1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय के सदस्यों पर जातीय हिंसा की जाँच कर रहे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने माना है कि एल्गार परिषद कार्यक्रम की हिंसा में कोई भूमिका नहीं थी। यह जाँच अधिकारी उप-विभागीय पुलिस अधिकारी गणेश मोरे हैं। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार मोरे ने यह बात हिंसा की जांच के लिए गठित दो सदस्यीय न्यायिक आयोग के सामने कबूल की है। तो सवाल है कि पिछले चार साल में सरकार से लेकर पुलिस और एनआईए तक दलितों, दलितों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्टों और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ता के पीछे किस आधार पर पड़ी हैं?