी हो गया था।
इसे तालिबान प्रवक्ता के ताजा बयान से भी जोड़ कर देखा जा रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 'अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं करने दिया जाएगा।'
भारत इस स्थिति में अफ़ग़ानिस्तान से मुँह मोड़ कर उसे छोड़ नहीं रह सकता है। भारत के ख़िलाफ़ 'चीन-पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान एक्सिस' न उभरे या कम से कम अफ़ग़ानिस्तान भारत के प्रति निष्पक्ष रहे, इसके लिए तालिबान को मान्यता देना भारत की मजबूरी है।
जम्मू-कश्मीर में तालिबान के आतंकवादी घुस कर कहर न बरपाएं, पाकिस्तान उनका इस्तेमाल वहाँ न करे, पाकिस्तान के आतंकवादी गुट भारत में 'जिहाद' के लिए तालिबान लड़ाकों को राज़ी न कराएं, इसके लिए भी भारत को अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिल कर ही रहना होगा।
इसी तरह चीन के साथ संभावित झड़प या सीमा विवाद में अफ़ग़ानिस्तान बीजिंग का साथ न दे, इसके लिए भी नई दिल्ली को तालिबान के साथ रहना होगा।
अपने हितों की रक्षा के लिए भारत को तालिबान को न सिर्फ मान्यता देनी होगी, बल्कि उसे समर्थन भी देना होगा, उसकी कूटनीतिक व आर्थिक मदद भी करनी होगी।
विश्लेषकों का मानना है कि भारत इसकी ओर बढ़ रहा है और मन बना रहा है।
इसे इससे समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबी चुप्पी के बाद मंगलवार को महत्वपूर्ण बात कही जिसे भविष्य के लिए नीति उद्धोष यानी 'पॉलिसी स्टेटमेंट' माना जा सकता है।
उन्होंने सुरक्षा पर बनी कैबिनेट कमेटी की बैठक में कहा, "भारत अगले कुछ दिनों में उन अफ़ग़ान भाइयों और बहनों की हर मुमकिन मदद करेगा, जो इसकी ओर उम्मीद से देख रहे हैं।"
उन्होंने कहा,
“
भारत को अपने नागरिकों की रक्षा ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि यहाँ आने को इच्छुक अफ़ग़ान हिन्दुओं व सिखों की हर मुमकिन मदद करनी चाहिए, और हमें उन अफ़ग़ान भाइयों व बहनों की भी मदद करनी चाहिए जो हमारी ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं।
नरेंद्र मोेदी, प्रधानमंत्री
इसका मतलब साफ है, भारत अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की मदद करना चाहता है, अगले कुछ दिनों में इससे जुड़ा महत्वपूर्ण एलान कर सकता या कदम उठा सकता है।
इसे इससे भी समझा जा सकता है कि 'इंडियन एक्सप्रेस' के अनुसार, उसे विदेश विभाग के शीर्ष के सूत्रों ने बताया है कि "भारत तालिबान को समर्थन करने वाले पहले देशों में नहीं होगा, वह 'देखो और इंतजार करो' की नीति अपनाएगा और दूसरे लोकतांत्रिक देश क्या करते हैं, उसके हिसाब से फ़ैसला करेगा।"
इससे सत्तारूढ़ दल बीजेपी को राजनीतिक दिक्क़त हो सकती है। बीजेपी ने जिस तरह सोची समझी रणनीति के तहत मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक नैरेटिव बनाया है, उन्हें खलनायक और देश की हर मुसीबत चाहे वह कोरोना हो कश्मीर, के लिए ज़िम्मेदार ठहराया है, उसमें मुसलमानों के हिंसक संगठन तालिबान और उसकी सरकार को मान्यता देना मुश्किल है।
मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिन्दुओं को गोलबंद करने की उसकी रणनीति को झटका लग सकता है। पार्टी के कट्टरपंथी तत्व और मुसलमानों के ख़िलाफ़ खड़े किए लोगों को यह समझाना मुश्किल होगा कि अब तालिबान भले हो गए हैं।
'कप़ड़ों से उपद्रवियों की पहचान' करने वाले, 'श्मशान घाट-कब्रिस्तान' की तुलना करने वाले और 'अंदर घुस कर मारने वाले' अब यकायक कट्टरपंथी इसलामी संगठन से दोस्ताना रिश्तों की बात करेंगे, तो कट्टरपंथी हिन्दुओं को इसे अपने गले उतारने में मुश्किल होगी।
लेकिन यही समय है जब नरेंद्र मोदी एक मुश्किल और साहसीपूर्ण कदम उठाएं, यह राजनीतिक जोखिम लें और तालिबान व अफ़ग़ानिस्तान को मान्यता व मदद दें।
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