वॉट्सऐप के ज़रिए जासूसी कराने के आरोप से कई सवाल खड़े हो गए हैं। यह मामला आम नागरिकों की निजता जैसे मौलिक अधिकारों से जुड़ा हुआ तो है ही, इसके पीछे के खेल को भी समझने में मदद करता है। एक सवाल जो सबको परेशान कर रहा है, वह है, आख़िर यह जासूसी किसने कराई है? इससे किसे फ़ायदा है? कौन है जिसने इसके लिए करोड़ों रुपये खर्च किए होंगे? उसका मक़सद क्या है?
सरकार ने पूरे मामले पर वॉट्सऐप से जवाब तलब किया है और सफ़ाई माँगी है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इसे एक झटके से खारिज ही नहीं कर दिया है, उस पर ज़ोरदार तंज भी किया है। गुरुवार को कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने कहा, 'वॉट्सऐप से पेगैसस के बारे में सरकार का पूछना वैसा ही है जैसा दसॉ से यह सवाल करना कि रफ़ाल जेट सौदे से किसने पैसे बनाए।'
राहुल गाँधी के इस तंज से यह बात साफ़ है कि वह इसके लिए सरकार और सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी को ज़िम्मेदार मान रहे हैं।
क्या है मामला?
हैरान करने वाले इस मामले के बारे में भारत में लोगों को गुरुवार को पता चला जब अंग्रेजी अख़बार 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने इससे जुड़ी ख़बर छापी। अख़बार ने ख़बर दी कि अमेरिका के सैन फ़्रांसिस्को की एक संघीय अदालत में एक मुक़दमे की सुनवाई के दौरान वॉट्सऐप से जुड़ी जानकारियाँ सामने आईं। इस मुक़दमे में वॉट्सऐप ने आरोप लगाया कि इजरायली एनएसओ समूह ने पेगैसस स्पाइवेयर का इस्तेमाल कर 1400 वॉट्सऐप यूजर्स पर नजर रखी थी। मुक़दमे के दौरान वॉट्सऐप ने इन यूजर्स की पहचान और फ़ोन नंबर बताने से इनकार कर दिया। वॉट्सऐप के प्रवक्ता ने 'द इंडियन एक्सप्रेस' से कहा, 'भारतीय पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर नज़र रखी गई। मैं उनकी पहचान और फ़ोन नंबर्स को उजागर नहीं कर सकता। मैं यह कह सकता हूँ कि यह कम संख्या नहीं थी।'
एनएसओ समूह की
आधिकारिक वेबसाइट पर दी गई जानकारियों के मुताबिक, इसे क्यू साइबर टेक्नोलॉजीज़ के नाम से भी जाना जाता है। कंपनी का दावा है कि 'यह ऐसी प्रौद्योगिकी तैयार करती है जो सरकारी एजेंसियों को आतंकवाद और अपराध का पता लगाने और रोकने में मदद करती है।'
एनएसओ ने साल 2016 में अंतरराष्ट्रीय पत्रिका फ़ोर्ब्स को एक ई-मेल जवाब में दावा किया था :
“
कंपनी के साथ किए गए क़रार में यह अनिवार्य कर दिया गया है कि इसके उत्पादों का इस्तेमाल सिर्फ़ वैध तरीके से ही किया जा सकता है। ख़ास कर, उत्पादों का प्रयोग सिर्फ़ अपराध रोकने और जाँच के लिए ही किया जा सकता है।
फ़ोर्ब्स को भेजे एनएसओ की ई-मेल का अंश
एनएसओ समूह की वेबसाइट पर दावा किया गया है कि इसके उत्पादों का इस्तेमाल सिर्फ़ सरकारी जासूसी के लिए ही किया जा सकता है।https://www.nsogroup.com/about-us/
एनएसओ समूह की स्थापना इज़रायल में 2010 में हुई थी और इसने हथियार बनाने वाली अमेरिकी कंपनी वेस्टब्रिज टेक्नोलॉज़ीज की एक शाखा के रूप में काम शुरू किया था।
टोरंटो यूनिवर्सिटी की सिटीज़न लैब ने एक अध्ययन में बताया है कि एनएसओ ने संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और मेक्सिको को अपने जासूसी सॉफ़्टवेयर बेचे हैं।
कंपनी का दावा है कि यह अपने उत्पाद सिर्फ़ सरकारी एजेंसियों को ही बेचती है और वह भी सिर्फ़ आतंकवाद और अपराध रोकने के लिए, किसी दूसरे के लिए नहीं।
भारत में किसने यह सॉफ़्टवेयर लिया होगा, यह सवाल अहम है। एनएसओ पर भरोसा किया जाए तो उसने यह सिर्फ़ सरकारी एजेंसियों को ही दिया होगा और वह भी सिर्फ़ आतंकवाद और अपराध रोकने के लिए।
इसके मद्देनज़र ही कांग्रेस पार्टी ने शुक्रवार को एक बार फिर सरकार को घेरा। कांग्रेस ने सरकार पर हमला और तेज़ कर दिया। उसने ट्वीट कर सरकार से कहा है कि वह बताए कि पेगैसस सिस्टम किस एजेंसी ने खरीदी और निगरानी की। उसने यह भी पूछा है कि किसने इस खरीद के लिए सम्बन्धित लोगों को अधिकृत किया।
सरकार का इनकार!
