1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय के सदस्यों पर जातीय हिंसा की जाँच कर रहे एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने माना है कि एल्गार परिषद कार्यक्रम की हिंसा में कोई भूमिका नहीं थी। यह जाँच अधिकारी उप-विभागीय पुलिस अधिकारी गणेश मोरे हैं। द वायर की रिपोर्ट के अनुसार मोरे ने यह बात हिंसा की जांच के लिए गठित दो सदस्यीय न्यायिक आयोग के सामने कबूल की है। तो सवाल है कि पिछले चार साल में सरकार से लेकर पुलिस और एनआईए तक दलितों, दलितों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्टों और दूसरे सामाजिक कार्यकर्ता के पीछे किस आधार पर पड़ी हैं?
गणेश मोरे की इस स्वीकारोक्ति के बाद क्या पुणे पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए के दावों पर सवाल नहीं खड़े होते हैं? एनआईए का दावा है कि 16 एक्टिविस्टों ने भीमा कोरेगांव में अपने भाषणों से भीड़ को 'भड़काने' और भीमा कोरेगांव हिंसा भड़काने में सक्रिय भूमिका निभाई थी। इस मामले के तीन आरोपियों को जमानत पर रिहा कर दिया गया है, और एक व्यक्ति की हिरासत में मृत्यु हो गई, बाक़ी 12 मुंबई की जेलों में हैं।
गणेश मोरे भीमा कोरेगांव हिंसा मामले से किस तरह जुड़े रहे हैं और उन्होंने क्या कहा है, इसकी चर्चा बाद में, पहले यह जान लें कि यह मामला क्या है।
हर साल 1 जनवरी को पूरे देश से दलित भीमा कोरेगाँव पहुंचकर पेशवा के ख़िलाफ़ महारों की वीरता और शौर्य का जश्न मनाते हैं। भीमा कोरेगांव सदियों तक होने वाले दलितों के दमन के प्रतिशोध का प्रतीक बन गया है। 1 जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए महार रेजीमेंट के सैनिकों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की भारी-भरकम फौज को परास्त किया था। पुणे से महज 19 किलोमीटर दूर भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में होने वाले इस युद्ध में शहीद हुए महारों सहित अनेक योद्धाओं के नाम इस शिला स्तंभ पर दर्ज हैं।
भीमा कोरेगाँव हिंसा में एक आदमी की मौत हुई और सैकड़ों लोग घायल हुए। पुलिस ने 20 से ज़्यादा एफ़आईआर दर्ज़ कीं और 100 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया था।
हिंसा के बाद आरोप लगाया गया कि पुणे के शनिवारवाडा में एक दिन पहले यानी 31 दिसंबर 2017 को एल्ग़ार परिषद की जो कॉन्फ़्रेंस हुई थी उसमें भड़काऊ भाषण दिए गए। भाषण देने वालों में दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और उमर ख़ालिद के नाम प्रमुखता से लिए गए। इन दोनों के खिलाफ केस भी दर्ज़ हुआ। दिलचस्प बात यह है कि एल्ग़ार परिषद की बैठक सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और प्रेस काउंसिल के पूर्व चेयरमैन जस्टिस पी. बी. सावंत ने बुलाई थी। स्थानीय एनजीओ कबीर कला मंच इस आयोजन में बराबर का साझीदार था। पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कबीर कला मंच के सदस्यों और सुधीर धावले ने आपत्तिजनक गाने पेश किए, राष्ट्रविरोधी भाषण दिए गए और समाज को बाँटने की कोशिश की गई। इसकी वजह से भीमा कोरेगाँव में हिंसा हुई। जस्टिस सावंत ने इससे साफ़ इनकार किया है, लेकिन पुलिस अपनी ही थ्योरी पर क़ायम रही।
इस मामले की जाँच अधिकारी रहे और हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मोरे ने इस साल अप्रैल में शुरू हुए एक बयान में स्वीकार किया कि अत्याचार के नौ मामले उनके अधिकार क्षेत्र में दायर किए गए और उनके द्वारा जांच की गई। उन्होंने जाँच में कहा है कि हिंसा में एल्गार परिषद के आयोजन की कोई भूमिका नहीं दिखाई दी।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार मोरे ने एक गवाह की ओर से पेश वकील राहुल मखारे के सवाल के जवाब में कहा है, 'मुझे यह दिखाने के लिए कोई जानकारी या सामग्री नहीं मिली कि 1 जनवरी 2018 को हुई दंगों की घटना 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवारवाडा में एल्गार परिषद के आयोजन की वजह से हुई थी।'