लेकिन सरकार ने इससे साफ़ इनकार किया है। गुरुवार को पहले गृह मंत्रालय ने एक बयान जारी कर और उसके बाद सूचना प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि इससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। सरकार ने इसके साथ ही एक आरटीआई सवाल के जवाब में भी इस तरह की किसी कोशिश से इनकार किया। एनडीटीवी ने ख़बर दी है कि आईएएनएस ने इससे जुड़ा एक आरटीआई आवेदन डाल कर पूछा था कि क्या सरकार ने एनएसओ से पेगैसस सॉफ़्टवेयर ख़रीदा है। इसके जवाब में यह कहा गया है कि इस तरह की कोई जानकारी उसके पास नहीं है।
तो फिर किसने यह सॉफ़्टवेयर लिया होगा, इसके जवाब में दो बातों पर विचार करना होगा, किन लोगों की जासूसी की गई है और इस पर कितने पैसे खर्च हुए।
स्क्रॉल ने ख़बर दी है कि भारत में निशाना बनाए गए 14 लोगों में से कई भीमा कोरेगाँव केस से जुड़े हैं। भीमा कोरेगाँव का मामला दलितों से जुड़ा है और पुलिस ने इस मामले में दस कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है।
भीमा कोरेगाँव मामले में पुलिस का दावा है कि जून 2018 से मामले में गिरफ़्तार 10 कार्यकर्ताओं के कंप्यूटर, पेन ड्राइव और मेमोरी कार्ड से कई चिट्ठियाँ बरामद की गई हैं। चिट्ठियों में कथित तौर पर संकेत दिए गए हैं कि देश को अस्थिर करने, भारतीय जनता पार्टी की सरकार को गिराने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने के लिए माओवादी साज़िश रच रहे थे।
निशाने पर अर्बन नक्सल?
यह ध्यान देने की बात है कि सरकार भीमा कोरेगाँव के मामले को अपराध ही मानती है। इससे जुड़े कई लोगों को इसने अर्बन नक्सल माना है। नक्सली संगठन भारतीय माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी प्रतिबंधित है और सरकार इन लोगों को आतंकवादी कहती है। तो क्या इन्हें आतंकवादी मान कर इन पर निगरानी रखने के लिए किसी ने इस सॉफ्टेवयर का प्रयोग किया?
करोड़ों का खर्च किसने उठाया?
दूसरा अहम सवाल यह है कि इस पर लगने वाला खर्च किसने उठाया। साल 2016 की दरों के मुताबिक एनएसओ 10 डिवाइस को हैक करने के लिए 6,50,000 डॉलर, आज के विनिमय दर के हिसाब से 4.6 करोड़ रुपये लेती है। इसके अलावा यह 5 लाख डॉलर इन्सटॉल करने की फीस लेती है, यह आज के दर से 3.5 करोड़ रुपए है। यानी इस पर कम से कम 8.10 करोड़ रुपए खर्च हुए होंगे। यह सिर्फ़ 10 डिवाइस की हैंकिंग की फीस है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या किसी व्यक्ति विशेष को इसमें दिलचस्पी होगी कि वह अपनी जेब से करोड़ों रुपये खर्च कर यह जासूसी करवाए। क्या कोई कंपनी इस काम में करोड़ों रुपये लगाएगी, ख़ास कर तब जब उसे भीमा कोरेगाँव के आन्दोलन से कोई व्यावसायिक हित नहीं सध रहा है।
क्या सरकार ने भीमा कोरेगाँव के 'अपराध' की जाँच के लिए करोड़ रुपये खर्च किए हैं ताकि दोषी लोगों तक पहुँचा जाए। सरकार ने इससे इनकार किया है।
ऐसे में कांग्रेस पार्टी का यह कहना महत्वपूर्ण हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले का संज्ञान ले और जाँच के आदेश दे।
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