यह शायद पहली बार है जब किसी राज्य के प्रतिनिधि ने स्वीकार किया है कि एल्गार परिषद की घटना की हिंसा में कोई भूमिका नहीं थी।
रिपोर्ट के अनुसार राहुल मखारे कहते हैं, 'हम सभी ने सबूतों की ओर इशारा किया है जो हिंसा में मिलिंद एकबोटे और मनोहर कुलकर्णी उर्फ संभाजी भिडे की प्रत्यक्ष भूमिका को साफ़ तौर पर दर्शाता है। पीड़ितों द्वारा दर्ज कराई गई प्राथमिकी भी उनकी भूमिका और भीमा कोरेगांव क्षेत्र में कई वर्षों से काम कर रहे उनके संगठन से जुड़े लोगों की ओर इशारा करती है। लेकिन इस सबूत को राज्य ने दबा दिया है।'
बता दें कि एफआईआर के बाद एकबोटे और भिडे पर दलितों पर हिंसा भड़काने और इसमें उनकी सीधी भूमिका के लिए मामला दर्ज किया गया था। एकबोटे को तो 2018 में कुछ दिनों के लिए गिरफ्तार भी किया गया था, लेकिन भिडे बचे रहे। भिडे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक रहे हैं और एकबोटे भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक का चुनाव लड़ चुके हैं।
पुलिस ने दलितों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा, वरनो गोन्जाल्विस, स्टैन स्वामी जैसे एक्टिविस्टों पर कार्रवाई की। पहले तो उन पर हिंसा भड़काने के आरोप लगे थे, लेकिन बाद में उन्हें 'अर्बन नक्सल' कहा गया।
उनमें से अधिकतर पर माओवादियों से संबंध होने का आरोप लगाया गया। एनआईए ने जाँच में उनमें से कई पर कश्मीरी अलगाववादियों से संबंध होने के आरोप लगाए। कुछ पर प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश रचने का आरोप भी लगाया गया।
बता दें कि कई मीडिया रिपोर्टों में अब यह दावा किया गया है कि अमेरिकी फोरेंसिक फर्म ने पाया है कि एक्टिविस्ट स्टैन स्वामी, रोना विल्सन और सुरेंद्र गाडलिंग के कम्प्यूटर में सबूत डालने के सबूत मिले हैं। अमेरिका का प्रतिष्ठित अख़बार वाशिंगटन पोस्ट ने ख़बर दी है, "अब मैसाचुसेट्स स्थित डिजिटल फोरेंसिक फर्म, आर्सेनल कंसल्टिंग ने उनके कंप्यूटर की एक इलेक्ट्रॉनिक कॉपी की जाँच की है। कंपनी की नई रिपोर्ट के अनुसार, इसका निष्कर्ष है कि एक हैकर ने उनके डिवाइस में घुसपैठ की और साक्ष्य प्लांट किए।"
क्या है न्यायिक आयोग
हिंसा की जाँच के लिए न्यायिक आयोग गठित हुआ। दो सदस्यीय न्यायिक आयोग की अध्यक्षता कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे.एन. पटेल ने की। सदस्य के रूप में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सचिव सुमित मलिक थे। उन्होंने 2018 की शुरुआत में इसकी सुनवाई शुरू की। तब से आयोग ने कई एक्सटेंशन मांगे हैं। पीड़ितों के साथ-साथ पुलिस और खुफिया इकाई सहित राज्य मशीनरी ने अपने हलफनामे दाखिल किए हैं।
इधर, एल्ग़ार परिषद की बैठक बुलाने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और प्रेस काउंसिल के पूर्व चेयरमैन जस्टिस पी. बी. सावंत ने क़रीब तीन साल पहले हफ़िंगटन पोस्ट को एक इंटरव्यू दिया था। उसमें उन्होंने पुलिस की थ्योरी को ग़लत बताया था। उन्होंने साफ़ कहा था कि एल्ग़ार परिषद के लोगों का माओवादियों से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए यह कहना कि एल्ग़ार परिषद को माओवादियों ने फ़ंड किया था और आयोजन के असली कर्ता-धर्ता वही थे, ग़लत है। जस्टिस सावंत का आरोप है कि भिड़े और एकबोटे ने हिंसा कराई।
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